उत्तराखंड: पेड़ों पर आरियां और हरेला की बधाइयां

पूरा उत्तराखंड आज अपना लोकपर्व हरेला मना रहा है। प्रकृति के संरक्षण से जुड़ा यह पर्व मुख्यरूप से कुमाऊं क्षेत्र का पर्व है। इस पर्व के एक सप्ताह पहले एक टोकरी में मिट्टी भरकर उसमें सात तरह के अनाज बोये जाते हैं और टोकरी पूजा स्थल के पास रखी जाती है। एक सप्ताह बाद हरा और पीलापन लिये हरियाली उग आती है। हरेला के दिन, यानी सावन के महीने की संक्रांति को पूजा-अर्चना के बाद इस हरियाली को काटकर प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। माना जाता है पूजास्थल पर रखी हरियाली जितनी तेजी से बढ़ेगी, उस वर्ष फसल उतनी ही बेहतर होने की उम्मीद रहेगी। 

उत्तराखंड की लोक संस्कृति के लिए काम करने वाली संस्था धाद ने कुछ वर्ष पहले इस पर्व को पौधारोपण के पर्व के रूप में कुमाऊं अंचल से बाहर और खासकर देहरादून में मनाने की शुरुआत की। कुछ ही वर्षों बाद हरेला से बड़ी संख्या में लोग जुड़ने लगे और राज्य के गढ़वाल अंचल में भी इसे पौधारोपण पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। दरअसल यह पर्व ठीक उस समय आता है, जब लगातार बारिश हो रही होती है और पौधारोपण के लिए सबसे मुफीद समय होता है। बाद में तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने सबसे पहले धाद के कार्यक्रम को सरकारी मान्यता देने की पहल की। उसके बाद तो हरेला पर्व पूरे राज्य का पर्व बन गया और हर विभाग को हरेला मानने के आदेश दिये गये।

आज सुबह से ही सोशल मीडिया पर हरेला पर्व छाया हुआ है। लोग पौधा रोपते हुए या इस तरह का उपक्रम करते हुए अपने फोटो भेज रहे हैं। मुख्यमंत्री सहित सभी सत्ताधारी और विपक्षी नेता पौधारोपण की जरूरत बताते हुए अपने पौधा रोपते फोटो के साथ शुभकामनाएं भेज रहे हैं। कुल मिलाकर धरती से ज्यादा सोशल मीडिया हरा-भरा प्रतीत हो रहा है।

हरेला पर्व की परंपरागत हरियाली।

राज्य में पेड़ों के अंधाधुंध कटान पर मौन रहने वाले पर्यावरणविद् भी हरेला पर मुखर हैं। वे भी अपने संदेशों से सोशल मीडिया को हरा-भरा बनाने में योगदान दे रहे हैं। पर्यावरण के लिए पद्मश्री पुरस्कार प्राप्त एक पर्यावरणविद् पेड़ काटने को लेकर मौन साधे रहते हैं और पेड़ काटने के विरोध में किये जाने वाले आंदोलनों से दूरी बनाये रखते हैं। शामिल होना तो दूर पेड़ काटने के खिलाफ एक बयान भी कभी उन्होंने नहीं दिया। लेकिन फिलहाल इस हरेला पर वे हेलीकॉप्टर से राज्य के दूर-दराज क्षेत्रों में यात्रा कर रहे हैं। हेलीकॉप्टर के साथ अपने फोटो और अपनी इस यात्रा के दौरान पेड़ों के महत्व पर दिये गये अपने भाषणों पर लगातार सोशल मीडिया पर अपडेट कर रहे हैं। 

ये पर्यावरणविद राज्य में चारधाम सड़क परियोजना का समर्थन कर चुके हैं। इस योजना में हजारों पेड़ काटे गये थे। इसे ऑलवेदर रोड कहा गया था और दावा किया गया था कि यह हर मौसम में चालू रहेगी। लेकिन, अब जबकि राज्य के तीन जिलों को छोड़कर बाकी जिलों में औसत से कम बारिश हुई है और कुछ जिलों में तो अभी बारिश सामान्य से आधा भी नहीं हुई है, तब भी ऑलवेदर रोड दर्जनों बार बंद हो चुकी है। ऑलवेदर रोड को लेकर ज्यादा किरकिरी न हो, इसके लिए बंद सड़कों के सार्वजनिक किये जाने वाले आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ की गई है। उदाहरण के लिए लोक निर्माण विभाग के आंकड़े देखे जा सकते हैं। विभाग मानसून सीजन में हर दिन बंद होने वाली सड़कों के आंकड़े जारी करता है। ऑलवेदर रोड को बदनाम होने से बचाने के लिए इन आंकड़ों में छेड़छाड़ की गई है।

सोशल मीडिया पर हरेला के ऐसे बधाई संदेश पूछ रहे सवाल।

लोक निर्माण विभाग के आंकड़े बताते हैं कि इस मानसून सीजन में 9 जुलाई तक नेशनल हाईवे, जिनका ज्यादातर हिस्सा ऑलवेदर रोड घोषित है, 20 बार बंद हुए। 10 जुलाई को यह संख्या 21 बार हो गई, लेकिन 11 जुलाई को मानसून सीजन में बंद हुए नेशनल हाईवे (ज्यादातर ऑल वेदर रोड) की संख्या रहस्यमय तरीके से घटकर 17 हो गई। 13 जुलाई को चमोली जिले में भारी बारिश हुई और बदरीनाथ मार्ग एक दर्जन से ज्यादा जगहों पर बंद हो गया। इसमें नन्दप्रयाग के पास पुरसाड़ी भी शामिल है, जहां ऑलवेदर रोड का एक पूरा हिस्सा टूटकर गिर गया। इसके बावजूद मानसून सीजन में बंद होने वाले नेशनल हाईवे की संख्या 17 ही बनी रही। 16 जुलाई की सुबह जारी आंकड़ों के अनुसार भी इस मॉनसून सीजन में अब तक नेशनल हाईवे 17 बार ही बंद हुआ और खोल दिया गया।

वापस हम हरेला पर आएं तो एक तरफ जहां नेता, सरकारी विभाग और तथाकथित पर्यावरणविद सोशल मीडिया को हरा-भरा बना रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ पेड़ों को बचाने के आंदोलन में शामिल लोग पेड़ काटे जाने के फोटो साझा करके हरेला मनाने के औचित्य पर सवाल उठा रहे हैं। पेड़ बचाने के आंदोलनों से जुड़े लोग तीन महीने पहले आशा रोड़ी में और तीन दिन पहले सहस्रधारा रोड पर पेड़ों पर बेरहमी से आरी चलाये जाने के फोटो साझा कर रहे हैं और नेताओं व तथाकथित पर्यावरणविदों से सवाल पूछ रहे हैं कि यदि पेड़ों को इस बेरहमी से काटा जाना है तो फिर हरेला मनाने और पेड़़ों के महत्व पर भाषण देने का क्या औचित्य है। हरेला के बहाने लोग देहरादून और आस-पास के इलाकों पर उन प्रस्तावित योजनाओं को लेकर भी सवाल पूछ रहे हैं, जिनमें हजारों पेड़ काटे जाने हैं।

उल्लेखनीय है कि देहरादून शहर और इसके आस पास अभी ऐसी कई योजनाएं हैं, जो जल्द शुरू होने वाली हैं और इनमें कई हजार पेड़ों को काटा जाना हैं। देहरादून-दिल्ली हाईवे को चौड़ा करने के लिए आशारोड़ी में हजारों पेड़ों पर विरोध के बावजूद आरी चलाई जा चुकी है। पिछले एक हफ्ते से मसूरी बाइपास रोड को चौड़ा करने के लिए सहस्रधारा रोड के पेड़ काटे जा रहे हैं। यहां भी लगातार पेड़ काटे जाने का विरोध किया जा रहा है। विरोध के बावजूद पेड़ काटे जा रहे हैं। असहाय लोग काटे गये पेड़ों पर ठूंठों पर फूलमालाएं चढ़ाकर अपना गुस्सा और विरोध दर्ज कर रहे हैं। उधर जौलीग्रांट एयरपोर्ट के विस्तारीकरण की योजना पर किसी भी दिन काम शुरू हो सकता है।

एयर पोर्ट एक्सटेंशन के लिए दून में सबसे बड़े जंगल को पूरी तरह खत्म किया जाएगा। हाल के दिनों में देहरादून में विधानसभा भवन बनाने की मंजूरी मिल चुकी है। अभी तक देहरादून में विधानसभा भवन अस्थाई रूप से किसी विभाग की बिल्डिंग में चल रहा है। हालांकि चमोली जिले के गैरसैंण में विधानसभा भवन बनाया गया है। गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी भी घोषित किया गया है। लेकिन, सरकार गर्मियों में भी गैरसैंण जाने को तैयार नहीं है। ऐसे में गैरसैंण के विधानसभा भवन पर ताले लटके हुए हैं। देहरादून के रायपुर क्षेत्र में जिस जमीन पर विधानसभा भवन बनाया जाना है, उसे कुछ वर्ष पहले ही नगर निगम में शामिल किया गया है। यह घना जंगल है, जिसे विधानसभा भवन बनाने के नाम पर काटा जाएगा।

बहरहाल इन तमाम उलटबांसियों के बीच इंद्रेश मैखुरी के फेसबुक पोस्ट पर गौर करने लायक है। लिखा है, पेड़ लगाने का उपदेश दें, फोटो खिंचवाएं, लेकिन बेतहाशा पेड़ काटने, पहाड़ रौंदने, नदियों में मलबा डालने के कारनामों की तरफ पीठ फेरकर बुरा न देखने वाले गांधी जी के बंदर बन जाएं। इस कृत्य से व्यक्ति के श्री, भूषण, विभूषण जैसे तमगों से अलंकृत सरकारी पर्यावरणविद होने का मार्ग प्रशस्त होता है।

(देहरादून से वरिष्ठ पत्रकार और एक्टिविस्ट त्रिलोचन भट्ट की रिपोर्ट।)

त्रिलोचन भट्ट
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