धीमे-धीमे तेज से तेजतर होते हुए तीव्रतम होती नफरती की आँधी

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70 के दशक में तब की जनता सरकार के विदेश मंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी, कहा जाता है कि, प्रोटोकॉल तोड़कर दुनिया के मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ से मिलने उनके घर गए थे। फैज़ से मुलाक़ात में तब उन्होंने कहा था कि मैं आपके एक शेर “मक़ाम ‘फ़ैज़’ कोई राह में जचा ही नहीं/ जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले ।।” के लिए आप से मिलने आया हूं।”  44 साल बाद उन्हीं वाजपेयी की पार्टी की सरकार ने फैज़ को सू-ए-दार पहुंचा दिया, उनकी दो नज़्मों को सूली पर चढ़ा दिया। सीबीएसई पाठ्यक्रम की एनसीईआरटी की 10 वीं की किताब में से उनकी दो नज़्में कोर्स में से हटा दी गयीं। फैज़ साहब पाकिस्तानी तानाशाहों के खिलाफ लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के लिए लड़ते-लड़ते कोई 7 वर्ष वहां की जेलों में रहे। काल कोठरियों में रहते हुए लिखा उनका साहित्य विश्व साहित्य की अनमोल धरोहर है। 

सीबीएसई की किताबों से हटाई गयी एक नज़्म आज बाज़ार में पा ब जौलाँ चलो  वह नज़्म है जिसकी रचना उन्होंने उस समय की थी, जब उन्हें लाहौर की एक जेल से जंजीरों में जकड़ कर एक तांगे में बैठाकर दांतों के डॉक्टर के यहां ले जाया जा रहा था। दूसरी नज़्म “हम तो ठहरे अजनबी इतनी मुलाकातों के बाद / खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद ?” उन्होंने 1974 में बांग्लादेश की यात्रा से लौटने के बाद, वहाँ हुए पाकिस्तानी फौज के अत्याचारों और उनसे बांग्लादेशी अवाम में पैदा हुए मनोमालिन्य को लेकर लिखी थी।

फैज़ साहब तो काफी दिन से निशाने पर थे। दो साल पहले आईआईटी कानपुर में एक विरोध-प्रदर्शन के दौरान छात्रों द्वारा फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ को गाए जाने पर एक फैकल्टी मेंबर ने इसे ‘हिंदू विरोधी’ बताया था और इसकी दो पंक्तियों पर आपत्ति जताई थी। हाल में बनी उन्माद भड़काने वाली निम्नस्तरीय प्रोपेगंडा फिल्म “कश्मीर फाइल्स” में तो इस नज़्म को देशद्रोह की केटेगरी में ही दिखाया गया था। 

मगर फैज़ अकेले नहीं हैं जिन्हे कोर्स-निकाला दिया गया है। ज्यादातर भाजपा शासित राज्यों में से प्रेमचंद हटाए जा चुके हैं। मुक्तिबोध निकाले जा चुके हैं।  यहां तक कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कविता कहानियों को भी नहीं बख्शा गया। मध्यप्रदेश में तो प्रेमचंद दो बार हटाए गए। पहले दो दोस्तों अलगू चौधरी और जुम्मन शेख की उनकी कहानी “पंच परमेश्वर” में से एक संवाद “क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे” को सम्पादित करके हटा दिया गया। जब इस पर बावेला मचा तो अगले साल पूरी कहानी ही हटा दी गयी। मध्यप्रदेश में ही जन्मे और रहे गजानन माधव मुक्तिबोध को भी विलोपित कर दिया गया। बाद में एनसीईआरटी की किताबों में से भी वे गायब कर दिए गए। हटाए गए कवि, साहित्यकारों की सूची काफी लम्बी हो जाएगी इसलिए नामों के विस्तार में जाने की बजाय उनकी रचनाओं, कृतियों का प्रकार जानना पर्याप्त होगा। जिन्हें हटाया गया है वे साहित्यिक रचनाएं पढ़ने वालों को स्वतन्त्रता आंदोलन, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समावेशी मानव मूल्यों तथा वैज्ञानिक चेतना की भावनाओं से ओतप्रोत करती हैं और इस तरह भी विश्व साहित्य में भारतीय प्रायद्वीप की सर्वोत्कृष्ट कृतियाँ हैं। ठीक यही बात है जिससे इन दिनों सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे विचार गिरोह को सबसे ज्यादा डर लगता है।  

हटाए जाने वाले विषयों, अध्यायों को देखकर पता चल जाता है कि हुकूमत क्या नहीं जानने देना चाहती। जैसे कोर्स में से लोकतंत्र और विविधता वाले अध्याय को भी हटाया गया है। इस अध्याय में ऐसी सामग्री थी जिसमें छात्रों को भारत सहित दुनिया भर में जाति की तर्ज पर अलग अलग तरह के सामाजिक विभाजन और असमानताओं की अवधारणाओं से वाकिफ कराया जाता था। सामाजिक शोषण के बारे में जानकारी देते हुए उसे अमानुषिक बताते हुए उससे मुक्ति पाने की बात सिखाई जाती थी। खाद्य सुरक्षा पर केंद्रित एक अध्याय से भारत की खेती किसानी पर कृषि के क्षेत्र में हुए वैश्वीकरण के प्रभाव को हटाया गया है। इसी के साथ ही नेपाल और बोलीविया पर केंद्रित प्रसिद्ध संघर्ष और आंदोलन और लोकतांत्रिक राजनीति में सुधार को लेकर लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियों को भी हटाया गया है।

बदलाव सिर्फ 10वीं की किताब में ही नहीं हुए। ग्यारहवीं कक्षा की इतिहास की किताब से ‘सेंट्रल इस्लामिक लैंड्स’ पर केंद्रित एक अध्याय को हटाया गया है।  इस अध्याय में अफ्रीकी-एशियाई क्षेत्रों में इस्लामिक साम्राज्यों के उदय तथा अर्थव्यवस्था एवं समाज पर इसके प्रभावों का ब्योरा दिया गया था। बारहवीं कक्षा के राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से शीत युद्ध काल और गुटनिरपेक्ष आंदोलन से जुड़े अध्याय को हटा दिया गया है। इससे पहले पाठ्यक्रम को युक्तिसंगत बनाने के बहाने सीबीएसई ने घोषणा की थी कि ग्यारहवीं की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में संघवाद, नागरिकता, राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता पर अध्यायों की छात्रों को कोई जरूरत नहीं है, इसलिए इन्हे हटाया जाना चाहिए। यह चारों ही विषय ऐसे थे जो मौजूदा सरकार के कामों और इरादों के विरुद्ध जाते थे। तब इसके विरोध में काफी आवाजें उठीं थीं, जिसके चलते 2021-2022 शैक्षणिक सत्र में इन विषयों को पाठ्यक्रम में दोबारा शामिल किया गया था। हालांकि ये कब तक बचेंगे इसे देखना होगा।

पाठ्यक्रमों को अपनी सुविधा के अनुरूप काट-छाँट कर बदलने की यह प्रक्रिया न तो स्थानीय है न तात्कालिक। यह अब तक सीखे, पढ़े, समझे और जाने को भुला देने – अनलर्निंग – के मेगा प्रोजेक्ट का हिस्सा है। यह परियोजना एक तरफ पाठ्यक्रमों की कतरब्यौंत करके अंजाम दी जा रही है। दूसरी तरफ झूठ को सच बनाकर किताबों में शामिल करके की जा रही है। तीसरी तरफ आईटी सेल के जरिये योजनाबद्ध भूत, वर्तमान के ऐसे विखंडन की है जिसके आधार पर अपढ़ और उन्मादी समाज तैयार किया जा सके। मोदी सरकार ने आते ही साफ़ कर दिया था कि अब स्कूल कॉलेजों में इतिहास, साहित्य, समाज आदि से जुड़े ह्यूमैनिटीज – सामाजिक अध्ययन – के विषयों को पढ़ाये जाने की जरूरत नहीं है।  जिस विधा में विद्यार्थी को डिग्री लेनी है बस उसी विषय को पढ़ाया जाना चाहिए।  गरज यह कि शिक्षा के माध्यम से अपने समाज और साहित्य से कटे ऐसे असामाजिक रोबोट्स तैयार किये जाएँ जो सिर्फ जोड़ बाकी या बताये हुए कामों को करना जानते हों। वे समाज के भीतर चले सुधार आंदोलनों से अपरिचित रहें, त्याज्य को चन्दन मानकर माथे पर धारें ताकि जिस दिशा में धकेले जा रहे हों बिना किसी चूँ चपड़ के उधर की तरफ धकल जाएँ। पिछले पखवाड़े ही भोपाल में कुलपतियों, अर्थशास्त्रियों और इतिहासकारों सहित शिक्षाविदों के साथ हुयी “चिंतन बैठक” में आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि “इंडियन नॉलेज सिस्टम को स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिए।” भारतीय ज्ञान प्रणाली से उनकी मुराद क्या है यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है ; शास्त्रों के आधार पर समाज और मनुष्य को ढालने की बात कहकर, मनु से लेकर गौतम तक की स्मृतियों और संहिताओं का उल्लेख कर के वे और उनका संगठन इसे बार बार दोहराते रहते हैं । 

बात सिर्फ किताबों में क्या पढ़ाना क्या नहीं पढ़ाना की नहीं है। बात उससे कहीं ज्यादा आगे की है। बात उस एजेंडे की है जिसे धीरे-धीरे तेज से तेजतर होते हुए तीव्रतम किया जा रहा है। फिलहाल उनके सीधे निशाने पर आमतौर से अल्पसंख्यक हैं, उनमें भी खासतौर से मुसलमान हैं। उनके विरुद्ध उन्माद भड़काने के लिए तकरीबन हर रोज एक नया सुर्रा छोड़ा जाता है ; हुकूमत और उसे चलाने वाले संगठन कभी हिजाब पर बेहिजाब हुए दिखते हैं तो कभी हलाल के सवाल पर बेनकाब हुए पाए जाते हैं। दिखाऊ-छपाऊ मीडिया तो पहले से ही इस काम में लगे हुए थे अब यंत्रों और मशीनों तक को हिंसक माहौल बनाने और विभाजन की खाइयों को गहरा और चौड़ा करने के काम पर लगा दिया गया है। इन दिनों बुलडोजर साम्प्रदायिक हिंसा और नफरती उन्माद का ब्रांड एम्बेसडर बना हुआ है।  चारों तरफ इसकी धड़धड़ की गूँज है। 

वह जहां जहां चलता है उससे कहीं ज्यादा दूर तक अपनी नफरती धमक पहुंचाता है। दूसरी तरफ लाउडस्पीकर है, जिसे लेकर जितना शोर यह यंत्र नहीं मचाता उससे अधिक कानफाड़ू शोर उसे लेकर मचाया जा रहा है। यही है वह काम जिसे भोपाल की चिंतन बैठक में सरसंघचालक मोहन भागवत “हिन्दुओं का वैश्विक पुनरुत्थान” निरूपित कर रहे थे। बात तो वे अगले 15 वर्षों में अखंड भारत की भी कर रहे थे – लेकिन फिलहाल उनकी योजना जितना जल्द हो सके भारत को हिन्दुत्व – जिसका हिन्दू धर्म या उसकी परम्पराओं से कोई संबंध नहीं है – पर आधारित हिन्दू राष्ट्र बनाने की है। इस दिशा में एक बड़ी बाधा तो भारत का संविधान है। इसे बदलने की बात भी भागवत बोल ही गए जब उन्होंने कहा कि “संविधान को न तिरस्कृत करना है, न पुरस्कृत करना है, इसे परिष्कृत करना है। ” यह परिष्करण कैसे होगा यह आरएसएस की किताबों में विस्तार के साथ लिखा है। 

लगातार उन्माद भड़काने की नफरती मुहिम का अचानक तेज से तेजतर होते जाना अपशकुनी संकेत है। इसकी योजनाबद्ध निरंतरता है। “80 बनाम 20” के सूत्रीकरण से लेकर हर रोज एक से ज्यादा ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं जिनमें साधू, प्रवचनकर्ता और कथित धर्म संसदों, सम्मेलनों, समावेशों में “बुजदिलों, कायरों जाग जाओ, सरकार कहाँ कहाँ तक कितने बुलडोजर लेकर जाएगी। सब हिन्दुओं अपने हाथों में हथियार उठा लो” जैसे सीधे खुली हिंसा और मारकाट के आह्वान किये जा रहे हैं और भाजपा नियंत्रित प्रशासन या तो हाथ पर हाथ धरे बैठा है या खुद इन हिंसक बोलवचनों वाले आयोजनों का सहभागी बना हुआ है।  ईदुलफितर से ठीक पहले रमज़ान के पूरे महीने में पांचों वक़्त की नमाज़ के समय पाँचों वक़्त मस्जिदों के सामने जाकर हनुमान चालीसा पढ़ने का आह्वान इसी कड़ी में था। केंद्र राज्य के मंत्री तक इस तरह के आग लगाऊ बयान दे रहे हैं। खुद सरसंघचालक ने इसे आगे बढ़ाते हुए कहा है कि “जिस समाज को हिंसा पसंद है वो अपने अंतिम दिन गिन रहा है।” कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों से बने वातावरण को अपर्याप्त मानकर संघ गिरोह और उसके द्वारा नियंत्रित सरकार ज्यादा तीव्रता की कार्यवाहियां कर रही है ताकि उकसावे में आकर टकराव हों और उसे अपना एजेंडा आगे ले जाने में मदद मिले।

यह देश को नरसंहार की दिशा में धकेलने की खतरनाक साजिश है। देश के प्रधानमंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर बैठे मोदी ने इस सबके घटने, इनके अंतर्राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में आने के बाद भी मुंह तक नहीं खोला है।  अपनी इन कारगुजारियों पर विश्व समुदाय की चिंताओं से उनका डर इतना है कि भारत सरकार ने जर्मनी में दोनों राष्ट्रप्रमुखों की संयुक्त पत्रकारवार्ता में पत्रकारों के प्रश्न पूछने पर ही रोक लगवा दी। जर्मनी में तो मोदी ने हद ही कर दी जब सारी राजनीतिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर, भगवा ध्वज लहराती भीड़ के साथ उन्होंने भारत के राष्ट्रीय ध्वज को दोयम दर्जे पर समेट कर कूटनीतिक शिष्टाचारों की बैंड बजा दी। इतना शर्मनाक आचरण भारत तो छोड़िये, दुनिया के किसी भी राष्ट्रप्रमुख ने कभी नहीं किया। यह हरकत उन्होंने उन हजार डेढ़ हजार भा भा भाओं (भारत से भागे भारत वासियों) के लिए नहीं की है – यह सन्देश उन्होंने भारत की 135 करोड़ जनता को दिया है। कभी हिटलर के नाम से कुख्यात जर्मनी से भगवा को तिरंगे के ऊपर लहराने के इस सन्देश को पूरा पढ़े जाने और उसके निषेध के लिए जरूरी कदम उठाने की जरूरत है। 

और जैसा कि कहा जाता है कि चूहा जब मनुष्य को काटता है तो काटते हुए बीच बीच में फूंकता भी जाता है – ठीक यही काम सत्ता पर विराजमान कारपोरेट-हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता का गठजोड़ कर रहा है। इधर हिन्दू खतरे में हैं की चीखपुकार मचाकर उन्माद फूँका जा रहा है, उधर संसदीय लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संवैधानिक परम्पाराओं को कुतरने का काम जारी है। साथ साथ भारतीय अर्थव्यवस्था भी कुतरी जा रही है। गंभीरतम आर्थिक संकट, जिसे कई चिंतित अर्थशास्त्रियों द्वारा श्रीलंका के आर्थिक संकट जैसा बताया जा रहा है , के बीच भी  इतनी ही धुआंधार तेजी से, देश की जनता की जिंदगी को बेहाल बनाने और राष्ट्रीय संपदा की लूट कराने के काम किये जा रहे हैं।

मोदी के ख़ास गौतम अडानी की अमीरी दुनिया में पांचवें नंबर पहुँच गयी है। देश की 77 प्रतिशत दौलत मुट्ठी भर लोगों के पास जमा हो गयी। थाली छोटी हो गयी, रोजगार संभावनाएं विलुप्त हो गयी, वेतन और मजूरी सिकुड़ गयी। देश की वित्तीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाने वाली भारतीय जीवन बीमा निगम को माटी के मोल बेचने के लिए हाट में खड़ा कर दिया गया। उसे खरीदने को आतुर अम्बानी-अडानी बिरादरी की अंटी ज्यादा ढीली न हो इसके लिए उसके स्वत्वों को कम करके दिखाने की तिकड़म की जा रही है। आर्थिक आत्मनिर्भरता का संहार पहले ही किया जा चुका था अब नरसंहार की तैयारी है।

चुनौतियों के इस कालखंड में निदान और समाधान का एक ही जरिया है ; जन का जागना, अड़ना और इन दोनों तरह के हमलों को पीछे धकेलते हुए आगे बढ़ना। भारत के लोकतांत्रिक आंदोलनों के खाते में इस तरह के मुकाबलों के कई सुनहरे अध्याय दर्ज हैं। इस बार यदि हमला कुछ ज्यादा ही सर्वव्यापी है तो उसकी मुखालफत की भी उसी के मुताबिक़ तैयारी करनी होगी।  कन्नूर में हुयी अपनी पार्टी कांग्रेस में सीपीएम ने बहुआयामी प्रतिरोधो, उनके लिए बहुमुखी समन्वयों की तजवीज़ें तय करके देश की जनवादी और धर्मनिरपेक्ष जनता में उम्मीद और विश्वास पैदा किया है।  आने वाले दिनों में नए मोर्चों के खुलने और उनमे बढ़चढ़ कर भागीदारी के रूप में यह नजर आएगा।

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के सुंयक्त सचिव हैं।)

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