देश के किसी भी फिल्म उद्योग को ले लें- कास्टिंग काउच परिघटना से मुक्त नहीं मिलेगा। हाल में जारी जस्टिस हेमा कमिटी की रिपोर्ट ने मलयालम फिल्म उद्योग की इज़्ज़त को तार-तार कर दिया है। क्या कुछ झेलना पड़ा महिलाओं को, रिपोर्ट के आने से पहले और बाद, इसको आगे देखें-
केरल के विमेन इन सिनेमा कलेक्टिव (WCC) ने एक बयान जारी किया है, जिसमें एक ‘सिनेमा कोड आफ कन्डक्ट’ बनाने की बात की गयी है, जिससे कि फिल्म उद्योग को एक सुरक्षित कार्यक्षेत्र बनाया जा सके। उन्होंने आशा व्यक्त की है कि सिनेमा जगत से जुड़े सभी सदस्य खुली एकजुटता और सहयोग की भावना के साथ ‘सिनेमा आचार संहिता’ को अपनाने के लिए आगे आएंगे। फेसबुक पर साझा किया गया उनका बयान कहता है, “मलयालम फिल्म उद्योग को सभी के लिए एक सुरक्षित व बराबरी के कार्यस्थल के रूप में पुनर्निर्मित करने के लिए, हम आज अपनी प्रस्तावित सिफारिशों के साथ एक श्रृंखला शुरू कर रहे हैं।”
डब्लूसीसी क्यों बना?
WCC का निर्माण तब हुआ था जब एक अदाकारा, जो मलयालम, तमिल और कन्नड़ फिल्म उद्योगों में काम करती हैं, को कुछ लोगों ने कोच्चि के पास अगवा कर लिया और चलती गाड़ी में यौन उत्पीड़न करते रहे। उन्होंने इसका वीडियो भी बनाया। केस दर्ज़ हुआ और 10 में से 3 की गिरफ्तारी हुई। केस आज भी चल रहा है। अदाकारा ने पल्सर सुनी, जो कई सिलिब्रिटीज़ का ड्राइवर है, की पहचान की। ऐक्टर दिलीप का नाम षडयंत्रकारी के रूप में सामने आया था, जब दिलीप के नाम सुनी का पत्र बरामद हुआ। चार्जशीट में सुनी और 6 अन्य का नाम आया। जुलाई 2017 में दिलीप को जमानत मिल गयी। मुख्यमंत्री पिनरयी विजयन का कहना था कि इस मामले में कोई षडयंत्र नहीं था।
क्यों बनी थी हेमा कमिटी?
ज्ञात हो कि नवम्बर 2017 में डब्लूसीसी ने ही राज्य के मुख्यमंत्री से मांग की थी कि मलयालम फिल्म उद्योग में महिलाओं के साथ जो भेदभाव और यौन उत्पीड़न चल रहा था, उसकी जांच करने और उसपर रोक लगाने के लिये कुछ प्रस्ताव लाने हेतु एक कमिटी का निर्माण होना आवश्यक है। यह याचिका एक मलयालम अभिनेत्री द्वारा शिकायत करने के बाद सरकार को दी गयी। उसी वर्ष 14 जुलाई को जस्टिस के। हेमा की अध्यक्षता में हेमा कमिटी का निर्माण हुआ और उसमें वरिष्ठ अभिनेत्री सरस्वती देवी उर्फ सारदा तथा आईईस अधिकारी के बी वलसला कुमारी भी सदस्य थीं।
2 वर्ष के समय में समिति ने फिल्म जगत से जुड़ी कई अभिनेत्रियों, निर्माताओं, निर्देशकों, स्क्रिप्ट लिखने वाली महिलाओं, जूनियर आर्टिस्टों, मेकअप आर्टिस्टों, कास्ट्यूम डिज़ाइनरों, छायाकारों, आदि से उनकी शिकायतें और सुझाव मांगे। इस प्रकार की करीब 30 कैटेगरीज़ हैं, जिनसे प्रतिक्रिया ली गयी। WCC के 40 सदस्यों को प्रश्नावली दी गयी और उत्तर जुटाए गये। प्रत्यक्ष और दस्तावेजी साक्ष्य एकत्र किये गये। 80 लोगों ने अपने दर्दनाक अनुभव कमिटी के साथ साझा किये।
सबसे बड़ा सवाल-अब तक क्यों चुप रही सरकार?
हेमा कमिटी की 296 पेज की रिपोर्ट तो 31 दिसम्बर 2019 में सरकार को सौंप दी गयी थी। 2024 अगस्त तक लगभग 5 वर्ष हो गये, पर सरकार ने रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया। नतीजा था कि महिलायें पूरे पांच साल इंतेज़ार करती रही कि बात शुरू हो कि मलयालम फिल्म उद्योग में महिलाएं क्या कुछ झेलती हैं और उनका दर्ज़ा क्या है; और इन समस्याओं से निजात दिलाने के लिये सरकार कुछ कड़े कदम भी उठाए। पर, रिपोर्ट किस तहखाने में दबी रही और क्यों सार्वजनिक नहीं गयी, ये तो सरकार चलाने वाले बेहतर जानते होंगे, पर इन महिला कलाकारों और कर्मियों का शोषण खत्म नहीं हुआ।
आज ऐसे किस्से सामने आ रहे हैं, जिनके बारे में सुनकर दिल दहल जायेगा। तो हम बालीवुड में जिस ‘कास्टिंग काउच’ की बात करते हैं वह सबसे अधिक साक्षरता वाले राज्य केरल में भी बदस्तूर जारी है। केरल उच्च न्यायालय को सरकार को जमकर फटकार लगानी पड़ी, “आपने चार सालों में रिपोर्ट पर बैठे रहने के अलावा कुछ नहीं किया है।” आखिर, अगर वामपंथी सरकार भी महिलाओं को न्याय न दिला सके, तो भला किससे न्याय की अपेक्षा की जायेगी?
जांच प्रक्रिया
कमिटी ने इस बात को खुले तौर पर स्वीकार किया कि साक्ष्य जुटाना सबसे टेढ़ी खीर थी। एक तो सभी लोग एक ही शहर में नहीं रहते। अलग-अलग समय उनकी दूसरे जगहों पर शूटिंग चलती रहती; फिर वे एक ही बार में पूरी बातचीत खत्म नहीं कर पाते, क्योंकि बीच में उनके अत्यंत व्यस्त कार्यक्रम रहते, और उन्हें थोड़ी सी भी फुर्सत नहीं मिलती। यह बात भी उजागर हुई कि उद्योग में ऐसा भयंकर डर का माहौल बना कर रखा जाता है कि जूनियर अर्टिस्ट कुछ बोलने को तैयार ही नहीं हुए। उनके को-आर्डिनटर ने स्वयं काफी कुछ बताया और दस्तावेज़ भी मुहैया कराए।
नृत्यांगनाओं ने तो सीधे कह दिया कि उन्हें किसी प्रकार की समस्या नहीं थी। दूसरी ओर कई पुरुषों ने कहा कि यदि वे किसी लॉबी (फिल्म माफिया) को नाराज़ कर दें, तो उन्हें उद्योग से बैन करने की धमकी मिलती है। अदाकाराओं ने कहा कि काम देने के बदले में उनसे “सेक्सुअल फेवर” मांगे जाते हैं। उन्हें डराया-धमकाया भी जाता है कि “ज़िंदगी बर्बाद कर दी जायेगी”।
हेमा कमिटी के निष्कर्ष वूमेन इन सिनेमा कलेक्टिव (डब्ल्यूसीसी) द्वारा उठाई गई शिकायतों को मान्यता देते हैं-यह कि यौन उत्पीड़न के मामले, गाली-गलौज, शारीरिक हमले, विरोध करने पर अनौपचारिक बैन से लेकर यातना देना और मारपीट करना आम बात थी; शराब और ड्रग्स की बातें भी समने आयीं; साथ ही सेट पर शौचालय सुविधाओं और चेंजिंग रूम का अभाव, वेतन असमानताएं, करार के बिना काम कराना, स्वीकृत वेतन से कम देना और सुरक्षा संबंधी मुद्दे लम्बित रहे हैं। यदि महिलाओं को समान हितधारकों के रूप में उद्योग में भाग लेना है तो निश्चित ही इन सवालों को हल किया जाना चाहिए। पर सरकार ने तो सच्चाई को तक सामने नहीं आने दिया।
कमिटी ने रिपोर्ट के साथ स्क्रीनशाट, पेन ड्राइव, वायस क्लिप्स, और अन्य दस्तावेज़ों के रूप में 1,500 पृष्ठ की सामग्री सरकार को सौंपा था। 2020 में सूचना के अधिकार के तहत रिपोर्ट की प्रति मांगी गयी, पर स्टेट पब्लिक इंफार्मेशन अफसर ने मांग को खारिज कर दिया। आखिर, किस बात का डर था? क्या कुछ पहुंचे हुए लोगों के नाम उजागर होने का खतरा था? या फिल्म उद्योग से आ रहा राजस्व कम हो जायेगा, इसका डर?
रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के लिये जद्दोजहद
12 जनवरी 2022 में एक तीन-सदस्यीय पैनेल का निर्माण हुआ, जिसका काम था हेमा कमिटी रिपोर्ट का अध्ययन करके एक योजना तैयार करे, जिसे लागू किया जा सके। 16 जनवरी को WCC के सदस्य राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष से मिलकर रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग करते हैं। पर उन्हें टका सा जवाब मिल जाता है कि कमिशन आफ इंक्वायरीज़ कानून के तहत सरकार के ऊपर कोई बाध्यता नहीं है कि रिपोर्ट को विधान सभा में पेश करे। फिर राज्य सूचना आयोग केरल के लोक सूचना अधिकारी को कहा कि वह वाजिब तरीके से रिपोर्ट के निष्कर्षों को सार्वजनिक करे, पर इस बात का ध्यान रखे कि लोगों की निजता पर आंच न आये।
सरकार की मंशा तो साफ हो चुकी थी कि वह किसी भी हालत में रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के पक्ष में नहीं थी। तब सवाल उठता है- यदि उत्पीड़कों के नाम उजागर न हों तो उनके काले कर्तूतों पर पर्दा पड़ा रहेगा और उनकी हर्कतों पर रोक लगाना कैसे सम्भव होगा? तब करेले पे नीम चढ़ी, जब एक मलयालम फिल्म निर्माता ने जुलाई 24, 2024 को केरल उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी, जिससे रिपोर्ट सार्वजनिक न हो सकी। 13 अगस्त को याचिका खारिज करते हुए कोर्ट ने रिपोर्ट को एक सप्ताह के अंदर सार्वजनिक करने के आदेश दिये।
इस बीच एक अदाकारा अदालत का दरवाज़ा खटखटाती है और मांग करती है कि रिपोर्ट को जारी न किया जाय क्योंकि उससे लोगों के सम्मान और निजता पर आंच आ सकती है; उनका कहना था कि रिपोर्ट में कई संवेदनशील तथ्य हो सकते हैं। इस बहाने सरकार पुन: रिपोर्ट को रोक देती है। अंत में अगस्त 19 को सरकार ने तय किया कि रिपोर्ट को जारी किया जाये।
कमिटी की सिफारिशें, और आगे
कमिटी ने अपनी रिपोर्ट के माध्यम से कई प्रस्ताव रखे हैं। सबसे महत्वपुर्ण तो यह है कि सरकार मलयाली फिल्म उध्योग में काम करने वाली महिलाओं की तमाम समस्याओं के मद्देनज़र एक कानून बनाये; दूसरे, वह एक ट्राईब्युनल का गठन भी करे जहां इन मामलों को सुना जा सके। केरल उच्च न्यायालय ने 22 अगस्त को सरकार से पूरी रिपोर्ट की प्रति बंद लिफाफे में सौंपने को कहा।
अगले दिन प्रसिद्ध फिल्म निर्माता-ऐक्टर सिद्दीकी ने एसोसिएशन ऑफ मलयालम मूवी आर्टिस्ट्स (AMMA) के महासचिव पद की हैसियत से संवाददाता सम्मेलन बुलाकर इनकार करते हैं कि एएमएमए ने रिपोर्ट को रोकने के भरसक प्रयास किये थे। 25 अगस्त को दो हस्तियां -सिद्दीकी और रंजीत को क्रमश: एएमएमए और केरल राज्य चलचित्र अकादमी के सर्वोच्च पदों से इस्तीफा देना पड़ा जब दो अदाकाराओं ने उनपर यौन उत्पीड़न का आरोप लगया। यह केरल का ‘मी टू’ मोमेंट था।
जाने-मानी हस्थियों के नाम सामने आये
रिपोर्ट जैसे ही समने आयी, राज्य में राजनीतिक हड़कम्प मच गया। नतीजन सरकार को एसआईटी का गठन कर प्राथमिक जांच का आदेश देना पड़ा। यह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 173(1) के तहत होना था। सिद्दीकी और रंजीत के खिलाफ प्राथमिकियां दर्ज़ हुईं। एएमएमए अध्यक्ष मोहनलाल सहित उसके सभी कार्यकारिणी सदस्यों ने भी इस्तीफा दिया। इसके बाद तो आरोपों की झड़ी लग गयी- जैसे कोई भी बचने से रहा।
ऐक्टर जयसूर्या पर दो महिलाओं ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया, अदाकारा मीनू मुनीर ने भी कई ऐक्टरों पर ऐसे ही आरोप लगाये। इनमें शामिल थे-एम मुकेश (कोलम के सीपीएम विधायक), मनियनपिल्ला राजू, एडावेला बाबू, वीएस चंद्राशेखरन, और निर्माण नियंत्रक नोबल और विचू। निविन पौली पर सामूहिक बलात्कार का आरोप लगा। निर्देशक एके सुनील, ऐक्टर सुधीश, ऐक्टर ए एल लोपेज़, निर्देशक श्रीकुमार मेनन और वी के प्रकाश, ऐक्टर बाबूराज सभी पर यौन उत्पीड़न और बद्तमीज़ी के आरोप लगे। फिल्म उद्योग में सिल्क स्मिथा एक नहीं है।
बहाने क्यों किये जा रहे थे
विजयन सरकार के पूर्व संस्कृति मंत्री ए के बालन और वर्तमान मंत्री साजी चेरियन ने तर्क दिये कि हेमा कमिटी ने काफी आम किस्म की समस्याओं का ज़िक्र किया था, पर सरकार को 400 पन्नों का वह दस्तावेज़ नहीं दिया था, जिसमें सभी पीड़ितों के बयान दर्ज़ किये गये थे। इसलिये नामित व्यक्तियों पर किसी किस्म की कार्यवाही नहीं की जा सकती थी। एक अदाकारा ने तो बताया था कि एक निर्देशक और उसकी पत्नी ने उन्हें कैद कर रखा था, और यहां तक कि गुप्तांग में लोहे की छड़ घुसाते थे।
एक और अदाकारा ने बताया था कि वैनिटी वैन में कैमेरा फिट किया गया था और इस तरह महिलाओं की कई नग्न तस्वीरें जुटा ली गयी थीं, जिन्हें फिल्म सेट पर बैठकर देखा जा रहा था। मानसिक प्रताड़ना भी की जाती थी कि कुछ भी कहने पर ज़िंदगी बर्बाद कर दी जायेगी। पर चेरियन का कहना था कि उत्पीड़त लोगों ने पुलिस में शिकायत नहीं की थी। सरकार ने 5 सितम्बर को दो महिला जज जस्टिस ए के जयसंकरन नाम्बियार और जस्टिस सी एस सुधा की एक पीठ का गठन किया है और सभी पीआईएल इनके यहां ही दर्ज़ होंगे। सीबीआई जांच की मांग को लेकर भी एक यचिका दायर की गयी है।
केरल में मल्यालम फिल्म उद्योग में काम कर रहे 21 ट्रेड यूनियनों की सर्वोच्च संस्था, फेफका ने शिकायतकर्ताओं के साथ एका ज़ाहिर की है और जांच में मदद करने की बात भी कही है। पर सवाल तो यह उठता है कि किसी भी निर्माता, निर्देशक या ऐक्टर ने उत्पीड़ित महिलाओं का पक्ष क्यों नहीं लिया? क्या जिन सारे लोगों ने इस्तीफा दिया है, उन्होंने अपने कार्यकाल में कुछ भी गलत होता नहीं देखा था? जैसे ही हेमा कमिटी की रिपोर्ट आती है, वे क्यों अपनी लंगोट सम्हालते हुए एक साथ इस्तीफे की झड़ी लगा देते हैं? इसे ईमानदारी का लक्षण माना जाये, या फिर पद छोड़कर कार्यवाही से बचने का तरीका?
अब अन्य राज्यों में भी शुरू हुआ ‘मी टू’
फिल्म इंडस्ट्री फार राइट्स ऐंड ईक्वालिटी (FIRE) ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया से मांग की है कि हेमा कमिटी की तर्ज़ पर एक जांच कमिटी का गठन कर्नाटक फिल्म उद्योग में भी हो। यह मांग ऐसे ही नहीं उठी है। मल्यालम फिल्म जगत में व्याप्त यौन उत्पीड़न और भेदभाव को देखते हुए इस उद्योग के भीतर जो भय और चुप्पी का माहौल बना हुआ था, वह हेमा रिपोर्ट के आने से टूट रहा है, उसमें कुछ दरारें पड़ रही हैं। इसलिये 153 लोगों ने हस्ताक्षर के साथ मुख्यमंत्री को ज्ञापन दिया और सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, जिनकी जेंडर जस्टिस के प्रति खास प्रतिबद्धता है, को लेकर कमिटी बनाने की मांग की।
पर अफसोस की बात है कि सिद्धारमैया ने पूरे मामले को यह कहकर हल्के में उड़ा दिया कि केरल में तो एक घटना हुई थी। पर कर्नाटक में क्या ऐसा है? ऐक्टर चेतन कुमार अहिंसा ने एक कार्यक्रम में बोलते हुए सवाल उठाया कि यदि “इस मामले को ही हवा में उड़ा दिया जायेगा, जैसा कि हमारी मांग को लेकर किया गया, तो आगे बढ़ने का रास्ता ही बंद हो जायेगा।” उनका कहना था कि उनकी भी शिकायतें हैं, जिन्हें वह साझा करना चाहते हैं, पर उन्हें मुख्यमंत्री के रुख से भारी निराशा हुई। जबकि कर्नाटक में ‘मी टू’ आंदोलन 2018 में शुरू हो चुका था, जब ऐक्टर अर्जुन सर्जा और निर्देशक रवि स्रिवत्स पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगे थे।
तमिल नाडु सहित अन्य राज्यों में भी मांग
तमिल नाडू में नडियार संघम, जो फिल्म और टीवी से जुड़े लोगों की यूनियन है, की ओर से मांग उठी कि ऐसा ही कदम राज्य में उठाया जाये और उत्पीड़कों को सख्त सज़ा दी जाये। जेंडर सेंसिटाइज़ेशन इंटर्नल कम्प्लेंट कमिटी ने प्रस्ताव रखा कि आरोप साबित होने पर 5 साल के लिये बैन लगेगा। शिकायतकर्ता को लीगल एड देने की बात भी हुई है। साथ ही एक नम्बर और ईमेल भी मुहय्या कराया जा रहा है, जिनके ज़रिये शिक्यत दर्ज़ किया जा सकता है। तेलंगाना में भी फिल्म उद्योग के भीतर चल रहे उत्पीड़न पर एक रिपोर्ट 2022 में आयी है, पर आज तक उसे सार्वजनिक नहीं किया गया है।
समंथा रूथ प्रभु, जो वायस आफ विमेन से तालुक्क रखती हैं, और लक्ष्मी मंचू ने इसपर आवाज़ उठाई है। श्री रेड्डी ने तेलगू फिल्म चम्बेर आफ कामर्स के समक्ष अर्ध नग्न प्रदर्शन किया था, ताकि सरकार का ध्यान अकृष्ट हो। उन्होंने पहले एक साक्षात्कार में बताया था कि इसके बावजूद कि उन्होंने ‘कमिटमेंट’ किया, उन्हें एमएए (मूवी आर्टिस्ट्स ऐसोसिएशन) में सदस्यता नहीं दी गयी थी। क्या है यह कमिट्मेंट? ये काम के बदले सेक्सुअल फेवर के लिये इस्तेमाल की जाने वाली शब्दवली है। रेड्डी को सहनुभूती कम मिली क्योंकि उनके सवाल उठाने के तरीके गलत लग रहे थे। पर उनका उठाया हुआ मुद्दा 100% सही था और उनके आवाज़ उठाने से हाई लेवल कमिटी का गठन भी हुआ।
दल से परे पितृसत्ता से लड़ना होगा
भारत में पितृसत्ता की जड़ें काफी गहरी हैं। इसलिये यौन उत्पीड़न के मामलों को आम घटनाएं मानकर उनपर तबतक नज़र नहीं डाली जाती, जबतक मामला काफी प्रचारित नहीं हो जाता। यह भी देखा जाता है कि कोई भी राजनीतिक दल इन मामलों पर ज़ीरो टालरेंस की नीति नहीं अपनाता। इसके पीछे प्रमुख कारण है कि उच्च पदों पर आसीन लोग और प्रमुख राजनेता भी ऐसे आरोपों से मुक्त नहीं हैं। महिला आंदोलन को यौन उत्पीड़न के प्रश्न को पार्टी के दायरे से बाहर देखना और उठाना होगा। इसके लिये उन्हें वह हिम्मत चहिये जिसका परिचय डब्लूसीसी की महिलाओं ने दिया है। अब सरकारों को भी सोचना होगा कि वे कितनी आलोचना झेलने को तैयार हैं। अब बात निकली है तो बहुत दूर तलक जायेगी।
(कुमुदिनी पति महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं)