हिंदी रंगकर्म एक ‘दृष्टिहीन’ क्रियाकलाप है!

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रंगकर्म विद्रोह का सामूहिक कलाकर्म है। दुनिया में विविध रंग हैं लाल, पीला, नीला आदि। यह रंग विचार को सम्प्रेषित करते हैं। रंग यानी विचार, दरअसल रंगकर्म विचारों का कर्म है। विचार राजनैतिक प्रकिया है जो व्यवस्था का प्रशासनिक सूत्र है और कला उसका सृजनकर्म है जो मनुष्य को मनुष्य बनाने की प्रकिया है।

मनुष्य अलग-अलग समय पर राजनैतिक सत्ता, सामाजिक सत्ता, आर्थिक सत्ता और सांस्कृतिक सत्ता के आत्म संघर्ष से जूझता रहता है और यह आदि से अनंतकाल तक की प्रकिया है। संस्कृति मनुष्य को सभ्य बनाने की प्रकिया है। संस्कृति, संसार की कलात्मक कृति। कला का उद्गम विद्रोह है। जब मनुष्य के अंदर व्यक्तिगत रूप से कोई विकार उत्पन्न होता है….व्यक्ति के अंदर एक सृजन प्रक्रिया का आगाज़ होता है। यह विकार से विद्रोह की प्रक्रिया ही कला है। मनुष्य का मनुष्य बने रहने का सृजन संघर्ष है कला और उसका सामूहिक स्वरूप है रंगकर्म!

रंगकर्म की कोई भाषा नहीं होती क्योंकि मनुष्य के भावों की कोई भाषा नहीं होती। उसका हंसना, रोना, मुस्कुराना, प्रेम करना सार्वभौमिक है, वैश्विक है। विचार के प्रकटीकरण के लिए मनुष्य ने भाषा की खोज की है पर कला की अपनी विशेष भाषा है जो हिंदी, मराठी, बंगला, पंजाबी या अन्य किसी भी भारतीय भाषा के माध्यम से सम्प्रेषित हो सकती है या विश्व की कोई भी भाषा हो सकती है।यह भी सत्य है की कला के लिए भाषा अनिवार्य नहीं होती।

हर मनुष्य के अंदर दो बिंदु होते हैं एक आत्महीनता का और दूसरा आत्मबल का।आत्महीनता से मनुष्य के अंदर विकार पैदा होते हैं। विकार हमेशा मनुष्यता और मनुष्य का विध्वंस करते हैं। विकार से पैदा होती है हिंसा। हिंसा, द्वेष, नफ़रत। इन भावों को कोई सत्ता या व्यवस्था नहीं बदल सकती इनको बदलने की ताकत केवल कला में है। और विकार को खत्म कर मनुष्य में आत्मबल को मजबूत करना ही कला का उद्देश्य है।आत्मबल से विचार पैदा होते हैं विचार निर्माण की प्रक्रिया है। आत्मबल से स्नेह और सौहार्द पनपता है। मनुष्य की प्रकृति में विकृति को दूर करता है रंगकर्म!

पर आज भारत में मनुष्य की प्रकृति में विकृति को दूर करने वाला रंगकर्म किसी भी भाषा में हो रहा है क्या? हिंदी में जहां रंगकर्म है या नहीं यह दूर की बात है। दिल्ली देश की राजधानी और आज विकारी लोग लोकतंत्र की कमजोर कड़ी संख्या बल का फायदा लेकर सत्ता पर काबिज़ हैं तो क्या एक भी स्वर उसके ख़िलाफ़ ‘दिल्ली’ से उभरा? दरबारी पत्र-पत्रिकाओं में दिल्ली को हिंदी रंगकर्म का पर्याय मान लिया जाता है। 

यह बात और है कि दिल्ली के एक सरकारी ड्रामा संस्थान ने हिंदी ही नहीं भारत के रंग कर्म को फलने-फूलने के पहले ही बर्बाद कर दिया है। यह संस्थान नाचने गाने वाले जिस्मों को नुमाइशी करतब सिखाकर बाहर भेजता है। आत्महीनता के शिकार ये नाचने गाने वाले जिस्म सरकारी टुकड़ों, कॉर्पोरेट अनुदान या धन पशु की फिल्मों से अपना पेट पालते हैं, मुनाफाखोर मीडिया इनका ‘वस्तु’ की तरह उपयोग करता है। यह भेड़ बनाने का प्रशिक्षण लगातार चल रहा है। 

हर साल सरकारी खर्चे पर दरबारी जयकारा लगाया जाता है। जिसे भारत रंग महोत्सव या इसी तरह के नाम दिए जाते हैं जो शुद्ध छलावा है। जिसका न भारत से कोई सरोकार है ना रंगकर्म से! यह ‘दृष्टि विहीन’ क्रियाकलाप हर वर्ष धूमधाम से मनाया जाता है। इसके लिए दरबारी समीक्षक खूब फलते फूलते हैं और बाज़ारू मीडिया में यह खूब छपते हैं। दरबारी तमगे भी मिलते हैं पद्मश्री, अकादमी पुरस्कार आदि-आदि। क्या यही हिंदी रंगकर्म है?

दरअसल रंगकर्म प्रतिरोध है। भारत में प्रतिरोध का रंग कर्म नहीं है।1990 के बाद भूमंडलीकरण के दौर ने पूरी दुनिया को खरीदने और बेचने तक सीमित कर दिया। तकनीकी विकास ने मनुष्यता का पतन इस हद तक कर दिया है कि मनुष्य को  ‘वस्तु’ बनना और बनाना श्रेष्ठ लगता है। शिकार और शिकारी के पाषण युग में पहुंच चुका मनुष्य आज तकनीक की चकाचौंध में ‘दृष्टि’ शून्य हो गया है। ऐसे ही विनाशकारी काल में जहां व्यवस्थाएं विकारी सत्ताधीशों से भरी हों, समाज पेट के बल रेंगने को विवश हो कला ‘वस्तु’ को मनुष्य बनने के लिए प्रेरित करती है।

पर विकारी और बाजारू सत्ता ने कलाकारों को अपने दरबार में जयकारा लगाने के लिए बंधक बनाया हुआ है। जो भोग विलास में चूर होने के बावजूद पेट-पेट चिल्ला रहे हैं। सत्ता के विकारों से लड़ने के बजाए इन्होंने कलाकार को केवल पेट की लड़ाई तक सीमित करने के सत्ता के षड्यंत्र को सफल बनाया है। कला के नाम पर यह कुकर्म दिल्ली से होता है। दिल्ली की मंडी से होता है। क्या यह हिंदी रंगकर्म है?

रंगकर्म या कला शुद्ध राजनैतिक कर्म है। कोई रंगकर्मी यह कहे की मेरा राजनीति से कोई लेना देना नहीं है वो दृष्टि विहीन नाचने गाने वाले पेट भरू जिस्म भर है।

कला दृष्टिगत सृजन

राजनीति सत का कर्म!

 कला आत्म उन्मुक्तता की सृजन यात्रा

राजनीति सत्ता, व्यवस्था की जड़ता को

तोड़ने का नीतिगत मार्ग

कला मनुष्य को मनुष्य बनाने की प्रक्रिया

राजनीति मनुष्य के शोषण का मुक्ति मार्ग

कला अमूर्त का मूर्त रूप

राजनीति सत्ता का स्वरूप

कला सत्ता के ख़िलाफ़ विद्रोह

राजनीति विद्रोह का रचनात्मक संवाद

कला संवाद का सौन्दर्यशास्त्र

राजनीति व्यवस्था परिवर्तन का अस्त्र

कला और राजनीति एक दूसरे के पूरक

बाज़ार कला के सृजन को खरीदता है

सत्ता राजनीति के सत को दबाता है

जिसकी चेतना राजनीति से अनभिज्ञ हो

वो कलाकार नहीं

चाहे बाज़ार उसे सदी का महानायक बना दे

झूठा और प्रपंची सत्ताधीश चाहे

लोकतंत्र की कमजोरी, संख्याबल का फायदा उठाकर 

देश का प्रधानमन्त्री बन जाए

पर वो राजनीतिज्ञ नहीं बनता

राजनीतिज्ञ सर्वसमावेशी होता है

सत उसका मर्म एवं संबल होता है

कलाकार पात्र के दर्द को जीता है

राजनीतिज्ञ जनता के दुःख दर्द को मिटाता है

कलाकार और राजनीतिज्ञ जनता की

संवेदनाओं से खेलते नहीं हैं

उसका समाधान करते हैं

कलाकार व्यक्ति के माध्यम से

समाज की चेतना जगाता है

राजनीति व्यवस्था का मंथन करती है

कला मंथन के विष को पीती है

राजनीति अमृत से व्यवस्था को

मानवीय बनाती है

कला एक मर्म

राजनीति एक नीतिगत चैतन्य

दोनों एक दूसरे के पूरक

जहाँ कला सिर्फ़ नाचने गाने तक सीमित हो

वहां नाचने गाने वाले जिस्मों को सत्ता

अपने दरबार में जयकारा लगाने के लिए पालती है

जहां राजनीति का सत विलुप्त हो

वहां झूठा, अहमक और अहंकारी सत्ताधीश होता हो

जनता त्राहिमाम करती है

समाज में भय और देश में युद्धोउन्माद होता है

हर नीतिगत या संवैधानिक संस्था को ढहा दिया जाता है

इसलिए

कला दृष्टि सम्पन्न सृजन साधना है

और

राजनीति सत्ता का सत है

दृष्टि का सृष्टिगत स्वरूप है

दोनों काल को गढ़ने की प्रकिया

दोनों मनुष्य की ‘इंसानी’ प्रक्रिया!

।।।

मूल मुद्दा ‘दृष्टि’ का है क्रियाकलाप का नहीं। कला संसाधन सम्पन्न होती है। रंगकर्म संसाधन सम्पन्न होता है। पर आज कलाकार की आंख पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि वो अपने आप को सबसे हाशिये का आधार विहीन प्राणी मानता है।

ऐसी बीहड़ विकराल चुनौतियों में मुझे बुद्ध, नानक, गांधी, भगत सिंह और अम्बेडकर सच्चे ‘कलाकर्मी’ प्रतीत होते हैं जिन्होंने मनुष्यता के लिए, न्याय के लिए, इंसानियत के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और आज भी दुनिया के पथ प्रदर्शक हैं। मुझे अपेक्षा है ऐसे रंग कर्म की जिसे देखकर कोई मोहनदास ‘सत्य’ की डगर पर चलना सीख ले और सदियों से गुलामी में जकड़ी भारत की राजनैतिक चेतना को जगा दे! 

(मंजुल भारद्वाज नाट्यकर्मी, संस्कृतिकर्मी और निर्देशक हैं।)

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