हिन्दी दिवस विशेष: भारत एक राष्ट्र है पर उसकी राष्ट्रभाषा नहीं

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यह दुर्भाग्य की बात है कि हमारे देश में आजादी के इतने वर्षों बाद ऐसी भाषा नहीं है जो देश के सभी निवासियों द्वारा देश के हर कोने में बोली और लिखी जा सके। जब देश आज़ाद हुआ था तो इस बात की आशा थी कि हिन्दुस्तानी देश को जोड़ने वाली भाषा बन सकेगी। हिन्दुस्तानी का अर्थ हिन्दी और उर्दू का मिश्रण होता था। सारी आज़ादी की लड़ाई इसी उर्दू-हिन्दी मिश्रित भाषा में लड़ी गई थी। हिन्दुस्तानी में ज्यादा शब्द उर्दू के हुआ करते थे।

उर्दू में ही बहुसंख्यक आज़ादी के तराने गाये जाते थे। क्रांति से ज्यादा लोकप्रिय शब्द इंकलाब था। सबसे लोकप्रिय नारा इंकलाब जिन्दाबाद था। इंकलाब की लड़ाई के बीच सबसे लोकप्रिय तराना सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा था। जब हमारा पहला व्यक्ति राकेश शर्मा अंतरिक्ष में गया और जब उससे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूछा कि वहां से अपनी मातृभूमि कैसी लग रही है? तो उन्होंने जवाब इकबाल के इसी तराने में दिया था कि सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा।

परन्तु दुख की बात है कि जिस गैर जिम्मेदाराना ढंग से हिन्दी के समर्थकों ने हिन्दी को गैर-हिन्दी इलाकों में लादने की कोशिश की उससे हिन्दी का या हिन्दुस्तानी का राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार्यता कम होती गई। संविधान सभा ने यह तय किया था कि 1965 तक अंग्रेजी ही इस देश की लिंक लैंग्वेज रहेगी अर्थात केन्द्र और राज्य के बीच में जो भी संबंध रहेगा वह अंग्रेजी भाषा में होगा। परंतु जैसे ही 1965 आया गैर-हिन्दी राज्यों में इसका विरोध होने लगा। इन राज्यों को लगा कि अब हमारे ऊपर हिन्दी लाद दी जायेगी।

1965 आने के पहले दक्षिण के राज्यों में इसका विरोध होने लगा। सबसे ज्यादा विरोध तमिलनाडु में हुआ। लोग सड़कों में निकल आये और अनेक स्थानों पर विरोध ने हिंसक रूप ले लिया। उस समय लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे। दक्षिण के विरोध से वे काफी चिंतित हुए और उन्होंने फैसला किया कि वे स्वयं दक्षिण जाकर इस बात का आश्वासन देंगे कि वहां के निवासियों की मर्जी के बिना हिन्दी उन पर नहीं लादी जायेगी। जब शास्त्री जी ने यह प्रस्ताव किया तो कैबिनेट ने उसे उचित नहीं माना।

इस पर इंदिरा गांधी जो कैबिनेट की सदस्य थीं ने कहा कि मैं दक्षिण जाकर वहां के लोगों को शास्त्री जी की ओर से आश्वासन दूंगी। वे गईं और उन्होंने यह आश्वासन दिया कि किसी भी हालत में हिन्दी नहीं लादी जायेगी। उनके इस आश्वासन के कारण आंदोलन शांत हुआ।

उसके बाद उन उपायों पर विचार होने लगा जिनके माध्यम से हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ाई जा सके। 1968 में यह नीति बनी कि सारे देश में, स्कूलों में तीन भाषाएं पढ़ाई जायेंगी। वे भाषाएं थीं-अंग्रेजी, हिन्दी और एक राज्य की भाषा। बहुसंख्यक दक्षिण के राज्यों ने इस फार्मूले को स्वीकार किया। परंतु हिन्दी राज्यों में अत्यधिक मनमानकर इस फार्मूले को स्वीकार किया। कुछ समय बाद सभी इस फार्मूले को भूल गये। परंतु दक्षिण के राज्यों ने इस पर क्रियान्वयन जारी रखा। इस मामले में केरल सबसे आगे था। मैं जब भी केरल गया स्कूल के बच्चे बढ़िया हिन्दी में बात करते थे। परंतु पूरे देश में इस फार्मूले पर काम नहीं हुआ।

कुछ हिन्दी राज्यों ने तो तीसरे फार्मूले में संस्कृत को शामिल कर दिया। उत्तरप्रदेश में जब मुलायम सिंह की सरकार थी तो उन्होंने उन क्षेत्रों में जहां बहुसंख्यक उर्दू भाषी रहते थे, उर्दू पढ़ाने की स्वीकृति दे दी। उत्तर प्रदेश के सारे सरकारी दफ्तरों में उर्दू को दूसरी भाषा का दर्जा दे दिया गया। दफ्तरों में और अन्य सरकारी कार्यालयों में उर्दू में साईनबोर्ड लिखे जाने लगे। इसका वहां विरोध भी हुआ। परंतु जब तक मुलायम सिंह की सरकार रही तब तक यह जारी रहा।

परंतु कुल मिलाकर तीन लैंग्वेज फार्मूला भुला दिया गया। यदि इस फार्मूले पर काम होता तो भारी संख्या में दक्षिण में हिन्दी का उपयोग होने लगता और हिन्दी राज्यों में किसी न किसी गैर हिन्दी भाषा का उपयोग होने लगता। ऐसा होने पर हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ जाती। जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार दिल्ली में बनी तो फिर यह शंका उठी की कहीं फिर हिन्दी उन राज्यों में न लाद दी जाये जो हिन्दीभाषी नहीं है। इस शंका के बावजूद अभी तक ऐसा नहीं हुआ। इस समय हालत यह है कि यदि आप चैन्नई में हैं तो आपको हिन्दी में कम ही दुकानों, दफ्तरों के बोर्ड मिलेंगे, सिर्फ उनको छोड़कर जो केन्द्रीय सरकार या रेलवे के दफ्तर हैं।

चैन्नई समेत तमिलनाडु में इस समय भी हिन्दी का सख्त विरोध है। कुछ दिन पहले मैं एक सेमिनार में था और मैंने हिन्दी में बोलना प्रारंभ किया तो हाल में उपस्थित सभी श्रोताओं ने उसका विरोध किया। मैंने पूछा आप विरोध क्यों कर रहे हैं? तो उनका उत्तर था कि दरअसल हिन्दी अल्पसंख्यकों की भाषा है। तमाम दूसरी भाषाओं की संयुक्त तुलना में हिन्दी का उपयोग कम लोग ही करते हैं।

यहां यह याद दिलाना प्रासंगिक होगा कि एक समय ऐसा था कि जब तमिलनाडु में जो उस समय मद्रास प्रेसिडेन्सी के नाम से जाना जाता था हिन्दी प्रचारणीय सभा की स्थापना हुई थी और स्थापना की थी चक्रवर्ती श्री राजगोपालाचार्य ने जो कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में थे। उस समय किसी ने हिन्दी का विरोध नहीं किया। परन्तु परिस्थितियों ने कुछ ऐसा चक्र लिया कि स्वयं राजगोपालाचार्य भी हिन्दी के उत्साही समर्थक नहीं रहे। यह साफ है कि यदि हिन्दी को पूरे देश पर लादने का प्रयास किया जाता तो हमारा भी वही हाल होता जो पाकिस्तान का हुआ। पाकिस्तान टूट गया भाषा के कारण।

जब बंगाल पर उर्दू लादने की कोशिश की गई तो उसका जबरदस्त विरोध हुआ। बंगाल के लोगों ने कहा कि हमारी भाषा अर्थात बंग्ला उर्दू से ज्यादा समर्थ है। यहां तक कि बांग्लादेश में जो वहां का राष्ट्रगीत है वह हमारे देश के महान कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखित है। यह दुनिया में शायद और किसी राष्ट्र में ऐसा उदाहरण नहीं है जो बांग्लादेश और भारत में है। एक ही कवि द्वारा लिखित गान हमारे देश और बांग्लादेश में राष्ट्रगान है। यह दर्शाता है कि भाषा की ताकत कितनी होती है। यदि उसका समर्थन होता है तो वह भी अद्भुत और यदि इसका विरोध होता है तो भी अद्भुत।

हमारे साथ-साथ चीन में भी आज़ादी आई। परंतु वहां के नेतृत्व ने एक विशेष भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया। परंतु हम ऐसा नहीं कर पाये। परंतु शायद निकट वर्षों में भी ऐसा कर पाना संभव नहीं दिखता है। परंतु इतिहास इस बात का साक्षी है कि किसी राष्ट्र की मज़बूती में भाषा का कितना महत्व है।

दुनिया के अनेक राष्ट्र एक ही भाषा में अपना कारोबार करते हैं। दुनिया के अनेक मजबूत राष्ट्रों में ऐसे राष्ट्र शामिल हैं जैसे फ्रांस इसलिए फ्रांस है क्योंकि वहां पूरे देश में फ्रांस ही बोली और लिखी जाती है। इसी तरह इटली, इसी तरह जर्मनी और अन्य राष्ट्र शामिल हैं।

(एलएस हरदेनिया स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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