इतना कैसे बदल गया बांग्लादेश?  

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बांग्लादेश बदल गया है। इसका नतीजा वहां के अल्पसंख्यक भुगत रहे हैं। अल्पसंख्यकों पर गाहे-ब-गाहे ज्यादती पहले भी होती थी। लेकिन ऐसी घटनाओं पर राज्य व्यवस्था की जैसी प्रतिक्रिया हाल के महीनों में देखने को मिली है, वह नए प्रकार की है।  

यह तथ्य है कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यक- विशेष रूप से हिंदू समुदाय के लोग खुद को घिरा महसूस कर रहे हैं। उनके पूजा स्थलों और अन्य ठिकानों पर हमले हुए हैं। उनमें यह भाव गहराया है कि उन्हें इंसाफ नहीं मिल रहा। समुदायों में अक्सर उनके साथ न्याय ना होने की भावना तब घर करने लगती है, जब महसूस हो कि किसी अन्य समुदाय को उसके ऊपर वरीयता मिल रही है। बांग्लादेश में यह सूरत तेजी से बनी है।   

क्या ऐसा बांग्लादेश की अंतरिम सरकार की अक्षमता के कारण हुआ है? अथवा, पूर्व आवामी लीग सरकार की तुलना में अब के सत्ताधारियों का नजरिया बदल गया है? 

पांच अगस्त 2024 (जिस रोज तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना देश छोड़कर भागी थीं) के बाद की घटनाओं पर गौर करें, तो संकेत मिलता है कि कुछ मामलों में अंतरिम सरकार असहाय नजर आई। यानी अल्पसंख्यकों के खिलाफ ज्यादती रोकने की इच्छा के बावजूद वह ऐसा कर नहीं पाई। मगर, इस परिवर्तन का एक बड़ा संदर्भ भी है। हकीकत यह है कि बांग्लादेश का नया नेतृत्व धर्मनिरपेक्षता की परंपरा में यकीन करता नजर नहीं आ रहा है।  

यह बात तब और दो-टूक ढंग से जाहिर हुई, जब अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद युनूस ने इस वर्ष सितंबर में संयुक्त राष्ट्र में हुए ‘भविष्य के शिखर सम्मेलन’ को संबोधित किया। इसमें उन्होंने कहा- “बांग्लादेश का जन्म उदारवाद, बहुलवाद और धर्मनिरपेक्षता में लोगों के गहरे यकीन के कारण हुआ था। लेकिन अब दशकों बाद पीढ़ी जेड (1995 से 2010 के बीच जन्मी पीढ़ी) हमें उन उसूलों पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित कर रही है, जिनके लिए 1971 में हमारी जनता उठ खड़ी हुई थी। ये नौजवान हमें पुनर्कल्पना करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे 1952 में मातृभाषा बांग्ला की रक्षा के लिए हम प्रेरित हुए थे।”

(https://gadebate.un.org/sites/default/files/gastatements/79/bd_en.pdf)

इस बात को आगे बढ़ाते हुए एक विश्लेषक ने कहा कि बांग्लादेश के लोग अपने राष्ट्र को 1971 के संदर्भ में नहीं, बल्कि 1947 के संदर्भ में परिभाषित कर रहे हैं। 1971 में पाकिस्तान से मुक्ति का संग्राम भाषाई पहचान वाले राष्ट्र की स्थापना के लिए लड़ा गया था। जैसा कि प्रो. यूनुस ने कहा, राष्ट्र की ये अवधारणा 1952 में जन्मीं, जब पश्चिमी पाकिस्तान में स्थित शासकों की उर्दू थोपने की कोशिश के खिलाफ लोग आंदोलन पर उतर आए। तब पाकिस्तानी फौजियों की फायरिंग में अनेक मौतें हुई थीं। वहां से जन्मी बांग्ला राष्ट्र की धारणा क्रमिक रूप से लोकप्रिय होती गई। दो दशक के अंदर उसने स्वतंत्र बांग्लादेश के रूप में साकार रूप ग्रहण कर लिया।

भाषाई राष्ट्र इस सिद्धांत पर बना कि जो भी बांग्लाभाषी है या बांग्ला परंपरा एवं संस्कृति का हिस्सा है, वह नए राष्ट्र का समान नागरिक है। साफ है, तब शेख मुजीब-उर-रहमान के नेतृत्व में लड़े गए मुक्ति संग्राम में मजहब आधारभूत तत्व नहीं था। स्वाभाविक है कि बांग्लादेश के संविधान में सभी मजहबों को मानने वाले लोगों को समान अधिकार दिए गए।

जबकि 1971 में अस्तित्व में आए पाकिस्तान को परिभाषित करने वाला तत्व मजहब ही था। पूर्वी पाकिस्तान (जो अब बांग्लादेश है) समेत पूरा पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र की धारणा के आधार पर बना था। जबकि तब भारत ने अपने को धर्मनिरपेक्षता- अथवा सर्वधर्म सम-भाव- के आधार पर परिभाषित एवं स्थापित किया। 1952 में जब पूर्वी पाकिस्तान में भाषाई पहचान को लोगों ने मजहबी पहचान पर तरजीह देना शुरू किया, तो उसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की धारणा की जीत के रूप में देखा गया था। 1971 में जब इस्लाम पाकिस्तान को एकजुट रखने में नाकाम एवं नाकाफी साबित हो गया, तो स्वाभाविक ही है कि भारत में उसे अपनी समझ की पुष्टि के रूप में देखा गया।

यहां जब हम भारत कह रहे हैं, तो उसका मतलब यह कतई नहीं है कि यहां धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक धारणा से सभी राजनीतिक धाराएं सहमत थीं। इस्लामी राष्ट्र के साथ-साथ हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना आजादी के पहले एक स्थापित धारा बन चुकी थी। लेकिन यह निर्विवाद है कि 1947 के बाद से वह कई दशकों तक हाशिये पर रही। राजनीतिक बहुमत जुटाना तो दूर, वह आसपास कहीं प्रतिस्पर्धा में भी तब नजर नहीं आती थी। तब से कम-से-कम चार दशक तक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद ही भारत की मुख्यधारा रहा। उसके बाद की कहानी अलग है।

उसका कथा सार भारतीय नेताओं की बदली सोच में जाहिर होता है।

  • तृणमूल कांग्रेस के नेता सुदीप बंद्योपाध्याय लोकसभा में मांग की कि बांग्लादेश में हिंदुओं सहित अल्पसंख्यकों को दी जा रही यातना के खिलाफ भारत सरकार संयुक्त राष्ट्र से तुरंत शांति रक्षक सेना वहां भेजने का अनुरोध करे।
  • आम आदमी पार्टी ने बांग्लादेश के हिंदुओं में फैल रहे भय के प्रति केंद्र पर मंद प्रतिक्रिया और उदासीनता दिखाने का आरोप लगाया और विदेश मंत्रालय से बांग्लादेश सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने की मांग की।
  • बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने कहा- बांग्लादेश में तख़्ता पलट होने के बाद से वहां नई सरकार में ख़ासकर हिंदू अल्पसंख्यकों पर हो रही हिंसा व जुल्म-ज्यादती आदि तथा उससे वहां बिगड़ते हालात अति-दुखद और चिंताजनक हैं। इसको लेकर भारत के लोगों में काफी आक्रोश है। सरकार इस पर उचित कदम उठाए।
  • कांग्रेस सांसद रंजीता रंजन ने कई संन्यासियों को बांग्लादेश में प्रवेश की इजाजत ना दिए जाने का मुद्दा संसद में उठाया और कहा कि केंद्र सरकार को इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए।
  • भारतीय जनता पार्टी और उसके अनुषांगिक संगठन तो दुनिया में कहीं भी हिंदुओं पर कथित ज्यादती हो, आक्रामक रुख अख्तियार किए ही रहते हैं। बांग्लादेश के मुद्दे पर उनकी प्रतिक्रिया लगातार उत्तेजना भरी रही है।

जिन विपक्षी दलों ने बांग्लादेश के मुद्दे पर केंद्र को घेरने की कोशिश की है, उन्होंने यह नहीं बताया कि

  • भारत सरकार को किस तरह का हस्तक्षेप करना चाहिए, क्या उसे वहां अपनी सेना भेजनी चाहिए?
  • भारत बांग्लादेश सरकार की जवाबदेही तय करने के लिए क्या कर सकने की स्थिति में है?
  • क्या सचमुच बांग्लादेश ऐसी स्थिति बन चुकी है, जिससे वहां शांति सेना भेजने पर संयुक्त राष्ट्र  में सहमति बन सकती है? 

वैसे ये फ़ौरी सवाल हैं। इससे अधिक गंभीर प्रश्न कई इस सिलसिले में उठे हैं। मसलन,

  • ममता बनर्जी और उनकी पार्टी से यह अवश्य पूछा जाना चाहिए कि क्या भारत में अल्पसंख्यकों पर ज्यादती की होने वाली किसी घटना के सिलसिले में कोई अन्य देश संयुक्त शांति सेना भेजने की मांग करे, तो क्या वे उसका समर्थन करेंगी? 
  • तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, बसपा और यहां तक कि कांग्रेस के बारे में यह सवाल भी है कि गज़ा में जारी इजराइली मानव संहार पर उनकी वही आक्रामकता क्यों नहीं दिखी है, जो वे बांग्लादेश के संदर्भ में दिखा रहे हैं?

हम यहां ये सवाल इन दलों को कठघरे में खड़ा करने के लिए नहीं उठा रहे हैं। मकसद सिर्फ यह रेखांकित करना है कि 1990 के बाद भाजपा-आरएसएस ने बड़ी पूंजी और मीडिया के साथ मिल कर जो आक्रामक वैचारिक युद्ध छेड़ा, उसमें इन दलों ने, जो (AAP को छोड़ कर) पहले खुद को धर्मनिरपेक्ष कहते थे, जाने-अनजाने में पराजय स्वीकार कर ली है। संकेत यह है कि इन दलों ने भी कहीं अपनी अंतर्चेतना में यह मान लिया है कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है और इस नाते दुनिया में कहीं भी हिंदू समुदाय पर ज्यादती होती है, तो उनके बचाव में खड़ा होना उसका दायित्व है। वरना, सभी देशों के सभी अल्पसंख्यकों के मामले में इन दलों की प्रतिक्रिया समान रूप से सामने आती।

यह भारत में आया बदलाव है।

इसका सबसे ज्यादा अहसास भारत के अल्पसंख्यक समुदायों को हो रहा है। इस रूप में भारतीय राष्ट्रवाद की वह दूसरी अवधारणा फिलहाल कामयाब होती दिखी है, जिसे हाशिये पर धकेलते हुए धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद, जिसे बहुत से लोग गांधी-नेहरूवादी राष्ट्रवाद कहते हैं, देश की मुख्यधारा बना था। यानी हिंदू राष्ट्रवाद।

इन सारे घटनाक्रमों की जड़ हम 1990 के बाद political economy में आए मूलभूत बदलाव की तलाश सकते हैं। वैचारिक रूप से पाकिस्तान ने हमेशा अपने को इस्लामी राष्ट्र के रूप में ही पेश किया। उसने कभी मानव विकास को केंद्र में रख कर अर्थव्यवस्था को स्वरूप देने की कोशिश नहीं की। इसलिए आरंभिक दशकों में विकास के पैमानों पर वह हमेशा पिछड़ा रहा। आज भी उसका वही हाल है, लेकिन अब रास्ते पर वह अकेला नहीं है।

बहरहाल, जो लोग इस राह से सहमत नहीं हैं, उनके सामने प्रमुख सवाल यह है कि यह राह जहां ले जा रही है- यानी जो उसका कुदरती नतीजा होना है, उससे बचा कैसे जाए? क्या इस बिंदु पर पहुंच कर अब इन परिणामों से बचा जा सकता है? अथवा, क्या अब भी राह बदली जा सकती है? 

इस संभावना की तलाश में हम दक्षिण एशिया के ही एक अन्य देश की ओर ध्यान ले जा सकते हैं। उस देश में भी चार दशक तक महजबी/नस्लीय पहचान की सियासत हावी रही। इसके परिणामस्वरूप वह भीषण गृह युद्ध से भी गुजरा। साथ ही आर्थिक बर्बादियों से घिरता चला गया। 2022 में हालात कंगाली तक पहुंच गए। लेकिन इस वर्ष वहां की राजनीति में एक करिश्माई बदलाव दिखा है। हम बात श्रीलंका की कर रहे हैं।

श्रीलंका का अनुभव यह है कि अगर ऐसी सियासी ताकत का उभार हो, जो लोगों की बुनियादी चिंताओं एवं संघर्षों को अपने कार्यक्रम के केंद्र में रखे और विश्वसनीय वैकल्पिक नीतियां पेश करे, तो पहचान के विमर्श से बने ध्रुवीकरण से बाहर निकला जा सकता है। श्रीलंका की मिसाल इसलिए सटीक है, क्योंकि वहां साढ़े चार दशक में ऐसा पहली बार हुआ, जब तमिल बहुल इलाकों, बौद्ध-सिंहली बहुल इलाकों और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में एक ही मोर्चा लोगों की पसंद बना।

भारत और बांग्लादेश की सूरत यह है कि यहां उन प्रश्नों पर राजनीति को संगठित करने वाली विश्वसनीय ताकत का अभाव हो गया है। जिन दलों ने पहले धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र एवं संप्रभु अर्थव्यवस्था निर्मित करने को अपना मकसद बनाया था, उन्होंने दूसरे बिंदु- यानी संप्रभु अर्थव्यवस्था- से तौबा कर लिया। अंततः मजहबी पहचान की राजनीति के आगे समर्पण करने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं बचा। दक्षिण एशिया में दिखा यह रुझान असल में दुनिया के लगभग ज्यादातर देशों की कहानी है, जहां चुनावी लोकतंत्र प्रचलन में रहा है। सबक यह है कि लोगों की आर्थिक खुशहाली और सामाजिक-सांस्कृतिक उदारता को अलग करके अमल में नहीं लाया जा सकता।  

बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के साथ हमदर्दी, और उनके साथ अत्याचार की घटनाओं का विरोध जरूरी है। ठीक वैसी बात भारत के अल्पसंख्यकों के मामले में भी लागू होती है। दुनिया के किसी भी देश में अल्पसंख्यक और कमजोर तबकों के लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने लिए संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्था के अनुरूप हर देश की सरकार वचनबद्ध है। लेकिन इन वचनबद्धताओं को सुनिश्चित कराने का कोई माध्यम वैसे तो कभी मौजूद नहीं रहा- लेकिन अब जबकि जब दुनिया खेमों में बंटती जा रही है, ऐसा कराना और मुश्किल हो गया है।

इसके बावजूद जो ऐसे देशों के नागरिकों और राजनीतिक समूह लाचार नहीं हैं। उनके पास यह औजार मौजूद है कि वे चल रहे विमर्श से निकलें और उसे चुनौती दें। मगर उसके लिए पहले विकल्प और नए सपनों पर सोचना होगा- ऐसा सपना जो सबको जोड़ कर और सबके लिए साझा मकसद सामने रखने में कारगर हो!

 (सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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