भीख के कटोरे में कैसे तब्दील हुआ पूर्वांचल का ‘चीनी का कटोरा’!

देवरिया। पूर्वांचल का नाम आते ही देश के अन्य हिस्से हों या भारत की अर्थव्यवस्था को करीब से जानने वाले विदेशी सबके जेहन में बस एक ही तस्वीर सामने आती है। वह है पिछड़ापन, बेकारी व लाचारी। जिनको ये सभी लोग पूरबिया व बिहारी के नाम से जानते हैं। यहां के लोगों के पास आजादी के पूर्व या बाद के दौर में राजनीतिक संकट व गुलामी के खिलाफ आवाज उठाने व कुर्बानियों की कहानियों से भरे इतिहास की मोटी गठरी मौजूद है। इस पर चर्चा करने के बजाय हम यहां बात करेंगे इसके पिछड़ेपन के कारणों की। जिसकी तलाश के दौरान चीनी उद्योगों के इतिहास व उनकी बंदी के चलते तेजी से बढ़े कामगारों के पलायन को दृष्टिगत रखते हुए हम इसकी पड़ताल करने की कोशिश करेंगे।

कामगारों की बदहाली के किस्से तो लोग लगातार सुनते रहे हैं,पर एक साथ उसे अपनी आंखों से लोगों ने देखा दो वर्ष पूर्व, जब 24 मार्च 2020 को कोरोना के खतरों के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में 21 दिनों के पहले संपूर्ण लॉकडाउन की घोषणा की थी। कोरोना को रोकने के लिए घरों से बाहर निकलने पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई थी। देश में हर गली, मोहल्ले, कस्बे, जिले में लॉकडाउन लगा दिया गया। फिर देखते-देखते देश के अलग-अलग इलाकों में कामगारों के सामने कोरोना के साथ-साथ रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया। चौतरफा मुसीबतों के बीच अधिकतर श्रमिकों के सामने यही रास्ता बचा था कि वो किसी तरह अपने घर लौट जाएँ। लेकिन लॉकडाउन में यातायात पर प्रतिबंध लगा हुआ था।

ऐसे में देशभर में जो तस्वीर बनी उसे याद कर इसका दंश झेलने वालों की रूह आज भी कांप उठती है। मुश्किल हालात में लाखों की संख्या में श्रमिक अपने बूते घरों की तरफ चल दिए। कोई पैदल था, कोई साइकिल से, कहीं ट्रकों में भरकर तो कहीं ट्रेन की पटरियों पर चलते हुए लोग अपने घर पहुंचे। अधिकतर श्रमिकों का पलायन इसी पूर्वांचल से लेकर बिहार की ओर हो रहा था। दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, पंजाब, अहमदाबाद जैसी जगहों से लंबे समय तक पलायन जारी रहा।

हालांकि पूरब से उत्तर की तरफ जाते हुए यह तस्वीर क्यों नहीं दिखी। इसी सवाल में छिपा है पूरब के पिछड़ेपन का दर्द। आर्थिक रूप से तंगहाली के कारण कई हो सकते हैं,पर इनमें सबसे महत्वपूर्ण है चीनी मिलों की बंदी। ब्राजील के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चीनी उत्पादक देश है। 1960 तक उत्तर प्रदेश और बिहार प्रमुख चीनी उत्पादक राज्यों में शामिल थे। चीनी उद्योग, भारत में कपास उद्योग के बाद दूसरा सबसे बड़ा कृषि आधारित उद्योग है। ऐसे में जहां एक तरफ इस पर कामगारों की खुशहाली निर्भर है,वहीं किसानों की किसानी भी। बाजारों से जुड़ने के चलते उनकी समृद्धि भी इसी का हिस्सा हो जाती है।

उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल भारत में चीनी का प्रमुख उत्पादक क्षेत्र रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था में चीनी उद्योगों की भूमिका को बेहद प्रमुख माना गया है। यहां चीनी उत्पादन में लागत काफी कम है और जलवायु परिस्थितियां और मिट्टी की स्थिति गन्ने के उत्पादन के अनुकूल हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह भारत की सबसे उपजाऊ भूमि पर स्थित है जिसे दोआब कहा जाता है जो भूमि का एक अत्यंत उपजाऊ बेल्ट है। जिसमें गोरखपुर, देवरिया, बस्ती, गोंडा, मेरठ, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बिजनौर और मुरादाबाद प्रमुख रूप से शामिल हैं।

भारत के उत्तरी क्षेत्र में चीनी कारखाने मुख्य रूप से गंगा मैदान के उत्तरी भाग में, पंजाब के उत्तरी और पूर्वी क्षेत्रों के साथ-साथ हरियाणा के पूर्वी भागों में स्थापित किए गए। बिहार में, वे मूल रूप से उत्तरी पश्चिमी जिलों में विशेष रूप से मुजफ्फरपुर, दरभंगा, चंपारण, पटना, सारण और गोपालगंज में चालू किए गए। उत्तर प्रदेश में चीनी उद्योगों के संकेंद्रण के दो क्षेत्र हैं। मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर और बिजनौर जिले तथा दूसरा बस्ती, गोंडा, सीतापुर, देवरिया और गोरखपुर जिले।

देवरिया के चीनी उद्योग का सुनहरा अतीत 

पूर्वांचल में विशेषकर अविभाजित देवरिया जिले का चीनी उद्योग के मामले में सुनहरा अतीत रहा है। राज्य के 38 जिलों में गन्ने की खेती बड़े पैमाने पर होती रही। जिसमें देवरिया का इलाका चीनी का कटोरा कहा जाता था। यहां कभी 14 चीनी मिलें हुआ करती थीं। यूं देखें तो लखनऊ से पूरब की तरफ ट्रेनों से बढ़ते ही छपरा रेलखंड पर जरवल रोड से शुरू होकर बभनान, बस्ती, खलीलाबाद, सरदार नगर, गौरी बाजार, बैतालपुर, देवरिया, भटनी व बिहार के हिस्से में प्रवेश करते ही सीवान, पचरूखी के अलावा आसपास में प्रतापपुर, मढ़ौरा तथा पडरौना के रूट पर सेवरही, तमकुहीराज, कप्तानगंज व जिले की सीमा से सटे बिहार के गोपालगंज का थावे, गोपालगंज, कठकुईयां, सासामुसा आदि स्थानों पर चीनी मिलें स्थापित की गयी थीं।

इंदिरा गांधी ने किया मिलों का सरकारीकरण

पंजाब के कर्मचंद थापर ने देवरिया के बैतालपुर में चीनी मिल की स्थापना की थी। गौरी बाजार में भारत सरकार के कपड़ा मंत्रालय की चीनी मिल थी। इसके अलावा अन्य मिलें प्राइवेट ही हुआ करती थीं। श्रमिक नेता शिवाजी राय कहते हैं कि “वर्ष 1969 में विभिन्न क्षेत्रों के प्राइवेट उद्यमों के सरकारीकरण की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने मुहिम शुरू की थी। इस दौरान बैंक, कोयला क्षेत्र, बीमा कंपनी समेत चीनी मिलों के भी राष्ट्रीयकरण की सरकार ने एक शुरुआत की। जिसका नतीजा रहा कि देवरिया शहर के अलावा भटनी व बैतालपुर की मिल शुगर कारपोरेशन के हाथों में चली गई। वह एक ऐसा दौर था जब शिक्षक की नौकरी छोड़कर चीनी मिल में लोग काम तलाशते नजर आए। चीनी मिलों के द्वारा जारी गन्ने की पर्चियां वियरर चेक के समान इसे व्यापारी मानते थे। जिसे बंधक रखकर आसानी से व्यापारियों से समान किसान ले लेते थे”।

शिवाजी राय, मजदूर नेता

चीनी मिलों का बुनियादी विकास में भी रहा योगदान

चीनी मिलों के सुनहरे अतीत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि ये न केवल किसानों के गन्ने का समय से भुगतान करती थीं, बल्कि उनके बच्चों के लिए स्कूल, अस्पताल, सड़क आदि का निर्माण भी कराती थीं। कुशीनगर के सेवरही का किसान डिग्री कालेज वहां के चीनी मिल ने ही खोला था। जिसका नतीजा यह है कि आज भी कालेज का प्रबंधक पदेन केन यूनियन का चेयरमैन होता है। देवरिया शहर में बाईपास मार्ग के रूप में सीसी रोड का निर्माण भी यहां के चीनी मिल ने ही सर्वप्रथम की थी। इसी तरह अन्य मिलों द्वारा भी शिक्षण संस्थान, अस्पताल, सड़क आदि का निर्माण कराया गया था। गन्ना समितियों द्वारा किसानों को बीज, उर्वरक, कीटनाशक समेत अन्य समान निःशुल्क या अनुदान पर मिला करता था।

रामपुर कारखाना से लेकर बरहज तक फैला था खांडसारी का उद्योग

गन्ना किसानों के सुनहरे अतीत की जब हम चर्चा करते हैं तो पाते हैं कि चीनी मिलों के पूर्व से ही यहां खांडसारी का कार्य ऊंचाई पर था। इसका केंद्र रामपुर कारखाना के अलावा बरहज का बड़ा क्षेत्र हुआ करता था। जहां बड़ी संख्या में छोटे-छोटे खांडसारी मिल हुआ करती थीं। जिसमें किसानों के गन्ने की अच्छी खपत हो जाया करती थी, वहीं मजदूरों को काम भी मिल जाता था। यही नहीं इससे कारोबारियों के भी अच्छे दिन कटते थे। यहां तैयार किए गए गुड़ का जल मार्ग से विदेशों तक निर्यात किया जाता था। इसके बाद यहां चीनी मिलों की स्थापना शुरू हुई। जिसने देवरिया जिले को चीनी के कटोरे के रूप में पहचान दिलाई।

भाजपा शासित राज में मिलों की बंदी की शुरुआत

चीनी मिल व गन्ना यूपी में सियासत के केंद्र में रहा है। नेताओं के लिए अपनी राजनीतिक पैठ बनाने में गन्ना किसानों के साथ रिश्ते बनाना व उनके लिए संघर्ष करना उनकी अनिवार्यता बन गई थी। अस्सी के दशक के बाद गैर कांग्रेसी सरकारों का यूपी में दौर शुरू हो गया, जो आज भी बरकरार है। पिछले 32 वर्षों में तकरीबन पंद्रह वर्ष तक भाजपा की सरकारें रहीं। मजदूर नेता ऋषिकेश यादव कहते हैं कि “कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में चीनी मिलों के बुरे दिनों की शुरुआत हुई। गन्ना किसानों के हित में बने कानूनों को सरकार ने जहां शिथिल कर दिया वहीं केन यूनियन के अधिकार भी कम कर दिए गए। पूर्व में मिल प्रबंधन व किसानों के बीच संवाद का केन यूनियन सशक्त माध्यम हुआ करती थी। इसे कमजोर करने से मिल प्रबंधन की निरंकुशता बढ़ती गई। जिसका नतीजा रहा कि कल्याण सिंह के कार्यकाल में 12 मिलों को बंद कर दिया गया”।

ऋषिकेश यादव, मजदूर नेता,गौरी बाजार

उन्होंने आगे बताया कि “इसके बाद सपा के कार्यकाल में मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने सरकारी मिलों को बंद करने का फैसला किया। वर्ष 2003 में मुलायम सिंह यादव ने औद्योगिक विकास प्राधिकरण का गठन किया। साथ ही 23 मिलों को बेचने का फैसला किया। लेकिन यह शर्त रखी गई कि बंद मिलों की जगह चीनी मिल ही स्थापित करना होगा। जिसकी प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकी। इसके बाद मायावती की सरकार बनने पर उन्होंने भी मिल को बेचने का निर्णय लिया। जिसका नतीजा यह रहा कि 24 चीनी मिलों को निजी हाथों में बेच दिया गया। जिसमें देवरिया की गौरीबाजार, बैतालपुर, भटनी, देवरिया की मिल शामिल थी”।

मिलों की बंदी से कामगारों का बढ़ता गया पलायन

देवरिया समेत पूर्वांचल की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रही चीनी मिलों के बंद होते ही ये कस्बे भी उजड़ते गए। इसके साथ ही यहां के कामगारों का पलायन का क्रम और तेज हो गया। वर्ष 1991 में उदारीकरण के दौर की शुरूआत होने के साथ ही कामगारों का पलायन शुरू हो गया। जिसका नतीजा यह रहा कि अपने गांव व कस्बों से मजदूर जहां विस्थापित हो गए वहीं छोटे-छोटे दुकानदारों की गृहस्थी भी उजड़ गई। ये मजदूर काम की तलाश में देश के महानगरों के अलावा औद्योगिक क्षेत्रों में जाकर रहने लगे।

मजदूर नेता शिवाजी राय कहते हैं कि “गन्ना क्षेत्र के लिए एकमात्र नकदी फसल थी। मिलों की बंदी के बाद किसानों के लिए गन्ना का कोई विकल्प नहीं तैयार हुआ। सरकारों की नाकामी के चलते विकल्पहीनता की स्थिति पैदा हो गई। लिहाजा लखनऊ से पूरब बिहार, पश्चिम बंगाल होते हुए असम के गुवाहाटी तक का इलाका लेबर जोन बन गया। जिनके लिए सबसे बुरा दिन सामने आया कोरोना काल के दौरान। कोरोना काल के दौरान ये लाखों मजदूर अपने रोजगार को गवां बैठे तथा घर की ओर लौटने को मजबूर हुए। जिनमें से आज भी अधिकांश रोजी-रोटी के संकट से जूझ रहे हैं”।

पूर्वांचल का 11 करोड़ आबादी वाला इलाका उद्योग विहीन

अस्सी के दशक तक पूर्वांचल में स्थापित छोटे-छोटे उद्योग यहां के विकास की रीढ़ रहे। देवरिया समेत आस-पास के जिलों में जहां चीनी उद्योग प्रमुख था वहीं वाराणसी में कालीन व साड़ी उद्योग, भदोही में कारपेट उद्योग, मऊ में साड़ी उद्योग, संतकबीर नगर में हथकरघा व पीतल बर्तन उद्योग आर्थिक समृद्धि के सबसे बड़े कारक थे। इसके विस्तार के लिए सरकारी स्तर पर कोई पहल न होने से ये मरते चले गए। आधुनिकीकरण के दौर में मशीनीकरण के आगे ये परंपरागत उद्योग धीरे-धीरे खत्म हो गए। जिसका नतीजा यह रहा कि पूर्वांचल का तकरीबन 11 करोड़ से अधिक आबादी वाला हिस्सा अब मात्र सस्ते मजदूरों का हब बनकर रह गया है। ये मजदूर संकट में महानगरों में जाकर सस्ते दर पर अपने श्रम को बेचने को मजबूर हो रहे हैं।

मनरेगा भी नहीं कर पा रही रोजगार की गारंटी

कामगारों का पलायन रोकने के लिए मनरेगा भी सहायक नहीं साबित हो पा रही है। योजना की मूल संकल्पना बजट नहीं बल्कि लोगों के हाथों के लिए काम थी। और वह भी मांग के अनुसार। इसके तहत यह व्यवस्था बनाई गई कि मनरेगा के तहत जाब कार्डधारकों को हर हाल में एक वर्ष के अंदर मजदूरों को 100 दिन कार्य उपलब्ध कराया जाएगा। इस कानून के विपरीत धरातल पर स्थिति काफी खराब है। देवरिया जिले के भलुवनी ब्लाक के सुरहा के ग्राम प्रधान दीनदयाल यादव कहते हैं कि मौजूदा हालात में एक मजदूर को वर्ष में 30 दिन भी काम नहीं मिल पा रहा है।

दीनदयाल यादव,प्रधान ग्राम पंचायत सुरहा

समय से भुगतान न होने से मजदूरों को परेशानी का सामना करना पड़ता है। दीनदयाल कहते हैं कि मजदूरों को जहां हम लाभ नहीं पहुंचा पा रहे हैं, वहीं योजना के क्रियान्वयन में वैधानिक जटिलता बाधक साबित हो रही है। जबकि हमने महसूस किया कि वर्ष 2000-05 के अपने ग्राम प्रधान के कार्यकाल में ऐसे हालात नहीं थे। बजट भी पर्याप्त रहता था। जिससे मजदूरों से काम कराने व उन्हें समय से भुगतान करने में भी सुविधा होती थी। मुसैला के पूर्व प्रधान मोहन प्रसाद कहते हैं कि सरकार ने जानबूझ कर कानून को निष्प्रभावी बना दिया है। इस बार योजना के मद में केंद्र की तरफ से बजट का आवंटन भी कम कर दिया गया है। जिसके चलते एक मजदूर को 365 दिन में 30 दिन भी काम करा पाना संभव नहीं हो पाता है। ऐसे में अपने गांवों में ही मजदूरों को काम दिलाने का सरकारी वादा खोखला साबित हो रहा है।

चुनावी वादों तक सिमटा रहा विकास का सवाल

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के छह चरण का मतदान पूर्ण हो चुका है। हर बार की तरह सभी दलों ने पूर्वांचल के विकास के लिए तमाम वादे कर रखे हैं। लेकिन पिछले तीन दशकों पर गौर करें तो गैर कांग्रेसी दलों का अलग-अलग समय और कार्यकाल रहा। यह माना जा रहा है कि इन दलों में से ही किसी की एक बार फिर सत्ता आएगी। जिनके द्वारा पूर्वांचल के विकास का दावा पूर्व में खोखला साबित हुआ है।

डॉ अरविंद पांडे असिस्टेंट प्रोफेसर,बाबा राघवदास भगवानदास स्नातकोत्तर महाविद्यालय बरहज

बाबा राघवदास भगवानदास स्नातकोत्तर महाविद्यालय बरहज के असिस्टेंट प्रोफेसर डा. अरिवंद पाण्डेय का कहना है कि देश के पिछड़े हिस्सों में पूर्वांचल प्रमुख है। देश की सियासत में पूर्वांचल से विभिन्न नेताओं की बढ़-चढ़ कर भागीदारी रही है। इसके बाद भी क्षेत्र के विकास के लिए कोई ठोस पहल नहीं की गयी। जिसका नतीजा है कि बेरोजगारी क्षेत्र के लिए बड़ा सवाल है। इसके बाद भी मौजूदा विधान सभा चुनाव में बेरोजगारी बड़ा मुददा नहीं बन सकी। रोजगार के सवाल के बजाए राजनीतिक दल मतदाताओं को जाति व कौम के मुददों में उलझाए रहे। ऐसे में पूर्वांचल में बदलाव के कोई बड़े बयार की उम्मीद नहीं है। जबकि एक और खास बात यह है कि पूर्ववर्ती कई सरकारों के गठन में पूर्वांचल के इस इलाके ने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिन्हें इस हिस्से से अधिक सीट मिली उसकी ही यूपी में सत्ता बनी। ऐसे में यूपी के सत्ता की चाबी भले ही पूर्वांचल के लोगों ने थमाया हो पर उन्हें औद्योगिक विकास के सवाल पर न्याय का अभी भी इंतजार है।

(देवरिया से पत्रकार जितेंद्र उपाध्याय की रिपोर्ट।)

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