भारतीय समाज व सत्ता के लोकतांत्रिक होने की चुनौतियां और सामाजिक न्याय का सवाल

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हमारे समाज और साहित्य में समता और सामाजिक न्याय के विचारों और मूल्यों की मौजूदगी काफी पहले से रही है। अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ सदियों से हमारे यहां जनमत उभरता रहा है। विद्रोह तक हुए। उनमें कई बहुत विराट, क्रांतिकारी और रचनात्मक विद्रोह थे। बौद्ध दर्शन के उद्भव और विस्तार को भी हमारे यहां ऐसा ही विद्रोह कहा गया। पर वह महज एक धार्मिक विद्रोह नहीं था। अपने दौर का वह महान् उलगुलान या क्रांतिकारी कदम था, जिसने समाज, राजनीति, धर्म और संस्कृति हर क्षेत्र को प्रभावित किया। 

फिर हमारे मध्ययुगीन संतों, कवियों और विचारकों ने भी अपने लेखन या वक्तृता से समाज को सुधारने और समझदार बनाने की कोशिश की। ये कवि-विचारक आम तौर पर तेरहवीं-चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी में ज्यादा सक्रिय रहे। ऐसे कवियों-विचारकों में कबीर, रैदास और गुरु नानक प्रमुख हैं। लगभग उसी दौर में इन कवियों-विचारकों से बिल्कुल अलग सोच और समझ के साथ लिखने और बोलने वाले परंपरावादी विचार के कवियों-विचारकों की एक अलग धारा भी बहुत सक्रिय थी।

इसमें तुलसी दास सबसे उल्लेखनीय नाम हैं। उनकी वैचारिकी का मूलाधार ब्राह्मणवादी सामाजिकता, वर्णाश्रमी सोच और उसकी प्राचीन परंपरा है। पर कबीर, रैदास और नानक आदि को पढ़ते हुए लगता है, मानो वे अपने समाज के स्थापित मूल्यों और उस समय की वर्णाश्रमी व्यवस्था को नकारते और तोड़ते हुए नये समाज, नये मूल्यों और नये विचारों की तलाश कर रहे हैं। रैदास की बेगमपुरा की रचना, कबीर का कबीर पंथ और गुरु नानक का सिख धर्म की स्थापना का शुरुआती कदम उस तलाश के महत्वपूर्ण पड़ाव हैं। हमारे इतिहास में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिनका बेहतर समाज, राजनीति और न्यायिक तंत्र हासिल करने के मानवीय प्रयासों के क्रम में उल्लेख किया जा सकता है। 

पर हमारे यहां आधुनिक लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के विचार और मूल्य ब्रिटिश हुकूमत के दौरान ही ज्यादा प्रभावी और ठोस रूप में लोगों के जीवन-बोध में शामिल हुए। इसका सबसे बड़ा कारण था कि देश ब्रिटिश साम्राज्यवादी सत्ता की अधीनता में जरूर गया पर पश्चिम की डेमोक्रेसी से उसका संपर्क भी उसी दौर में तेजी से बढ़ा। ब्रिटिश हुकूमत से लड़ने और उससे मुक्ति के लिए लिखने वाले देश के अनेक साहित्यकारों-विचारकों के लेखन में इस द्वन्द्वात्मक गत्यात्मकता की शिनाख्त की जा सकती है। जोती बा फुले, शाहू जी महाराज, सावित्री बाई फुले, श्रीनारायण गुरु, अयंय्कली, पेरियार, मौलवी मो. बाकिर, भगत सिंह, प्रेमचंद, गणेश शंकर विद्यार्थी, डॉ. बीआर अम्बेडकर सहित अनेक विचारक, प्रबोधक, लेखक और पत्रकार उस दौर में सबके लिए स्वतंत्रता और सबके लिए न्याय के महान् मानवीय मूल्यों के बड़े पैरोकार के तौर पर उभरते हैं। 

इन सबने अपने समय और समाज को प्रभावित किया। अभी मैंने जिन महान् विचारकों के नामों का उल्लेख किया, उनमें मौलवी मो बाकिर के अलावा सभी को आज पूरा देश जानता और मानता है। इसलिए मौलवी मो बाकिर के बारे में बताना जरूरी समझता हूं कि वह भारतीय पत्रकारिता के पहले शहीद पत्रकार हैं। देहली उर्दू अखबार के इस संपादक को ब्रितानी हुक्मरानों ने सन् 1857 के विद्रोह के दमन के तत्काल बाद 16 सितम्बर, 1857 को दिल्ली गेट पर सबके सामने तोप के सामने खड़ा किया और गोलों से खत्म कर दिया। 

हुकूमत ने उन्हें बागी-पत्रकार घोषित किया था। कुछ दशकों बाद सांप्रदायिकता से जूझते हुए और समाज को उससे बचाने की कोशिश के क्रम में देश के एक महान् पत्रकार और स्वाधीनता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी ने 25 मार्च, 1931 को कानपुर में शहादत दी। विद्यार्थी जी के अखबार प्रताप में शहीदे आजम भगत सिंह ने काफी समय तक नाम बदलकर लिखा। वहां उनका नाम बलवंत सिंह था। बताते हैं कि प्रताप का दफ्तर भगत सिंह सहित अनेक क्रांतिकारियों का अड्डा और आसरा था। भगत सिंह वहां समय-समय पर रुकते भी थे। 

विद्यार्थी जी की शहादत के महज दो दिनों पहले सुखदेव और राजगुरु के साथ भगत सिंह को 1931 में ही 23 मार्च को फांसी दी गई। भारतीय इतिहास का यह अद्भुत त्रासदी भरा दौर था जब भारत को आजाद कराकर उसके समाज को संवारने, सजाने और सुधारने के अभियान में जुटे ऐसे अनेक महान् विचारकों के जीवन का असमय ही दुखद अंत हुआ।

कांग्रेस से जुड़े लेखकों-विचारकों और नेताओं ने भी अपने-अपने स्तर से तत्कालीन भारतीय सामाजिक-राजनीतिक चिंतन को प्रभावित किया। निस्संदेह, आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाने के अलावा भारतीय राष्ट्र-राज्य के निर्माण और उस दौर के सामाजिक-राजनीतिक परिवेश को निर्मित करने में गांधी जी, जवाहरलाल नेहरू और अब्दुल कलाम आजाद जैसे नेताओं का बड़ा योगदान रहा। लेकिन इस बात को हमें स्वीकार करना चाहिए कि कांग्रेस की अगुवाई में चलाये लंबे राजनीतिक अभियान और उसमें गांधी-नेहरू जैसे कद्दावर और युगांतकारी नेताओं की मौजूदगी के बावजूद कांग्रेस सन् 47 के बाद देश की सामाजिकता को गुणात्मक रूप से बदलने में कामयाब नहीं हो सकी। 

विभाजन के दौरान और उसके बाद हालात बहुत खराब हुए। हिंसा और उपद्रव के थमने के बाद समाज में राजनीतिक-आर्थिक बहुतेरे कार्यक्रम लिये गये। इनमें कुछ अच्छे तो कुछ बुरे भी साबित हुए। पर समाज की सांस्कृतिक-नैतिक और वैचारिक संरचना में गुणात्मक बदलाव की प्रक्रिया तेज नहीं की जा सकी। सामाजिक न्याय के बोध को राजनीतिक स्तर पर जो व्यापक स्वीकार्यता मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली। अच्छी बात ये थी भारतीय राजनीतिक-बौद्धिक जीवन में गुणात्मक बदलाव के लिए तरह-तरह के प्रयास लगातार जारी रहे। 

तरक्कीपसंद और वामपंथी बुद्धिजीवियों के एक समूह ने 1934-35 में लंदन से प्रगतिशील लेखक संघ के गठन की पृष्ठभूमि तैयार की। सबसे पहले उक्त समूह ने एक दस्तावेज जारी किया। उन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप अंततः 9-10 अप्रैल1936 को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ या प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन का स्थापना सम्मेलन होता है। इसका उद्घाटन प्रेमचंद करते हैं। अपनी कुछ सीमाओं के बावजूद यह संगठन प्रगतिशील और समता मूलक विचारों के प्रचार-प्रसार में ऐतिहासिक भूमिका निभाता है। 

इस दौर में हिंदी, उर्दू, पंजाबी, तेलुगू, मलयालम, बांग्ला और अंग्रेजी में बहुत महत्वपूर्ण लेखन होता है। पर यह सब सिर्फ एक लेखक संगठन बनने मात्र से नहीं होता। वह भारत के मुक्ति-संग्राम से उभरते नये विचारों के कारण होता है। थियेटर के क्षेत्र में भी जबर्दस्त काम होता है। पर उस वैचारिक-सांस्कृतिक आंदोलन की अपनी सीमाएं भी नजर आती हैं। 

उस दौर में समता और लोकतंत्र पर नये-नये तरह के विमर्श जरूर सामने आये पर समता का एक जरूरी घटक सामाजिक न्याय नजरंदाज होता रहा। ये जरूर कहा जा सकता है कि राजनीति और संस्कृति के क्षेत्र से उभरते ‘धन और धरती बंट के रहेगी’ जैसे काव्यात्मक नारों में सामाजिक न्याय का पहलू भी शामिल था। उस दौर के कई कवियों, सिनेमाकारों और विचारकों ने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया। हिंदी फिल्मों के जरिये पहली बार तरक्कीपसंद और सुसंगत लोकतांत्रिक मूल्यों को आम जन-जीवन में ले जाने की कुछ अच्छी कोशिशें हुईं। 

आजादी के कुछ ही समय बाद वामपंथी-प्रगतिशील समूहों की तरफ से भी बहुत उल्लेखनीय पहल हुई। देश के कई इलाकों में लोगों ने इन्हें अपना समर्थन दिया। केरल में पहली कम्युनिस्ट सरकार ने अप्रैल, सन् 1957 में निर्वाचित होने के कुछ ही समय बाद भूमि सुधार और शिक्षा क्षेत्र में सुधार के दो महत्वपूर्ण कदम उठाये। पूरे देश को उसने रास्ता दिखाया। इससे पहले सिर्फ जम्मू कश्मीर के तत्कालीन वजीरे आजम(प्रधानमंत्री) शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की सरकार ने ही इस तरह का बड़ा कदम उठाया था। लेकिन देश का दुर्भाग्य था कि जब भारत अपने जनतंत्र के सूर्योदय का स्वागत कर रहा था, शेख की सरकार को भूमि-सुधार के क्रांतिकारी कदम उठाने के चलते केंद्र की नेहरू सरकार ने 9 अगस्त, 1953 को सूबे के सदरे रियासत (गवर्नर) के जरिये बर्खास्त करा दिया। 

यही नहीं, बर्खास्त किये प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को जेल भेज दिया गया। केरल में भी लगभग ऐसा ही हुआ। ईएमएस नंबूदिरिपाद की अगुवाई वाली सरकार 31 जुलाई, सन् 1959 को बर्खास्त कर दी गई। कुछ वर्ष बाद 6 मार्च, 1967 को जब नंबूदिरिपाद की अगुवाई में फिर से वामपंथियों की सरकार बनी तो उसने भूमि-सुधार और शिक्षा सुधार के अपने छूटे हुए काम को आगे बढ़ाया। इसी दौर में सबसे पहली बार भारत के किसी राज्य ने अपने यहां जातिवार सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण कराने का फैसला किया। यह 1968-69 में पूरा करा लिया गया। आजाद भारत के इतिहास का यह अपने ढंग का पहला फैसला था। नवम्बर 1969 में केरल में सी अच्युत मेनन की अगुवाई में नई वामपंथी सरकार बनी।

उसने भी भूमि-सुधार, शिक्षा सुधार सहित सामाजिक न्याय के अन्य कदमों को आगे बढ़ाने का सिलसिला जारी रखा। ईएमएस और मेनन की इन दो सरकारों ने केरल राज्य के समावेशी और समग्र विकास की आधारशिला रखी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि केरल समावेशी विकास के मामले में आज भी देश का अव्वल राज्य बना हुआ है तो इसमें अतीत की इन दो वामपंथी सरकारों की बहुत बड़ी भूमिका है। जिन अन्य कुछ राज्यों ने समावेशी विकास और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कदम उठाये, उनमें जम्मू कश्मीर के अलावा तमिलनाडु और कर्नाटक का नाम उल्लेखनीय है। तमिलनाडु में अन्नादुरै और करुणानिधि की सरकारों ने कई जरूरी कदम उठाये। कर्नाटक में देवराज अर्स के दौर में उठाये कदमों ने सूबे की सामाजिकता और आर्थिकी को बदल डाला।

 ‘आपरेशन बर्गा’ जैसे भूमि सुधार के कुछ कदमों के बावजूद बंगाल के 34 सालों के वाम-मोर्चा सरकार के कार्यकाल में सूबे को समावेशी विकास और सामाजिक न्याय के सुसंगत रास्ते पर नहीं लाया जा सका। शायद इसलिए कि केरल और बंगाल के वामपंथी नेताओं की सामाजिक पृष्ठभूमि, राजनीतिक-सांस्कृतिक बोध और दोनों राज्यों की ऐतिहासिक परिस्थितियों में भी बड़ा फर्क था। पश्चिम बंगाल की वामपंथी राजनीति के जरिये हम बेहतर ढंग से समझ सकते हैं कि किस तरह भारत के कम्युनिस्टों ने समतामूलक वैचारिकता से अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने के बावजूद सामाजिक न्याय के उसूलों को अनेक मौकों पर नजरंदाज किया। 

बंगाल सहित हिंदी क्षेत्र के वंचित और पिछड़े वर्गों में वामपंथियों, सोशलिस्टों और अन्य लोकतंत्रवादियों के लगातार बेअसर होते जाने और दक्षिणपंथी संकीर्णतावादियों के तेजी से प्रभावी होते जाने के पीछे असल कहानी यही है। उन्हें इस इलाके में मंदिर-मस्जिद के नाम पर संकीर्ण धार्मिक और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का मौका मिल गया। बंगाल के ‘पुनर्जागृत भद्रलोक’ के पास इसका कोई तोड़ नहीं था। लिहाजा एक तरफ तृणमूल कांग्रेस ने जगह बना ली और दूसरी तरफ संघ-भाजपा ने। हिंदी भाषी क्षेत्रों में तो बंगाल जैसा कोई कथित ‘पुनर्जागृत भद्रलोक’ भी नहीं था। 

किसी उल्लेखनीय सामाजिक-राजनीतिक सुधार के अभाव में यहां तो ठेठ उच्चवर्णीय अहंकार से ग्रस्त सामंती-तत्वों का समाज, राजनीति और सम्पदा पर पहले से ही दबदबा कायम था। सन् सत्तर के दशक में पिछड़ों-दलितों के बीच यहां राजनीतिक सुगबुगाहट तेज हुई। 

इमरजेंसी के बाद जब यूपी-बिहार में नई राज्य सरकारें बनीं तो पहली बार एक साथ दोनों प्रदेशों के मुख्यमंत्री पिछड़े वर्ग से आये क्रमशः रामनरेश यादव और कर्पूरी ठाकुर। दोनों ने आरक्षण के नये प्रावधानों के साथ नये कानून लाये। कांग्रेसी-जनसंघियों के साथ कम्युनिस्ट पार्टियों के भी कई नेताओं ने इन प्रावधानों का यह कहते हुए विरोध किया कि आरक्षण का आधार ‘सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन’ होना चाहिए, सिर्फ सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ापन नहीं! सन् नब्बे के दशक में फिर इसकी पुनरावृत्ति हुई जब केंद्र की वीपी सिंह की सरकार ने 9 अगस्त,1990 को मंडल आयोग की रिपोर्ट की एक महत्वपूर्ण सिफारिश को लागू करने के फैसले का ऐलान किया। कांग्रेस ने संसद से सड़क तक विरोध किया। 

आरएसएस-भाजपा ने रणनीतिक-विरोध किया। बयानों में कम किया, एक्शन में ज्यादा किया। कांग्रेसियों ने गजब का वैचारिक दिवालियापन दिखाया। ‘मंडल’ का एक्शन में कम लेकिन बयानों में ज्यादा विरोध किया। वामपंथी पहले की तरह यह जाने-समझे बगैर कि भारत का संविधान आरक्षण का आधार सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ेपन को मानता है, काफी समय तक आरक्षण को सामाजिक-आर्थिक आधार पर देने की वकालत करते रहे। ओबीसी आरक्षण पर अपने भ्रम को सबसे पहले सीपीआई ने दूर किया और उसकी नेशनल कौंसिल ने समर्थन का ऐलान किया। लेकिन माकपा लंबे समय तक ऊहापोह में रही। 

सभवतः उसके ऊहापोह के पीछे बंगाल के ‘भद्रलोकी वामपंथियों’ का दबाव काम कर रहा था, जो आज भी नहीं मानते कि पूरे भारत की तरह बंगाल में भी वर्ग के साथ जातिगत उत्पीड़न, अन्याय और भेदभाव का अस्तित्व है। यह संभव है कि बंगाल में उसकी मात्रा यूपी-बिहार के मुकाबले कम हो! लंबे समय तक बंगाल में मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करने में कोताही की गई। बाद में लागू की गई तो आरक्षण के निर्धारित प्रतिशत को बहुत घटाकर लागू की गई। आज भी बंगाल में मंडल आयोग की सिफारिशें सही ढंग से नहीं लागू हो सकी हैं। 

ऐसी समस्याएं किसी एक प्रदेश तक सीमित नहीं हैं। देश के विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षण संस्थान हों या उच्च नौकरशाही हो, ज्यादातर वंचित व पिछड़े समाजों का प्रतिनिधित्व निर्धारित कोटे से भी कम है। कई क्षेत्रों में ओबीसी का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है। संसद में दिये अपने जवाब में तत्कालीन केंद्रीय शिक्षा राज्यमंत्री ने सन् 2023 में बताया कि देश के 45 केद्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी श्रेणी से प्रोफेसरों की संख्या 4 फीसदी, एसोशिएट प्रोफेसरों की 6 फीसदी है।(स्रोतः Times News Network, 1 Aug, 2023)। संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक इस समुदाय का कम से कम 27 फीसदी प्रतिनिधित्व होना चाहिए। 

हिंदी, बांग्ला, ओडिया या पंजाबी के मीडिया या साहित्यिक मंचों पर ऐसे सवालों पर कितनी बहस होती है? अगर हमारे साहित्यिक और विचारक अपने को प्रगतिशील और लिबरल मानते हैं तो वे इन मुद्दों को दशकों से नजरंदाज क्यों करते आ रहे हैं? शैक्षिक संस्थान, उच्च नौकरशाही, न्यायपालिका हो या मीडिया हो, वंचित और पिछड़े समाजों की हिस्सेदारी इतनी कम क्यों है? 

मैं समझता हूं, वाम और लिबरल कही जाने वाली शक्तियों की तरफ से सामाजिक न्याय के पहलू को नजरंदाज करने से सांप्रदायिक-निरंकुश शक्तियों को ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के नाम पर समाज के वंचित और पिछड़े तबके के लोगों के एक उल्लेखनीय हिस्से को अपने पक्ष में गोलबंद करने में आसानी हुई है। पिछले लोकसभा चुनाव में बिहार-झारखंड-मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ के नतीजे हों या हाल के हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों हों, इनसे हमारी उपरोक्त व्याख्या की पुष्टि होती है। एक तरफ लोकतांत्रिक-लिबरल शक्तियों की तरफ से राजनीतिक क्षेत्र में ठोस और रचनात्मक पहल की सख्त कमी है तो दूसरी तरफ हिंदी, बांग्ला सहित अनेक भाषाओं के साहित्य, संस्कृति और प्रकाशन के क्षेत्र में हिंदू उच्चवर्णीय लेखकों-संपादकों-प्रकाशकों का दबदबा कायम है। 

उनकी वंचित समूह से आये लेखकों-रचनाकारों से गहरी निकटता नहीं हो पाती। समय-समय पर केंद्र और सूबों का राजनीतिक परिदृश्य और सत्ता-समीकरण भले बदल जायें पर सांस्कृतिक-साहित्यिक-प्रकाशकीय परिदृश्य में उल्लेखनीय बदलाव नहीं होता। विडम्बना ये कि ऐसे महत्वपूर्ण सवालों पर सुसंगत बहस तक नहीं होती। कुछेक अपवाद कभी-कभी नजर आते हैं। हिंदी में समयांतर, हंस, सांचा (जो अब नहीं छपती), सामयिक वार्ता, दलित दस्तक, फारवर्ड प्रेस और सबाल्टर्न जैसी कुछ लघु पत्रिकाओं और द वायर, द प्रिन्ट, जनचौक, सत्यहिंदी, न्यूजक्लिक, न्यूज लांड्री और मीडिया विजिल जैसी कुछ वेबसाइटों या उनके यूट्यूब चैनलों पर ही हाल के वर्षों में सामाजिक न्याय से जुड़े अहम् मुद्दों पर कुछ बहसें हुई हैं। संभव है, इस क्रम में कुछ नाम छूट रहे हों। पर ऐसी बहसें मात्रा और गुणवत्ता के स्तर पर नाकाफी हैं। 

(उर्मिलेश हिंदी के लेखक-पत्रकार हैं। इन दिनों वह UrmileshSamvad नाम से अपना Youtube Channel चलाते हैं। 26 अक्तूबर को चंडीगढ में आयोजित भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सेमिनार के उद्घाटन सत्र में उर्मिलेश ने इस आलेख को आधार बनाकर तनिक विस्तार से अपना अतिथि-भाषण पेश किया।)

जारी..

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