Thursday, April 25, 2024

छात्रों-युवाओं के लिए कितनी कारगर है नई शिक्षा नीति?

(केंद्र सरकार की ओर से घोषित नई शिक्षा नीति पर समाज के बुद्धिजीवी तबके में बहस जारी है। लेकिन अभी इस पर किसी तरह की आम सहमति नहीं बन पा रही है। यहां तक कि सरकार विरोधियों में इस पर कोई एका नहीं है। दरअसल अभी पूरे दस्तावेज का अध्ययन नहीं हो पाया है। बताया जा रहा है कि 200 पेजी दस्तावेज का केवल सारांश रूप ही बाहर आ सका है जो 60 पेज का है। ऐसे में बहुत चीजें अभी सामने आनी बाकी हैं। लिहाजा इस क्षेत्र से जुड़े जानकार भी किसी नतीजे पर पहुंचने में जल्दबाजी नहीं दिखाना चाहते हैं।

हालांकि अभी जितनी चीजें सामने आयीं हैं उनके आधार पर जरूर लोगों ने अपनी प्रतिक्रियाएं देनी शुरू कर दी हैं। इसमें कुछ लोग समर्थन में हैं तो बहुत सारे लोग विरोध भी कर रहे हैं। उन्हीं में से एक लेख कल यानी 31 जुलाई को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ है। रितिका चोपड़ा द्वारा लिखा गया यह लेख आम तौर पर नई घोषित नीति के समर्थन में दिखता है। हालांकि कुछ आशंकाएं भी इसमें जाहिर की गयी हैं। अंग्रेजी में प्रकाशित इस लेख का अनुवाद अंजनी कुमार ने किया है। इसको यहां इसलिए दिया जा रहा है जिससे यह जाना जा सके कि कुछ लोग किन आधारों पर नई शिक्षा नीति का समर्थन कर रहे हैं। पेश है पूरा लेख-संपादक) 

केंद्रीय मंत्रालय ने बुधवार को नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 को पास कर दिया। इसमें स्कूली और उच्च शिक्षा में व्यापक बदलाव किया गया है। कुछ मुख्य बातों, और उनका छात्रों और शिक्षण संस्थानों पर होने वाले असर पर एक दृष्टि डालते हैं: 

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का उद्देश्य-

राष्ट्रीय शिक्षा नीति एक ऐसा मुकम्मल ढांचा है जो देश की शिक्षा के विकास की दिशा तय करता है। ऐसी नीति की जरूरत पहली बार 1964 में तब महसूस की गई थी जब कांग्रेस के सांसद सिद्धेश्वर प्रसाद ने शिक्षा के दर्शन और दिशा बोध की कमी को लेकर सरकार की आलोचना की थी। उसी साल विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष डी एस कोठारी के नेतृत्व में 17 सदस्यों वाला शिक्षा आयोग बना जिसे शिक्षा पर एक राष्ट्रीय और संयोजित नीति का प्रस्ताव बनाना था। इस कमीशन के दिये गये सुझावों के आधार पर 1968 में पहली शिक्षा नीति को संसद ने पारित किया। 

एक नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति कुछ दशकों में आ ही जाती है। अब तक भारत में यह तीन बार बन चुकी है। पहला 1968, दूसरा 1986 क्रमशः इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के समय में आयी। 1986 की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का ही 1992 में पुनरीक्षिण हुआ जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे। इसके बाद नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में बुधवार को तीसरी नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति पारित हुई। 

इसकी मुख्य बातें क्या हैं- 

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कई एकदम से किये गये बदलाव हैं। इसमें भारत की उच्च शिक्षा क्षेत्र में विदेशी विश्वविद्यालय के लिए खोल देना है। अनुदान आयोग और अखिल भारतीय तकनीकि शिक्षा काउंसिल को खत्म करना भी इसमें शामिल है। बहुविकल्प विषय के बहुस्तरीय चुनाव की स्नातक पूर्व चार साला पढ़ाई के कार्यक्रम की पेशकश की गई है। एम.फिल. की पढ़ाई को खत्म करने का प्रस्ताव भी है।

स्कूली शिक्षा में पाठ्यक्रम में पूरी तरह बदलाव लाने की नीति पर जोर है, बोर्ड की परीक्षा को ‘सरलतम’ बनाने, पाठ को कम कर ‘सार पक्ष’ को बनाये रखने और ‘प्रयोगात्मक शिक्षण और आलोचनात्मक चिंतन’ की नीति पर जोर दिया गया है। 

1986 की नीति स्कूली शिक्षा में 10+2 संरचना पर जोर दिया गया था। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। यह ‘‘5+3+3+4’’ की संरचना की बात करती है। जो उम्र समूह के साथ चलता है। 3-8 वर्ष (आधारभूमि स्तर), 8-11 वर्ष (तैयारी स्तर), 11-14 वर्ष (मध्यवर्ती) और 11-14 वर्ष (द्वितीयक स्तर)। यह बचपन की एकदम शुरुआती शिक्षा (3-5 वर्ष के बच्चों की स्कूल पूर्व की शिक्षा के रूप में भी जाना जाता है), को भी स्कूल की औपचारिक शिक्षा के भीतर ला दिया गया है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति कहती है कि कक्षा 5 तक छात्र की पढ़ाई मातृभाषा में या स्थानीय भाषा में होनी चाहिए। 

यह नीति प्रस्तावित करती है कि सभी संस्थानों को खत्म करते हुए एक धारा में लाया जाए और सभी काॅलेज और विश्वविद्यालय 2040 तक बहु विषयक शिक्षा के उद्देश्य को हासिल कर लें। 

ये सुधार कैसे लागू होंगे- 

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति केवल एक व्यापक दिशा देती है। इसे लागू करना अनिवार्य नहीं है। चूंकि शिक्षा एक सहमति आधारित विषय है (राज्य और केंद्र इस पर अपने कानून बना सकते हैं), ऐसे में प्रस्तावित सुधार को केंद्र और राज्य के संयोजन से ही लागू हो सकता है। यह तुरंत ही लागू नहीं हो जायेगी। पदासीन सरकार इस पूरी नीति को लागू करने के लिए 2040 का लक्ष्य रखे हुए है। इसके लिए पर्याप्त धनराशि की भी जरूरत है। 1968 की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को जमीन पर उतरने में फंड एक बड़ी बाधा बनी थी। 

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के हरेक पक्ष को लागू करने के लिए सरकार की योजना है कि प्रत्येक विषय अनुरूप कमेटियां गठित की जाये जिसमें केंद्र और राज्य दोनों से ही प्रासंगिक मंत्रालयों के सदस्य हों और उस आधार पर विकसित कर इसे लागू किया जाये। विविध विभागों जिसमें गृहमंत्रालय, राज्य शिक्षा विभाग, स्कूल बोर्ड, एनसीईआरटी, शिक्षा का केंद्रीय सुझाव बोर्ड और राष्ट्रीय टेस्टिंग एजेंसी और अन्य दूसरे शामिल हैं; को लेकर कार्यवाही की बातों को चिन्हित करने की योजना है। जो लक्ष्य तय किये जाएंगे, उसमें हुए हासिल की वार्षिक समीक्षा करते रहने की योजना है। 

मातृभाषा/स्थानीय भाषा पर जोर का अर्थ अंग्रेजी भाषी स्कूलों के लिए क्या है-

इस तरह का जोर नया नहीं है। ज्यादातर सरकारी स्कूलों में यही हो रहा है। जहां तक निजी स्कूलों की बात है, उसकी संभावना ही नहीं है कि उन्हें कहा जायेगा कि अध्यापन की भाषा में बदलाव लायें। द इंडियन एक्सप्रेस को एक वरिष्ठ आफिसर ने स्पष्ट किया कि राज्यों के लिए मातृभाषा में पढ़ाने का प्रावधान अनिवार्य नहीं है। ‘‘शिक्षा सहमति का विषय है। यही बात है जिसके कारण नीति साफ तौर पर कहती है बच्चों की शिक्षा ‘जिस हद तक संभव है’ मातृभाषा या स्थानीय भाषा में दी जाए। 

स्थानांतरित होते रहने वाले अभिभावकों या बहुभाषी मां-बाप के बच्चों के लिए क्या व्यवस्था है- नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति उपरोक्त मसले पर कुछ भी नहीं कहती है। लेकिन बहुभाषी परिवारों के बारे में यह कहता हैः ‘‘शिक्षकों को प्रेरित करना होगा कि वे द्विभाषी दृष्टिकोण अपनाएं, जिसमें द्विभाषिक अध्यापन-शिक्षण सामग्री हो। साथ ही उन छात्रों को भी प्रेरित किया जाये जिनकी घर की भाषा शिक्षा की भाषा से अलग है। 

शिक्षा के विदेशी खिलाड़ियों को लेकर सरकार की क्या योजना है- 

दस्तावेज कहता है कि दुनिया के जो शीर्षस्थ विश्वविद्यालय हैं वे भारत में अपने कैंपस की स्थापना कर सकते हैं। हालांकि ये शीर्षस्थ 100 कौन होंगे, इसके लिए मानदंड को व्याख्यायित नहीं किया गया है। पदासीन सरकार संभव है ‘क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग’ का प्रयोग करे, जैसा कि पिछले समय में ‘प्रतिष्ठित संस्थान’ की पदवी के लिए विश्वविद्यालयों के चुनाव में इस पर आश्रित हुई थी। बहरहाल, यह तब तक शुरू नहीं हो सकता है जब गृहमंत्रालय एक नया कानून न लाये जिसमें यह बात जोड़नी होगी कि विदेशी विश्वविद्यालय भारत में किस तरह से काम करेंगे।

यह साफ नहीं है कि एक नया कानून किस तरह से बाहर से आने वाले विश्वविद्यालयों को भारत में कैंपस बनाने के लिए प्रेरित करेगा। 2013 में, जब कांग्रेस नेतृत्व की सरकार थी, उसने भी इसी तरह का बिल लाने की कोशिश की थी। उस समय ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने रिपोर्ट किया था कि येल, कैंब्रिज, एमआईटी एण्ड स्टैनफोर्ड, एडिनबर्ग एण्ड ब्रिस्टाॅल यूनिवर्सिटी की भारत के बाजार में उतरने में कोई रुचि नहीं दिखाई थी। 

भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों की हिस्सेदारी वर्तमान में संयुक्त कार्यक्रमों में हिस्सेदारी, फैकल्टी में संस्थानों में पार्टनर के बतौर हिस्सेदारी और दूरवर्ती शिक्षा तक सीमित है। भारत में शिक्षा देने वाले 650 से अधिक विदेशी संस्थानों के पास इस तरह की व्यवस्था है।

चार साला बहुविषयक स्नातक कार्यक्रम किस तरह से काम करेगा- इस तरह की बात 6 साल बाद आ रही है जब दिल्ली विश्वविद्यालय को मजबूर होकर चार साला स्नातक कार्यक्रम को वर्तमान सरकार के आदेश से रद्द करना पड़ा था। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रस्तावित चार साला शिक्षा कार्यक्रम के तहत छात्र एक साल की पढ़ाई कर भी सर्टिफिकेट हासिल कर सकता है, दो साल में डिप्लोमा और तीन साल के बाद उसे स्नातक की डिग्री हासिल हो जायेगी। 

वैज्ञानिक और यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष वी एस चौहान कहते हैंः ‘‘चार साला स्नातक कार्यक्रम में आमतौर पर एक निश्चित मात्रा में शोध कार्य होगा और छात्र अपने निर्णय की प्रमुखता वाले विषय में गहरा ज्ञान हासिल कर सकेगा। इन चार सालों के बाद छात्र सीधे शोध डिग्री वाले विषय में आ सकता है, यह छात्र की योग्यता पर निर्भर करेगा …। बहरहाल, परास्नातक की पढ़ाई जैसी चल रही है, चलेगी और आगे की पढ़ाई में वे पीएचडी करने का चुनाव कर सकते हैं।’’

एमफिल कार्यक्रम हट जाने का क्या असर होगा इस पर चौहान कहते हैं कि उच्च शिक्षा का परिक्षेत्र इससे प्रभावित नहीं होगा। ‘‘आम तौर पर परास्नातक की डिग्री वाले छात्र पीएचडी कार्यक्रम में दाखिला ले सकते हैं। यही बात लगभग पूरी दुनिया में लागू है। ज्यादातर विश्वविद्यालयों में, जिसमें ब्रिटेन (आक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और दूसरे में) मास्टर और पीएचडी के बीच एमफिल का प्रावधान है। जो लोग एमफिल करते हैं उसमें से बहुत से लोग पीएचडी नहीं करते हैं। सीधे पीएचडी करने की प्रक्रिया के पक्ष में एमफिल को धीरे धीरे खत्म किया जा रहा है।’’ 

विविध-विषय पर जोर देने से एक धारा वाले संस्थानों पर, जैसे आईआईटी की प्रभावशीलता कम नहीं हो जाएगी- 

आईआईटीज इस दिशा की ओर पहले ही बढ़ चुके हैं। आईआईटी-दिल्ली में मानविकी पाठ्यक्रम है और हाल ही में वहां लोक नीति विभाग बनाया गया। आईआईटी-खड़गपुर में मेडिकल साइंस और टेक्नालाॅजी का विभाग है। इस विविध विषयों के कार्यक्रम के बारे में पूछने पर आईआईटी-दिल्ली के निदेशक वी रामगोपाल राव बताते हैं, ‘‘अमेरीका का सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालय जैसे एमआईटी में मानविकी विभाग काफी अच्छा है। सिविल इंजीनियर की बात लें। बांध बनाना जान जाने से ही समस्या का हल नहीं हो जाता। उसे बांध बनाने से पर्यावरण और उसका समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को भी जानना होगा। बहुत से इंजीनियर खुद भी उद्यमी बन रहे हैं। क्या उन्हें अर्थशास्त्र के बारे में नहीं जानना चाहिए? आज इंजीनियरिंग के साथ बहुत से कारक जुड़ चुके हैं।’’

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