दक्खिन की तरफ बढ़ते हरिवंश!

हिंदी पत्रकारिता में हरिवंश उत्तर से चले थे। अब दक्खिन पहुंच गए हैं। पर इस यात्रा में उन्होंने जो पुण्य कमाया था वह गवां तो नहीं दिया! समाजवादी धारा वाले रहे। युवा तुर्क चंद्रशेखर का कामकाज संभाला तो बहुत सी पत्र पत्रिकाओं को भी संभाला। प्रभात खबर जैसे क्षेत्रीय अख़बार को राष्ट्रीय फलक पर भी ले आए। उन्हें उनकी पत्रकारिता के लिए याद किया जाता रहा है आगे भी याद किया जाएगा। खासकर प्रभात खबर को लेकर उनका बड़ा योगदान तो था ही। इसे सभी मानते हैं।

जब उन्होंने इस अखबार को छोड़ा तो प्रभात खबर ने अपने संपादक के हटने की खबर पहले पेज पर चार कालम बाक्स के रूप में प्रकाशित की। अख़बारों में संपादक आते जाते रहते हैं पर कोई किसी संपादक के जाने की खबर इतनी प्रमुखता से नहीं छापता है। पर ये उसी अखबार में हुआ जिसे उन्होंने गढ़ा था। बाद में एक पत्रकार ने बताया कि यह इसलिए प्रकाशित किया गया ताकि सब यह जान जाएं कि हरिवंश का अब प्रभात खबर से कोई संबंध नहीं है। इसकी कुछ वजह जरुर होगी पर वह मुद्दा नहीं है। मुद्दा यह है कि आपने कैसे मूल्य अपनी पत्रकारिता और अपने उत्तराधिकारियों को दिए जो यह सब हुआ। यह शुरुआत थी। पत्रकारिता को जो योगदान उन्होंने दिया उसकी भरपाई ऐसे होगी यह सोचा भी नहीं जा सकता था। पत्रकारिता और राजनीति का जब भी घालमेल होता है यह सब होता है। फिर अगर राजनीतिक महत्वकांक्षा बढ़ जाए तो बहुत कुछ हो सकता है। यह रविवार को समूचे देश ने देखा।

पर मीडिया ने एक ही पक्ष दिखाया। राज्यसभा में विपक्ष इस कृषि बिल पर तय रूप से भारी पड़ता। पर सत्तारूढ़ दल ने समाजवादी हरिवंश के जरिए शतरंज की बाजी ही पलट दी। बाजी तो छोड़िए शतरंज का बोर्ड ही पलट दिया। ताकि हार जीत का फैसला ही न हो सके। यहीं से हरिवंश की राजनीतिक अवसरवादिता पर बात शुरू हुई। वे संपादक से सांसद बने, राज्यसभा में उप सभापति बने और अब राष्ट्रपति पद के रास्ते पर चल पड़े हैं। पर यह रास्ता पीछे का रास्ता है जो दक्खिन की तरफ से जाता है। हम लोगों की चिंता का विषय यही है।

ऐसा नहीं है कि उन्होंने पहली बार राजनीतिक भेदभाव किया हो। वे तो संपादक रहते हुए भी नीतीश कुमार के साथ खड़े रहते थे। याद है प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के तत्कालीन अध्यक्ष जस्टिस मारकंडे काटजू की बिहार पर जारी वह रपट जिस पर मीडिया की भूमिका पर बहस छिड़ी थी। तब प्रभात खबर के संपादक के रूप में हरिवंश ने ही तो नीतीश सरकार के बचाव में मोर्चा लिया था। हरिवंश ने इस मुद्दे पर कलम तोड़ दी थी। प्रेस कांउसिल ऑफ इंडिया की उस रपट के खिलाफ हरिवंश ने जोरदार लेख लिखा और नीतीश कुमार की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय छवि पर ठीक से रोशनी डाली थी। कोई और पत्रकार होता तो उसके इस लिखे को जनसंपर्क पत्रकारिता ही तो कहा जाता। प्रभात खबर की तब हेडिंग थी, ‘प्रेस काउंसिल की बिहार रिपोर्ट झूठी, एकतरफा और मनगढ़ंत!’

अपने यहां लोगों की याददाश्त कुछ कमजोर होती है, जिससे वे पुराना लिखा-पढ़ा जल्दी भूल जाते हैं, इसलिए यह संदर्भ दिया। वे संपादक थे। सरकार का पक्ष लेते थे। सरकार ने भी उन्हें ध्यान में रखा। वे राज्य सभा के सदस्य बनाए गए। उसी सरकार ने बनाया जिसका वे पक्ष लेते थे। फिर उनका पुराना अखबार भी पलट गया और फिर उनके साथ खड़ा हो गया। भविष्य सिर्फ संपादक ही थोड़े न देखता है मालिक भी देखता है। और फिर सांसद बन जाने पर कोई भी और आगे की तरफ ही तो देखेगा। वे फिर राज्यसभा के उप सभापति बनाए गए। भाजपा की मदद से। भाजपा सरकार ने इतना सब किया तो कुछ फर्ज उनका भी तो बनता था। उनके राज्यसभा में रविवार के व्यवहार को लेकर कई समाजवादी मित्र और शुभचिंतक आहत हैं। पर क्यों यह समझ नहीं आता।

जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी ने हरिवंश से मेरा परिचय करीब तीन दशक पहले करवाया था। वे मिलने आए थे तो किसी काम से मुझे बुलाया गया और मुलाक़ात हुई। प्रभाष जी उनकी बहुत तारीफ़ करते थे, कहते थे ये बहुत दूर तक जाएंगे। मुझे उनकी बात आज भी याद है वे वाकई बहुत दूर तक जाएंगे। बहुत शालीन व्यक्ति हैं। मिलने पर अच्छा लगता है। पर राजनीति का पत्रकारिता से घालमेल करना तो ठीक नहीं। उन्होंने अपना रास्ता तो खुद चुना और बनाया। पहले समाजवादी चंद्रशेखर थे। बाद में नीतीश कुमार आ गए। अब आगे का रास्ता और आगे ले जा सकता है।

इस समय जब समूची सरकार फंसी हुई थी, ऐसे में हरिवंश उसके संकटमोचक बन कर उभरे हैं। वर्ना क्या उन्हें राज्यसभा का गणित नहीं पता था। बिलकुल पता था। अकाली दल का भी रुख पता था और बीजू जनता दल का भी, इसलिए उन्होंने सदन की तरफ बिना आंख उठाए एक झटके में उस सरकार को उबार दिया, जिसकी सांस अटकी हुई थी। ये कोई मामूली बात तो नहीं है।

हरिवंश ने जो रास्ता चुना है, उसमें ऐसे फैसले स्वभाविक हैं। वे सही मुकाम पर पहुंच रहे हैं। आखिर पुराने समाजवादी जो ठहरे। दक्खिन की तरफ ऐसा समाजवाद कोई पहली बार तो बढ़ा नहीं है। जार्ज, नीतीश और पासवान सभी तो इसी रास्ते पर चलते रहे हैं। पर एक हरिवंश या नीतीश-पासवान के चलते समाजवाद को कोसना ठीक नहीं। दरअसल यह अवसरवाद है और अवसरवाद की क्या धारा और क्या विचारधारा। वर्ना 1942 आंदोलन में जेल जाने वाले समाजवादी डॉ. जीजी पारीख आज भी ग़रीबों की सेवा में लगे हैं। पर उन्हें तो आप जानते भी नहीं होंगे, क्योंकि न उन्हें उपराष्ट्रपति बनना है न राष्ट्रपति।

(वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार शुक्रवार के संपादक हैं और 26 वर्षों तक एक्सप्रेस समूह में अपनी सेवाएं दे चुके हैं।)

अंबरीश कुमार
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अंबरीश कुमार