नहीं रुकेगी हमारी कलम! क्योंकि इस दौर में ही तो लिखा जाना जरूरी है: अविनाश दास

(प्रोफेसर रविकांत और प्रोफेसर रतन लाल के बाद अब फिल्मकार, पत्रकार और लेखक अविनाश दास के पीछे सरकार पड़ गयी है। उनकी गिरफ्तारी के लिए गुजरात पुलिस आजकल जगह-जगह छापे डाल रही है। उनका कुसूर सिर्फ इतना है कि उन्होंने गृहमंत्री अमित शाह के साथ कोयला घोटाला मामले में गिरफ्तार झारखंड की आईएएस पूजा सिंघल की एक तस्वीर अपने सोशल मीडिया पर साझा कर दी थी। इसी बात पर गुजरात पुलिस ने उनके खिलाफ केंद्रीय गृहमंत्री की छवि खराब करने का केस दर्ज कर लिया।

अब कोई पूछ सकता है कि भला किसी सार्वजनिक शख्स की किसी तस्वीर को सार्वजनिक करना कब से गुनाह हो गया। जो तस्वीर पहले से ही सार्वजनिक थी उसे फिर कहीं दूसरी स्थान पर देना किस अपराध की श्रेणी में आता है? लेकिन यह नया निजाम है जो परेशान करने के रास्ते तलाश लेता है। मामला भले ही कोर्ट में न टिक सके लेकिन उससे पहले पुलिस के जरिये उसको परेशान करने का मौका तो मिल ही जाता है। बहरहाल अविनाश गिरफ्तारी से बचने के लिए किसी अज्ञात स्थान पर चले गए हैं। वहीं से उन्होंने एक पत्र लिखा है जो यहां पेश है-संपादक।)

इन दिनों, जब गुजरात पुलिस मेरे पीछे पड़ी है और मुझे गिरफ़्तार करने के लिए मेरे मित्रों से मेरे बारे में पूछताछ कर रही है, मैं घर-परिवार से दूर अपने एकांतवास में हूं। मुझे कोई मानसिक अशांति नहीं है, बल्कि संतोष है कि मैंने राष्ट्रवाद की रजाई में छिपी धूर्तता को सोशल मीडिया की अपनी पोस्ट के जरिये लोगों को दिखाना चाहा और गुजरात पुलिस से ये देखा न गया। मेरे ख़िलाफ़ तिरंगा के अपमान और केंद्रीय गृह मंत्री की छवि बिगाड़ने से जुड़ी धारा लगा कर एफ़आईआर दर्ज कर दिया गया।

बावजूद इसके मैं इन दिनों इतनी मानसिक शांति में हूं कि वाम प्रकाशन (Sanjay Kundan ) से छपी फ़रीद ख़ान की किताब “अपनों के बीच अजनबी” आद्योपांत पढ़ गया। नसीरुद्दीन शाह की भूमिका से लेकर इस किताब को लिखने के लिए मददगार स्रोत-संदर्भों के प्रति व्यक्त किये गये आभार तक। आज जबकि हर तरह के मानवाधिकारों पर हर तरह से लगातार हमले किये जा रहे हैं, यह किताब एक ज़रूरी हस्तक्षेप की तरह है।

इस किताब को मैं इस एहसास की रोशनी में समझने की कोशिश करता हूं कि धर्मनिरपेक्ष विचार रखने की वजह से ही अगर हम हिंदू नाम वाले अपने गांव-पड़ोस, नाते-रिश्तेदार, पाठक-दर्शक के बीच हास्यास्पद माने जा रहे हैं, तो एक मुसलमान की स्थिति क्या होगी, जो सिर्फ़ मुसलमान होने की वजह से आज सांप्रदायिकता के निशाने पर है। फ़रीद ने बहुत धैर्य के साथ हमें यह समझाया है कि मुसलमानों के बारे में तरह-तरह की भ्रांतियों को आज कितनी ताक़त के साथ फैलाया जा रहा है और कैसे धीरे-धीरे उन्हें समाज की मुख्यधारा से किनारे किया जा रहा है।

यह किताब इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह साफ़-साफ़ बताती है कि मुसलमान तो ख़ैर निशाने पर हैं ही, दलितों को भी यह सरकार और उसकी विचारधारा हर तरह से अपमानित कर रही है। किताब में अपने तमाम तरह के अनुभवों का वृतांत लिखने के अलावा फ़रीद ख़ान ने दादरी के अख़लाक़ से लेकर शाहीन बाग़ में सीएए-एनआरसी के ख़िलाफ़ इंक़लाब का परचम थामे महिलाओं के बारे में भी विस्तार से लिखा है। संविधान की रक्षा के लिए सक्रिय तमाम तरह के जन संगठनों को यह किताब नागरिकों में बांटनी चाहिए। सामान्य स्थिति होती, तो मैं इस किताब की प्रतियां ख़रीद कर चौराहे पर खड़ा हो जाता और हर आने-जाने वालों में बांटता।

ऐसा नहीं है कि इस किताब में वो बातें लिखी गयी हैं, जो हम नहीं जानते। हम सब जानते हैं लेकिन माहौल को देखते हुए चुप रहने की सहूलियत ओढ़ कर हम अनजान बने रहने का नाटक करते हैं। क्राइम ब्रांच, अहमदाबाद पुलिस के कमिश्नर ने जब मेरे ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की, तब मेरे कई मित्रों ने मुझ तक ये ख़बर पहुंचायी कि क्या ज़रूरी है इस वक़्त यह सब लिखने की, ज़ोख़िम मोल लेने की। मेरा कहना है कि इसी वक़्त ये ज़रूरी है। जब पत्रकारिता के लगभग सभी बड़े संस्थानों को सरकार ने अपने पाले में कर लिया है और जब बोलने की वजह से तमाम तरह के दमन की कोशिशें हो रही हैं, तभी बोलना ज़रूरी है।

ज्ञानवापी की धार्मिक असहिष्णुता में उबाल आने के बाद जब लोग शिवलिंगों को लेकर तरह-तरह के मज़ाक़ करने लगे, तो हमारे कई धर्मनिरपेक्ष मित्रों को बुरा लगा।

कहने लगे कि सब तो ठीक है, लेकिन शिवलिंग को लेकर ग़ैरमर्यादित टिप्पणी से बचना चाहिए। मैं भी कहता हूं कि बचना चाहिए, लेकिन जब समाज में संप्रदायों के बीच वैमनस्यता प्रायोजित की जाएगी, तो लोग अपनी कुंठा हर तरह से निकालेंगे। अभिव्यक्ति की इस ज़द में धार्मिक प्रतीक भी आएंगे। इसी वजह से जब मेरे मित्र और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रतन लाल की शिवलिंग पर टिप्पणी के ख़िलाफ़ दिल्ली पुलिस ने मामला दर्ज किया, तो मुझे न उनकी टिप्पणी से निराशा हुई, न उनके ख़िलाफ़ मामला दर्ज होने पर ताज्जुब हुआ। 2024 के चुनाव के लिए बीजेपी और आरएसएस को एक नया हथकंडा मिल गया है और आने वाले दिनों में ज्ञानवापी से लेकर तमाम तरह के धार्मिक वायु-विकार गगन मंडल में तैरते रहेंगे। बेरोज़गारी और महंगाई जैसे तमाम बड़े मुद्दे हाशिये पर ही बने रहेंगे, ऐसी संभावना है।

बहरहाल, मेरी गिरफ़्तारी किसी भी वक़्त हो सकती है, क्योंकि गुजरात पुलिस की एक बड़ी टीम मेरी तलाश में आज मुंबई पहुंची है। छोटी टीम 14 मई को ही पहुंच चुकी थी, लेकिन वह मुझ तक पहुंच नहीं पायी। अदालत मेरे बारे में क्या फ़ैसला करती है, ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा- इस बीच मैं किताबों के साथ रहूंगा, विचारों के साथ रहूंगा। फ़रीद ने अपनी नानी के हवाले से एक बड़ी अच्छी कहावत किताब में लिखी है, जिसे आख़िर में मैं यहां उद्धृत कर देना चाहता हूं।

असर गया कसर में

मग़रिब गये भूल

एशा गया खाते-पीते

फ़जिर गये सूत

ज़ोहर गये पढ़ने

तो बधना गया टूट

ऐ मोली साब निमाज़ कब पढ़ें?

(असर – तीसरे पहर की नमाज़, मग़रिब – शाम की नमाज़, एशा – रात की नमाज़, फ़जिर – भोर की नमाज़, ज़ोहर – दोपहर की नमाज़)

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