उनकी पहचान कपड़ों से नहीं उनके विचारों से होती है। वे उदारवाद का मुखौटा लगाकर आपके आसपास मंडराते हैं। वे बढ़-चढ़कर देश के विकास की बातें करेंगे मगर किसी भी तरह के विरोध और प्रतिरोध पर वे नाक-भौं सिकोड़ते हैं। विरोध का स्वर उनके लिए विकास विरोधी स्वर हो जाता है।
उनके विकास के मॉडल में न तो गरीब किसान होते हैं, न मजदूर, न छोटी आमदनी वाले लोग। विकास का मतलब है- इंटरनेट, चकाचौंध कर देने वाले एयरपोर्ट, तेज रफ्तार वाली महंगी ट्रेनें। वे छोटी सी आमदनी में बड़ी मुश्किल से गुजर-बसर करने वाली देश की बड़ी आबादी को शिक्षा, बिजली, पानी जैसी बुनियादी जरूरतों पर मिलने वाली सब्सिडी को मुफ्तखोरी बताएंगे, मगर करोड़ों-अरबों के फाइनेंशियल फ्रॉड पर चुप्पी साध लेंगे।
वे इतिहास की भूलों को करेक्ट करने की बात करते हुए सड़कों का नाम, शहरों का नाम, शिक्षण संस्थानों का नाम बदलने की वकालत करेंगे। वे मध्यकाल में हुई घटनाओं को उदाहरण बनाते हुए कुछ समुदायों की ईमानदारी पर सवाल खड़े करेंगे, मगर खुद उनके पुरखों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक बड़ी आबादी पर जो अत्याचार किए उस पर चुप्पी साध जाएंगे।
यदि आप उन्हें इस अत्याचार की याद दिलाएंगे और दलित तबकों की बात करेंगे तो इसे वे जातिवादी सोच बताएंगे, मगर उन्हें अपने समाज में हजारों साल से चला आ रहा भेदभाव जातिवाद नहीं ‘सामाजिक व्यवस्था’ नजर आती है।
वे हर उस बदलाव के खिलाफ होंगे जो हाशिए पर रहने वाले समाज या कम्यूनिटी को अपनी पहचान के साथ सामने आने का मौका देती हैं। उन्हें दरअसल ऐसा कोई व्यवधान नहीं चाहिए जो ‘प्रगति के राजमार्ग’ दौड़ती उनकी गाड़ी की तरफ्तार धीमी करे। उन्हें लगता है कि यह हाइवे उनके लिए होना चाहिए। फुटपाथ पर चलने वाले भी अगर अपनी खटारा गाड़ियों के साथ उसी हाइवे पर आ जाएंगे तो ‘तरक्की’ कैसे होगी?
उनकी देश भक्ति सेना, झंडे, सरकार और उसके तंत्र के समर्थन में दिखती है, मगर उन्हें अपने ही देश के नागरिकों का दमन, प्रताड़ना या बदतर जिंदगी नहीं दिखती। उन्हें किसानों की आत्महत्या नहीं दिखती, उन्हें अपने देश में निरक्षरों की भीड़ और गरीबी नहीं दिखती।
वे आधी आबादी को आजादी देने का स्वांग रचेंगे मगर वहां से उठती आवाजों से उन्हें चिढ़ होगी। वे चाहेंगे कि वे खुद तय करें कि महिलाओं को कब और कितनी आजादी चाहिए। उनको कितना सोचना, कैसे कपड़े पहनने हैं और कैसे जीना है।
उन्हें हर उस व्यक्ति से चिढ़ होगी जो सवाल उठाएगा। उन्हें विपक्ष से नफरत होगी, उन्हें सवाल उठाने वाली मीडिया से नफरत होगी, उनको बुद्धिजीवियों से नफरत होगी।
उनके तर्कों को गौर से सुनें और ध्यान दें कि वो तर्क आपको किधर ले जा रहे हैं? वे जिस ‘आदर्श समाज’ की पैरवी कर रहे हैं उससे किसके हित सध रहे हैं?
उनकी पहचान कपड़ों से नहीं उनके विचारों से होगी।
दिनेश श्रीनेत
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)