शहादत दिवस पर विशेष: भगत सिंह के दर्शन को समझने की जरूरत

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भगत सिंह को शहीद, महान शहीद और शहीदे आजम का ताज पहना कर हमने भगत सिंह की मौलिकता, उनके चिंतन और दर्शन को मृत मान लिया है। क्योंकि शहीद में कोई नवीनता नहीं होती। वह एक आदर्श के लिए जिया और कुर्बान हो गया। मगर उस आदर्श में कोई जीवित सिद्धांत, किसी मौलिक चिंतन का घोर अभाव होता है। देश भक्ति अथवा राष्ट्रभक्ति में कोई नवीनता नहीं अगर हमने अपने देशवासियों, खासकर बहुजन लोगों और वंचित व दमित तबकों तथा समुदायों के उत्थान के बारे में नहीं सोचते। भगत सिंह की खासियत यह नहीं थी कि वे अंग्रेजों के खिलाफ लड़े थे। ऐसे तो तमाम लोग लड़े और कुर्बान हुए। पर वे सब भगत सिंह नहीं बन सके। उनकी विशेषता यह भी नहीं थी कि वे सिख थे और मात्र 23 साल की उम्र में शहीद हो गए। इस तरह के भी अनगितनत उदाहरण मिल जाएंगे। पर वे भी भगत सिंह का दर्जा नहीं पा सके।

भगत सिंह वह शख्सियत थे जो सिर्फ और सिर्फ भगत सिंह ही हो सकते थे। देखिए उनका जीवन कितना विविधताओं से भरा हुआ था। भगत सिंह अपनी कुल परंपरा से एक जाट सिख परिवार में जन्मे। पर उनके दादा वह शख्सियत थे, जो स्वामी दयानंद और उनके आर्य समाज आंदोलन को पंजाब में लाए थे। आर्य समाज उन दिनों सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध तीव्रता से लड़ रहा था। इसलिए भगत सिंह को अपने दादा के संस्कार मिले। उनके दादा ने उनके यज्ञोपवीत के समय कह दिया था कि मेरा यह पोता कुछ बड़ा काम करेगा। उनके चाचा गदर पार्टी से जुड़े थे और अपने क्षेत्र में वे एक अन्य सिख जमींदार के जुल्म के विरुद्ध किसानों को एक जुट करने में लगे थे। भगत सिंह की शिक्षा-दीक्षा लाहौर के खालसा स्कूल में न होकर दयानंद एंग्लो वैदिक (डीएवी) हाई स्कूल में हुई। जब वे डीएवी हाई स्कूल में दाखिला लेने लाहौर आए अमृतसर में जलियांवाला हत्याकांड हो गया।

तब किशोर भगत सिंह मात्र 12 साल के थे। उनके किशोर मन ने कुछ तय कर लिया। हाई स्कूल करने के बाद वे एफए में दाखिला लेने नेशनल कालेज लाहौर पहुंचे। इसी बीच उन्होंने पंजाब हिंदी साहित्य सम्मेलन की एक निबंध प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और पंजाब के किसानों की दुर्दशा पर लेख लिखकर पहला पुरस्कार जीता। निराला जी के मतवाला पत्र में उन्होंने एक लेख लिखा कि पंजाबी की लिपि गुरुमुखी नहीं देवनागरी होनी चाहिए। इसके बाद भारत नौजवान सभा का गठन हुआ और भगत सिंह धीरे-धीरे हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी एसोसिएशन के संपर्क में आए। राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्र शेखर आजाद और अशफाक उल्ला खां से उनका संवाद होने लगा। उन्हीं दिनों साइमन कमीशन का विरोध करते हुए शेरे पंजाब लाला लाजपत राय पुलिस की लाठियों से मारे गए। इन जोशीले युवकों ने इसके बाद सांडर्स की हत्या की और पुलिस से बचने के लिए भगत सिंह दाढ़ी-मूंछ व केश कटवा कर सफाचट हो गए और ये सारे लोग कानपुर आ गए। भगत सिंह का अतीत जान कर उन्हें छुपाने की नीयत से कानपुर के बड़े कांग्रेसी नेता और प्रताप के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने उन्हें अपने अखबार प्रताप में सब एडिटर रख लिया।

बाद में काकोरी डकैती कांड से लेकर तमाम जोशीले कांड इन युवकों ने किए। मगर इसके बाद ही भगत सिंह को समझ में आ गया कि अकेले-अकेले कुछ दुस्साहसिक वारदात कर न तो अंग्रेजों को देश से चलता किया जा सकता है न देश में कोई न्यायसंगत, विधि सम्मत व्यवस्था लागू की जा सकती है। भगत सिंह ने इस बीच कानपुर में मेस्टन रोड स्थित गया प्रसाद लायब्रेरी में नियमित जाना शुरू किया और प्रिंस क्रोपाटकिन का अराजकता वाद तथा मार्क्स, लेनिन व एंगेल्स को पढ़ा। भगत सिंह का पूरा चिंतन ही बदल गया और उन्होंने पहला काम किया कि हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी एसोसिएशन का नाम बदला और उसमें सोशलिस्ट शब्द जुड़वाया।

चंद्र शेखर आजाद की सांगठनिक क्षमता को देखते हुए उन्हें इसका चेयरमैन नियुक्त किया और शुरू कर दी एक नए किस्म की लड़ाई। जिसके तहत एसेंबली बम कांड किया। वे चाहते तो दिल्ली की तत्कालीन नेशनल एसेंबली में बम फोड़कर वे भाग सकते थे पर जानबूझकर उन्होंने स्वयं को गिरफ्तार करवाया और इसके बाद जो जिरह उन्होंने की वह उनकी थाती बन गई। इसीलिए मेरा मानना है कि भगत सिंह की जितनी जरूरत कल थी उससे अधिक आज है। आजादी के बाद सिर्फ शासक बदले। गोरे अंग्रेज गए तो काले आ गए मगर व्यवस्था आज भी उसी तरह अन्यायपूर्ण है। गरीब, वंचित और दमित तबका आज भी उपेक्षित है। इसीलिए भगत सिंह मृत्युंजय हैं। मृत्युंजय यानी मृत्यु को जीतने वाला। भगत सिंह एक दर्शन हैं, विचारधारा हैं और वे कभी मरा नहीं करते। जिन युवाओं के जीवन में सिर्फ कैरियर है, कमाना-खाना और बच्चे पैदा करना है वे युवा भगत सिंह को नहीं समझ सकते। भगत सिंह को समझना है तो आपकी तरुणाई के कुछ सपने होने चाहिए। यही वजह है कि भगत सिंह को याद करते हुए गीतकार शैलेंद्र ने लिखा था-

भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की।

देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की॥

(शंभूनाथ शुक्ल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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