Wednesday, April 24, 2024

जन्मदिन पर विशेष: लालू यादव को समझने के लिए नज़र नहीं, नज़रिये की ज़रूरत

लालू प्रसाद यादव 10 मार्च 1990 को जब गांधी मैदान के जेपी की प्रतिमा के नीचे से मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर अपने तत्कालीन आवास पटना के वेटनरी कॉलेज के सर्वेंट क्वार्टर में लौट कर आए तो घर के बाहर भीड़ लगी थी और उसी भीड़ को निहारते हुए उनकी मां भी खड़ी थीं। लालू कार से उतरकर फूल मालाओं से लदे घर की तरफ बढ़े तो उनकी मां ने उन्हें टोक कर भोजपुरी में पूछा, जिसका मतलब कुछ इस तरह थाः क्या लालू; लोग कह रहा है कि तुम बड़ा आदमी हो गए हो, बिहार के मुख्यमंत्री हो गए हो, यह मुख्यमंत्री क्या होता है? लालू ने अपनी मां को जबाव दियाः हां, माय। हम हथुआ महाराज से भी बड़ा राजा बन गए हैं! 

लालू यादव की कहानी का वह एक पड़ाव है। लालू यादव जिस पृष्ठभूमि से आते हैं। उनकी जिंदगी इसी तरह के पड़ावों से भरी पड़ी है, जिसमें उतार और चढ़ाव बराबरी स्तर पर नहीं है। लेकिन यह तो तय है कि वे ऐसी सख्शियत हैं जिन्होंने करोड़ों लोगों की जिंदगी को कई तरह से प्रभावित किया है-सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों तरह से। बहुसंख्य अल्पसंख्यकों, पिछड़ों व दलितों में उनकी छवि मसीहा की है तो सवर्णों, थिंक टैंक, मीडिया, इंटेलिजेंसिया में वह आंबेडकर के बाद भारतीय समाज के सबसे बड़े खलनायक हैं। आज उसी लालू यादव के जन्मदिन की 74 वीं वर्षगांठ है। 

बिहार के मुख्यमंत्री का पदभार संभालने के बाद उसी शाम में आकाशवाणी से प्रसारित अपने पहले संदेश में राज्य की जनता से कहा था कि हमारी पहली प्राथमिकता सबको शिक्षा और सबको रोजगार देना होगा, दूसरी प्राथमिकता राज्य से बड़ी संख्या में हो रहे पलायन को रोकना होगा और तीसरा, अब तक हो रहे भ्रष्टाचार पर रोक लगाकर रुके हुए विकास की गति को फिर से शुरु करना होगा। अगले दिन यानि कि 11 मार्च, 1990 को पटना से निकलने वाले अखबारों का मुख्य पृष्ठ देखें तो आपको ऐसा लगेगा कि लालू यादव ने मुख्यमंत्री के रुप में शपथ नहीं लिया था बल्कि लालू का अवतार हुआ था जिसके पास कोई चमत्कारिक शक्ति है!

लेकिन कुछ ही महीने बाद 7 अगस्त, 1990 को प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू करने की घोषणा कर दी। लालू यादव ने उस निर्णय का खुले दिल से स्वागत किया। कारण यह भी है क्योंकि उनकी पार्टी जनता दल ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का चुनावी घोषणा पत्र में वायदा किया था।

फिर 15 अगस्त को वीपी सिंह इसी बात को लाल किले की प्राचीर से दोहराते हैं। मंडल आयोग के फैसले को लागू करने का विरोध पूरे देश में हिंसक पैमाने पर शुरू हो गया। पटना के एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री लालू यादव का मंडल विरोधियों ने जोरदार विरोध किया। इसी सभा में लालू यादव ने पहली बार खुले शब्दों में मंडल विरोधियों को यह कहकर ललकारा कि जो भी व्यक्ति आरक्षण का विरोध करेगा उसको बुल्डोजर से कुचल देगें।

मुख्यमंत्री के रूप में लालू यादव का यह रौद्र रूप पहली बार बिहार की जनता के सामने आया। अगले दो-तीन दिन के भीतर पटना में ही आरक्षण विरोधियों के एक बड़े प्रदर्शन पर पुलिस फायरिंग में बीएन कॉलेज के छात्र शैलेन्द्र शर्मा की मौत हो जाती है। एका एक लालू यादव की छवि अखबारों और संचार माध्यमों में खलनायक की बनाई जाने लगी। कुल मिलाकर लालू के पास मात्र 4 महीने 27 दिन का वक्त था जब वह बिहार के मुख्यमंत्री थे। इसके बाद सवर्ण नौकरशाही, सवर्ण मीडिया, सवर्ण अकादमिक, सामंतों और समाज के प्रभावशाली वर्गों के लिए इन साढ़े चार महीनों में ही लालू यादव ऐसा दैत्याकार व्यक्ति बन गए जिसे किसी भी कीमत पर पद से हटाने की मुहिम छिड़ गई।

दूसरी तरफ लालू यादव अपने काम से भी सत्ता पर पकड़ मजबूत कर रहे थे। मंडल की काट के लिए लालकृष्ण आडवाणी रथयात्रा पर निकल पड़े। पटना के गांधी मैदान में लालू यादव ने बतौर मुख्यमंत्री एक सर्वदलीय रैली को संबोधित किया। लालू यादव के उस ऐतिहासिक भाषण में वह आडवाणी से रथयात्रा खत्म कर देने की प्रार्थना करते हैं और अगले ही वाक्य में चेतावनी भी देते हैं, “चाहे उनकी सरकार रहे या चली जाए, हम अपने राज्य में दंगा-फसाद नहीं फैलाने देंगे। जहां बावेला खड़ा करने की कोशिश हुई, उससे सख्ती से निपटा जाएगा। जितनी एक प्रधानमंत्री की जान की कीमत है, उतनी ही एक आम इंसान की जान की क़ीमत है।” आडवाणी अपने पॉलिटिकल एजेंडा पर निकले थे, रथयात्रा रोकने का तो कोई सवाल ही नहीं था। परिणामस्वरुप लालू यादव ने आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार करवा दिया।

आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद लालू ने जिस सक्रियता से कानून-व्यवस्था को अपने नियत्रंण में लिया उससे आम लोगों में उनकी छवि एक कुशल प्रशासक की बनी। गांधी मैदान की बुकिंग के लिए कलेक्टर के कार्यालय में जाकर आप पुराने फाइल को पलटें या फिर 1996 तक के पटना से निकलने वाले अखबारों का पृष्ठ पलटें तो आपको पता चलेगा कि पटना के गांधी मैदान में कितनी छोटी-छोटी जातियों की रैली हो रही थी जिसमें मुख्य अतिथि लालू यादव थे। इन रैलियों में उस जाति के नेता लोग मुख्यमंत्री लालू यादव से तरह-तरह की डिमांड करते थे और लालू उसे निबटाने का आश्वासन देते हैं।

लालू अपने पहले कार्यकाल में भ्रष्टाचार के खिलाफ हर जगह भाषण में यह बात बोलते थे ‘अगर मैं घूस खाऊंगा तो मैं गाय का शोणित पीऊंगा।’ जनता लालू के भ्रष्टाचार विरोध के नारे को बिल्कुल उसी रूप में ले भी रही थी। मीडिया में यह कहकर प्रचारित किया गया कि लालू कहते हैं ‘भूरा बाल साफ करो’ (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला को खत्म करो) हालांकि लालू यादव ने इस बात का लगातार खंडन किया। लेकिन दमित बिहारी समाज में इसका संदेश यह गया कि लालू एक मात्र नेता है जिसमें उस समुदाय को औकात में रखने की क्षमता है। यह भी एक कारण था कि राज्य के सबसे ताकतवर तबकों के असहयोग के बावजूद उनकी पकड़ सत्ता पर मजबूत होती गई।

लेकिन कई बार ऐसी चूक भी हो रही होती है जो सचेतन उनके मन में भले ही नहीं रहा हो, अवचेतन में वो सारी चीजें कर रहे थे। 1991 और 1996 के लोकसभा चुनाव और 1995 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मिली सफलता ने उनको अपने हितैषियों से दूर कर दिया। उसी बीच लालू के दोनों सालों ने मिलकर एक निरकुंश सत्ता की धुरी निर्मित कर ली। इसमें लालू की पत्नी राबड़ी देवी की सहमति थी।

लालू से अनायास कुपित मीडिया ने उस समानांतर सत्ता को ‘जंगल राज’ का नाम दिया। लालू भी कुछ-कुछ निरकुंश या राजा सा व्यवहार करने लगे, बावजूद इसके एक छत्र सवर्ण नौकरशाही, अकादमिक और मीडिया को लालू यादव ने जितनी बड़ी चुनौती दी, वह भारतीय लोकतंत्र में विरल उदाहरण है। इसी से जुड़ी लालू की चूक यह भी रही कि उन्होंने इन ताकतों को चुनौती तो दे दी लेकिन उसके समानांतर कोई संस्था नहीं खड़ा कर पाए।

थोड़ा-बहुत अगर उनका कंट्रोल था तो वह सिर्फ नौकरशाही थी, जिसमें दलितों और पिछड़ों का उनको सहयोग था। नौकरशाही से जुड़ी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि तब तक मंडल की राजनीति तो चल निकली थी लेकिन मंडल से नियुक्त नौकरशाह विभाग में आ नहीं पाए थे और अगर आए भी थे तो उनकी संख्या सीमित थी।

ऐसा भी नहीं है कि लालू यादव ने सबकुछ अच्छा ही किया। राजसत्ता चलाने में उनसे भी कई गलतियां हुईं। लेकिन उनकी सबसे बड़ी परेशानी यह भी रही कि समय से बहुत आगे उन्हें सोचने का अवसर नहीं मिला। मुख्यमंत्री बनने के बाद का दूसरा कार्यकाल आते-आते चारा घोटाला के मामले सामने आने लगे। अगले कार्यकाल में जब वे सामाजिक न्याय के एजेंडे को बेहतर ढ़ंग से लागू करते तब उनकी पूरी ऊर्जा किसी तरह चारा घोटाला से बचने की हो गयी। और हमें एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि जब लालू यादव अपने शबाब पर थे तो नौकरशाही को भले ही उन्होंने नियंत्रित कर लिया था (वैसे अधिकांश सवर्ण नौकरशाह खिलाफ थे और कई सवर्ण नौकरशाह बिहार के बंटवारे के समय झारखंड जाना मुनासिब समझे), मीडिया, न्यायपालिका और बुद्धिजीवी पूरी तरह लालू के खिलाफ थे जो मोदी से लेकर योगी और नीतीश की सरकार में पूरी तरह नियत्रंण में हैं। मीडिया, न्यायपालिका और बुद्धिजीवियों ने लालू के खिलाफ अभियान ही छेड़ रखा था जबकि आज बिहार या देश के आंकड़ों पर नजर डालें तो लालू-राबड़ी के समय के बिहार से कई गुणा भयावह है! फिर भी जंगल राज की उपाधि मीडिया ने सिर्फ लालू-राबड़ी के शासन काल को दिया!

सवाल है कि लालू यादव को वर्तमान समय में कैसे देखें।  इस पर एक कहानी हमारे किशोर वय की है जब हम हाई स्कूल में पढ़ते थे। हमारे एक शिक्षक थे, थे तो वह गणित के विद्वान लेकिन सामाजिक दृष्टि बहुत साफ थी। उनका कहना था, “क्या तुम लोगों को पता है कि मजनूं लैला से बेहद मुहब्बत करता था जबकि लैला बहुत खूबसूरत नहीं थी, और तो और- उनके चेहरे पर चेचक का दाग भी था! अब तुम्हारा सवाल हो सकता है कि फिर मजनूं लैला को इतनी मोहब्बत क्यों करता था? क्योंकि लैला से इतनी बेपनाह मोहब्बत करने के लिए मजनूं जैसी आंखों की जरूरत है!”

लालू यादव को मोहब्बत करने वालों के लिए लालू को देखने का नजरिया विकसित करना होगा अन्यथा वे भी सवर्ण जातिवादियों की तरह उनसे घृणा करते रहेंगे! आखिर पिछले तीस वर्षों से मुख्यधारा का कौन सा ऐसा राजनेता है जिसका धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और भारतीय संविधान के प्रति इतना अटूट विश्वास है! जो इन तीनों का मतलब जान जाएगा उसके लिए लालू को समझना आसान हो जाएगा। लेकिन आज भी उन्हें सवर्ण भारतीय मीडिया, बुद्धिजीवियों और थिंक टैंक सबसे घृणित राजनेता ही नहीं बल्कि व्यक्ति के रुप में चिन्हित व परिभाषित करता है! 

(लेखक जितेंद्र कुमार लालू यादव की बायोग्राफी पर काम कर रहे हैं।)

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