महंगाई, बेरोजगारी और शिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दाें पर राजनीतिक दल जनता का साथ क्यों नहीं देते? इन मुद्दों को क्यों नहीं उठाते? इन पर बात क्यों नहीं करते? यदि इन मुद्दों को नहीं उठाया जाएगा तो फिर हालात कैसे सुधरेंगे? जनता को राहत कैसे मिलेगी? क्या हमारे राजनेता जननायक बन कर जनता के असली हीरो बनने की ओर कदम उठाएंगे?
महाराष्ट्र में चुनाव, झारखंड में चुनाव, उत्तर प्रदेश में लोकसभा उपचुनाव यानी माहौल चुनावी है, दंगल ये चुनावी है। विभिन्न राजनीति दल ताल ठोंक रहे हैं, अपने-अपने दांव-पेंच चल रहे हैं। झारखंड में तो भाजपा का एजेंडा क्लीयर है। वह घुसपैठियों को झारखंड से भगाएगी।
लव जिहाद और लैंड जिहाद का का अंत करेगी। आदिवासियों को छोड़कर बाकी सब पर सीएए लागू करेगी। सोचने की बात यह है कि झारखंड की सीमा तो किसी विदेशी सीमा से नहीं लगती।
फिर केन्द्र सरकार, सीमा सुरक्षा बलों के बावजूद बांग्लादेशी और अन्य बाहरी लोग झारखंड में कैसे घुसपैठ कर गए? खैर, भाजपा को ये झारखंड के बुनियादी मुद्दे लग रहे हैं। पर सब जानते हैं कि झारखंड आदिवासियों का राज्य है। वहां के मूल मुद्दे जल, जंगल और जमीन हैं। पर उन पर भाजपा का फोकस नहीं है।
अब देखना यह होगा कि यहां भाजपा क्या साम, दाम, दंड, भेद अपनाती है और कैसे जीत हासिल करती है। हालांकि उन्होंने चंपई सोरेन को तोड़कर भाजपा में शामिल कर ही लिया है। राष्ट्रीय स्वय सेवक संघ (आरएसएस) भाजपा की कितनी मदद कर पाएगा, यह देखने की बात होगी।
झारखंड मुक्ति मोर्चा(जेएमएम) के हेमंत सोरेन हालांकि जमीन से जुड़े नेता हैं। पर देखना यह होगा कि क्या वे भाजपा के विभिन्न दांव-पेचों की काट कर पाएंगे?
दूसरी ओर, महाराष्ट्र के चुनाव में भाजपा का नारा जो कि उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा दिया गया है- ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ हाईलाईट हो रहा है। यहां आरएसएस भाजपा के लिए बड़ा काम कर रहा है। महाराष्ट्र में संघ भाजपा को मजबूत करने के लिए जी-जान से लगा है।
यह उसकी साख का भी सवाल है। क्योंकि उसका मुख्यालय महाराष्ट्र के नागपुर में है। संघ राज्य में पचास हजार स्थानों पर छोटी-छोटी बैठकें कर जन जागरण का काम कर रहा है। हर बैठक में 50 से 200 लोग शामिल हो रहे हैं।
इन दिनों संघ ‘पंच परिवर्तन’ से हिंदू समाज को जोड़ रहा है। परिवार, पर्यावरण, स्वदेशी, समरसता और नागरिक कर्तव्य इन पांच बदलावों (पंच परिवर्तनों) को लेकर संघ हिंदुओं को जोड़ने की मुहिम चला रहा है ताकि भाजपा को वोट मिलें, मजबूती मिले ओर वह जीते।
महाराष्ट्र में कांग्रेस का जितनी मेहनत करनी चाहिए उतनी लग नहीं रही है। पर गठबंधनों का परफोरमेंस अच्छा रहा तो उसका पलड़ा भारी हो सकता है। महायुति अघाड़ी और महाविकास अघाड़ी का अलग मुकाबला है। रांकांपा के शरद पवार की साख भी दांव पर है।
उद्धव ठाकरे की शिवसेना और शिंदे शिवसेना में उद्धव ठाकरे की शिवसेना की इज्जत का भी सवाल है। देखना दिलचस्प होगा कि राजनीति का ऊंट महाराष्ट्र में किस करवट बैठेगा।
इधर उत्तर प्रदेश का नजारा भी कम दिलचस्प नही है। विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा यहां जो नारे लगाए जा रहे हैं वे बरबस ध्यान आकर्षित करते हैं। भाजपा का योगी जी द्वारा दिया गया ”बंटेंगे तो कटेंगे’ वाला नारा सर चढ़ कर बोल रहा है तो इसके बरक्स अखिलेश की समाजवादी पार्टी का नारा है ‘जुड़़गे ता जीतेंगे।’
योगी जी ने एक नारा और दिया है ‘एक रहोगे तो नेक रहोगे’ वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे इस तरह भी कहा हे कि ‘एक रहोगे तो सेफ रहोगे’। इस मामले में बसपा प्रमुख मायावती भी पीछे नहीं हैं।
उन्होंने नया नारा गढ़ा है- ‘बसपा से जुड़ेंगे तो आगे बढे़ंगे सुरक्षित रहेंगे’। सोशल मीडिया पर एक और नारा देखने को मिला- ‘बंटेंगे तो कटेंगे इसलिए हिंदू मुस्लिम में ना बंटें।’
हमारे लोकतांत्रिक देश का मौजूदा माहौल वाकई चिंता का विषय है। यहां हत्यारों को ग्लोरीफाई कर हीरो बनाया जा रहा है या कहें खलनायक को नायक बनाया जा रहा है। लोकतंत्र का चौथा खंभा जिसे मुख्यधारा का मीडिया कहा जाता है वह हिंदू-मुसलमान, हिंदुस्तान-खालिस्तान में उलझा हुआ है।
बुनियादी या जमीनी मुद्दे वहां सिरे से गायब हैं। वहां महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, शिक्षा व्यवस्था और लोगों के स्वास्थ्य पर बहस-विमर्श-चर्चा नहीं होती। इन मुददों पर सरकार से सवाल कर उसे कठघरे में खड़ा नहीं किया जाता है। आज का ये मीडिया सरकार का गोदी मीडिया बन गया है जो कि चिंता का विषय है।
सोशल मीडिया जैसे न्यूज पोर्टल जरूर उपरोक्त बुनियादी मुद्दों के साथ-दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और अन्य हाशिए के लोगों की आवाज़ उठा रहे हैं जो सराहनीय है।
लोकतंत्र का एक और खंभा यानी न्यायपालिका की स्थिति भी विचित्र है। सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ जिस प्रकार के बयान दे रहे हैंं और मोदी भक्त दिख रहे हैं, उससे न्याय पालिका का यह खंभा भी कमजोर हो रहा है।
हमारे लोकतांत्रिक देश में भारतीय निर्वाचन आयोग की भूमिका महत्वपूर्ण है। पर आज हमारा चुनाव आयोग जिस तरह की भूमिका निभा रहा है वह निराशाजनक है। वह सत्ताधारियों के इशारे पर काम कर रहा है। सत्ता के इशारों और उसकी सुविधानुसार चुनाव की तारीखों की घोषणा होती है।
उप्र के मिल्कीपुर की सीट पर अभी तक चुनाव की तारीख घोषित नहीं की गई है। एक जमाने में टी.एन. शेषन जैसे चुनाव आयुक्त हुए थे जिन्होंने चुनाव आयोग की मर्यादा रखी थी।
मीडिया, न्याय पालिका, चुनाव आयोग ये हमारे लोकतंत्र के स्वतंत्र खंभे हैं पर आजकल सत्ता के दबाब में नजर आते हैं।
चिंता का विषय यह भी है कि आज के राजनीतिक दल चुनावों में भी देश के जनता के बुनियादी मुद्दों को नहीं उठा रहे हैं। हिंदू-मुसलमान के नाम पर, धर्म और जाति के नाम पर जनता को बरगलाने का प्रयास कर रहे हैं। भाजपा तो ”एक राष्ट्र एक चुनाव’ का जुमला उछाल कर लोकतत्र को समाप्त कर तानाशाही शासन की ओर देश को ले जाना चाहती है।
बस एक बार चुनाव करा लो फिर पूरे पांच साल तक सरकार की तानाशाही या मनमानी। इसी सोच के साथ एक विशेष धर्म का राष्ट्र बनाने की सोच निश्चय ही हमारे लोकतंत्र और संविधान के लिए खतरनाक संकेत है। इस सोच का कार्यान्वयन न हो सके इसके लिए देश की जनता-जनार्दन का जागरूक और एकजुट होना बहुत जरूरी है।
जनता के शासन में जनता के मुददे ही चुनावों में प्रमुखता से उठाने चाहिए। आज के समय में जिस तेजी से महंगाई बढ़ी है लोगों की आय नहीं बढ़ी। यही कारण है कि महंगाई पर काबू प्रमुख मुद्दा होना चाहिए।
बेरोजगारी निरंतर बढ़ रही है। इसे नियंत्रित करने के लिए अधिक से अधिक रोजगारों का सृजन बड़ा मुद्दा होना चाहिए।
शिक्षा की व्यवस्था ऐसी है कि गरीब जनता उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रही है। अमीर लोग अच्छी शिक्षा प्राप्त कर आगे बढ़ रहे हैं। ‘एक राष्ट्र एक शिक्षा’ पर बात नहीं होती। आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग और डिसएडवांटेज ग्रुप के लिए शिक्षा का अधिकार कानून पब्लिक स्कूलों में सिर्फ आठवीं कक्षा तक ही शिक्षा की सिफारिश करता है।
उसके बाद यह वर्ग नौंवी से लेकर बारहवीं तक इन स्कूलों की महंगी फीस का कैसे प्रबंध करेगा, इस पर कोई नहीं सोचता। क्या इसे बारहवीं तक नहीं बढ़ाया जाना चाहिए? इस पर कोई ठोस शिक्षा नीति नहीं बनाई चाहिए?
जनता का स्वास्थ्य एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। जब व्यक्ति स्वस्थ ही नहीं होगा तो वह अपने परिवार का भरण-पोषण कैसे करेगा। पर सरकारी अस्पताल, जनस्वास्थ्य केंद्रों पर डॉक्टरों नर्सों का अभाव तो है ही साथ ही बुनियादी सुविधाएं व पर्याप्त औषधियां उपलब्ध नहीं होतीं।
ऊपर से डॉक्टरों-नर्सों से लेकर तमाम स्टाफ का व्यवहार जनता के प्रति प्राय: अच्छा नहीं होता।
इन बुनियादी मुद्दाें पर राजनीतिक दल जनता का साथ क्यों नहीं देते? इन मुद्दों को क्यों नहीं उठाते? इन पर बात क्यों नहीं करते? यदि इन मुद्दों को नहीं उठाया जाएगा तो फिर हालात कैसे सुधरेंगे? जनता को राहत कैसे मिलेगी? क्या हमारे राजनेता जननायक बन कर जनता के असली हीरो बनने की ओर कदम उठाएंगे?
(लेखक राज वाल्मीकि सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं।)
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