Tuesday, April 23, 2024

बंजर रेगिस्तान में वित्तमंत्री ने किया था हरियाली देखने का दावा: पी चिदंबरम

आखिरकार लगातार पिछले दो सालों यानी 2019-20 से ही सरकार की ओर से परोसी जा रही झूठी कहानी का भंडाफोड़ केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन (सीएसओ) ने कर दिया। एक स्तंभ में ये बेहद कठोर शब्द हैं, लेकिन सच्चाई इससे भी ज्यादा कड़वी है। एक बेपरवाह सरकार की उपेक्षा दरअसल उकसावे से भरी हुई है और लोगों की पीड़ा इतनी गहरी है कि इसने तल्ख शब्दों के इस्तेमाल के लिए मजबूर किया। मंशा किसी को अपमानित करने की नहीं है, बल्कि यह उन लोगों को जगाने के लिए जोर से आवाज लगाने की कोशिश है, जो सत्ता में हैं और जो सत्ता में बैठे लोगों का समर्थन कर रहे हैं।

सीएसओ की ओर से जारी 2020 की अप्रैल-जून की तिमाही (2020-21 की पहली तिमाही) के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का अनंतिम आकलन हमें एक गंभीर कहानी बताता है। इसके मुताबिक पहली तिमाही में जीडीपी में 23.9 फीसद की भारी गिरावट आई है।

इसका मतलब यह हुआ कि 30 जून, 2019 को जितना सकल घरेलू उत्पादन का लगभग एक चौथाई था, उतना पिछले बारह महीने के दौरान नष्ट कर दिया गया। यह ध्यान रखने की बात है कि जब उत्पादन गंवा दिया जाता है, तो उसे हासिल करने वाली नौकरियां भी खत्म हो जाती हैं, उन नौकरियों में होने वाली आय खत्म हो जाती है और उन आमदनियों पर निर्भर परिवार संकट में पड़ जाते हैं।

सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी) के आकलन के मुताबिक आर्थिक मंदी और महामारी के बीच बारह करोड़ दस लाख नौकरियां खत्म हो गईं। इनमें नियमित वेतन वाली नौकरियां, दिहाड़ी और स्वरोजगार से आमदनी वाले काम भी शामिल हैं। अगर आप इसकी हकीकत की पड़ताल करना चाहते हैं तो बस अपने आस पास नजर दौड़ाएं या फिर अपनी गली या पड़ोस के घरों में इससे संबंधित सवाल पूछें।

अप्रैल-जून, 2020 की अवधि में 23.9 फीसद की गिरावट के साथ (जी-20 देशों में) भारत सबसे बदहाल अर्थव्यवस्था बन गया। (स्रोत: आईएमएफ)

ईश्वर को दोष न दें

जिस अकेले क्षेत्र में स्थिति बेहतर हुई है, वह 3.4 फीसद के साथ कृषि, वानिकी और मत्स्य पालन है। वित्तमंत्री ने अर्थव्यवस्था की बदहाली के लिए ईश्वर की करनी (‘एक्ट आफ गॉड’) को जिम्मेदार बताया। जबकि सच तो यह है कि उन्हें किसानों और उन सभी भगवानों का कृतज्ञ होना चाहिए, जिन्होंने किसानों की मदद की। अर्थव्यवस्था के बाकी सभी क्षेत्रों में बहुत तेजी से गिरावट आई। विनिर्माण 39.3 फीसद, निर्माण 50.3 फीसद और कारोबार, होटल, परिवहन और संचार क्षेत्र 47.0 फीसद तक गिर गया।

जो लोग भारतीय अर्थव्यवस्था पर गहरी नजर रखते हैं, उन्हें इस आकलन के सामने आने से कोई हैरानी नहीं हुई है। फिलहाल हमारे पास एक आर्थिक त्रासदी है। कई अर्थशास्त्रियों ने यह पहले भी कहा है और हाल में आरबीआई ने पिछले हफ्ते जारी अपनी वार्षिक रिपोर्ट में भी यह कहा है। आरबीआई के मुख्य निष्कर्षों पर एक नजर डालें-

– अब तक जो प्रमुख संकेतक सामने आए हैं, वे गतिविधियों में कमी की ओर इशारा करते हैं, ऐसा इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ।

– जी-20 देशों के कुल प्रोत्साहन पैकेज (तरलता और राजकोषीय उपाय) औसतन जीडीपी का 12.1 फीसद (ईएमई यानी उभरती हुई बाजार व्यवस्था के लिए जीडीपी का 5.1 फीसद और विकसित अर्थव्यवस्थाओं के लिए 19.8 फीसद रहा। जबकि भारत का राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज लगभग 1.7 फीसद था।

– उपभोग के नजरिए से यह झटका जबर्दस्त है। इससे उबरने और कोविड-19 के पहले वाली रफ्तार में आने में कुछ ज्यादा वक्त लगेगा। और

– आरबीआई के एक सर्वे में शामिल ज्यादातर प्रतिभागियों ने असामान्य आर्थिक स्थिति, रोजगार, मुद्रास्फीति और आमदनी को लेकर भारी निराशा जाहिर की।

गिरावट तो पहले से

अन्य देशों के मुकाबले भारत की स्थिति थोड़ी अलग है, क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था में गिरावट कोविड-19 का पहला मामला सामने आने के पहले ही शुरू हो चुकी थी। गिरावट का यह दौर दरअसल, नोटबंदी के साथ शुरू हो गया था। 2018-19 और 2019-20 के दौरान आठ लगातार तिमाहियों में, हर तिमाही में जीडीपी 8.2 फीसद के उच्च स्तर से गिरती हुई 3.2 फीसद के निचले स्तर पर जा पहुंची। इसकी ओर न जाने कितनी बार इशारा किया गया, लेकिन सरकार इस बात का ढोंग रचती रही कि भारत ‘दुनिया में सबसे तेज उभरती हुई अर्थव्यवस्था’ है! और पानी के किसी निशान तक के बगैर ही एक बंजर रेगिस्तान में वित्तमंत्री और मुख्य आर्थिक सलाहकार ने हरियाली देख ली!

हम अब भी एक अंधेरी सुरंग में हैं। हालांकि कई अर्थशास्त्रियों का यह मानना है कि हमें इस मोड़ पर भी रास्ता मिल सकता है, बशर्ते सरकार इस गिरावट को रोकने के लिए मांग या उपभोग को मजबूत करने के लिए और उत्पादन और रोजगार को दोबारा जिंदा करने के लिए आवश्यक वित्तीय कदम उठाए। सबसे अहम बात है खर्च- यानी सरकारी एवं निजी उपभोग संबंधी खर्च। जब तक खर्च के लिए पैसे मिलते रहें, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि किस मद में, किस तरह से कितना खर्च किया जा रहा है।

सरकार कई स्रोतों से धन उगाह सकती है – विनिवेश के जरिए, एफआरबीएम अधिनियम के तहत सीमाओं में ढील देते हुए अधिक उधारी के जरिए, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक समूह, एशिया विकास बैंक और अन्य एजेंसियों द्वारा महामारी से लड़ने के लिए दी जाने वाली सहायता राशि (6.4 बिलियन डॉलर) के इस्तेमाल के जरिए और अंतिम उपाय के तौर पर घाटे को पाटने के लिए नकदीकरण के जरिए।

तीन साहसिक कदम

इन पैसों का एक हिस्सा हर हाल में नकद के रूप में गरीबों को हस्तांतरित किया जाए, एक हिस्सा बुनियादी ढांचे में सरकारी पूंजीगत खर्च के लिए इस्तेमाल हो, एक हिस्सा जीएसटी क्षतिपूर्ति अंतर को पाटने के लिए उपयोग किया जाए, कुछ हिस्सा बैंकों में और पूंजी डालने और उन्हें कर्ज देने में सक्षम बनाने के लिए उपयोग किया जाए। एक बार मांग क्षेत्र में फिर से जीवन का संकेत दिखने के बाद धनी और सक्षम निजी कॉरपोरेट फिर से निवेश और उत्पादन करने लगेंगे।

अगला साहसी कदम यह कि खाद्यान्नों के अतिरिक्त भंडार को गरीब परिवारों तक पहुंचाया जाए और बड़े पैमाने पर सार्वजनिक कार्यों को शुरू करने के लिए मजदूरी के तौर पर उपयोग में लाया जाए। इस वर्ष अपेक्षा के मुताबिक खाद्यान्नों के रेकार्ड उत्पादन की वजह से अनाजों के भंडार जल्दी ही दोबारा भर जाएंगे।

तीसरे कदम के तौर पर राज्यों तक शक्तियों का विकेंद्रीकरण किया जाए और उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाया जाए। केंद्र द्वारा कृषि उत्पादों के विपणन, आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति के नियमन और जिला, केंद्र और शहरी कोआपरेटिव बैंकों को नियंत्रित करने के मामले में गलत समय पर हस्तक्षेप के प्रयास को बंद किया जाना चाहिए। ‘एक देश और सब कुछ एक’ का खयाल एक निहायत ही बुरा विचार है।

मेरे इन प्रस्तावों में दो अज्ञात कारक नहीं हैं- एक महामारी की स्थिति और चीन की नीयत- क्योंकि, जैसा कि मैंने लिखा, ये दोनों तथ्य अनजाने बने हुए हैं।

(इंडियन एक्सप्रेस में ‘अक्रॉस दि आइल’ नाम से छपने वाला, पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता, पी चिदंबरम का साप्ताहिक कॉलम। जनसत्ता में यह ‘दूसरी नजर’ नाम से छपता है। हिन्दी अनुवाद जनसत्ता से साभार।)

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