Thursday, April 25, 2024

जॉर्ज फ्लॉयड हत्या मामले में हुआ इंसाफ

अमेरिका की एक अदालत ने जॉर्ज फ्लॉयड हत्या मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए मिनियापोलिस के पूर्व पुलिसकर्मी डेरेक शॉविन को हत्या का गुनहगार क़रार देते हुए, 22 साल 6 महीने जेल की सजा सुनाई है। अमेरिका में अश्वेत शख्स की हत्या के मामले में किसी पुलिस अधिकारी को दी गई, अब तक कि यह सबसे लंबी अवधि वाली जेल की सजा है। न्यायाधीश पीटर काहिल ने राज्य के दिशा निर्देशों से ऊपर उठकर, इसके तहत तय बारह साल छह महीने की सजा से अधिक की सजा सुनाई और शॉविन को अपने अधिकार और ओहदे के दुरुपयोग तथा फ्लॉयड के प्रति क्रूरता दिखाने का गुनहगार पाया। इसी साल अप्रैल में 12 सदस्यीय संघीय ग्रांड जूरी ने डेरेक शॉविन को अफ्रीकी मूल के अमेरिकी जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या मामले में सभी तीन इल्जामों सेकेंड डिग्री गैर इरादतन हत्या, थर्ड डिग्री हत्या और सेकेंड डिग्री हत्या का मुज़रिम ठहराया था।

जिस जूरी ने यह अहमतरीन फैसला सुनाया, उसमें छह श्वेत और उतने ही अश्वेत या बहुजातीय समुदाय के मेंबर शामिल थे। संघीय ग्रांड जूरी के फैसले का अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी उस वक्त स्वागत करते हुए यह बात ईमानदारी से कबूली थी, ‘‘नस्लवाद हमारे देश की आत्मा पर एक दाग है। अश्वेत अमेरिकियों के लिए न्याय की गर्दन पर रखा गया घुटना। अत्यंत भय और आघात। दर्द और पीड़ा जो अश्वेत एवं काले अमेरिकियों को हर दिन सहनी पड़ती है।’’ बहरहाल अदालत के इस फैसले का सिर्फ अमेरिका में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के इंसाफपसंदों और इंसानियत की आला कद्रों पर यकीन रखने वालों ने स्वागत किया है।

फैसले से उन लोगों की जीत हुई है, जो अमेरिकी समाज में सबसे ज्यादा दबे-कुचले हैं। समाज में हाशिए पर हैं। अमेरिका में नस्लभेद एक बड़ी समस्या है। जहां पूरा समाज गोरों और कालों के बीच बंटा हुआ है। इस फैसले से अमेरिकी समाज में रातों-रात कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा, इसकी तवक्को करना अभी जल्दबाजी होगी। कालों के बीच समानता की चाह और इसे पाने के लिए संघर्ष, बरसों पुराना है। लेकिन इस जीत ने उन लोगों में हौसला बंधाया है, जो दशकों से अश्वेतों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं।
     
गौरतलब है कि 46 साल के अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की मौत पिछले साल मई में गिरफ्तारी के दौरान हुई थी। श्वेत अधिकारी डेरेक शॉविन ने मिनियापोलिस में फ्लॉयड के प्रति क्रूरता से बर्ताव करते हुए, उसकी गर्दन पर अपने घुटने से नौ मिनट से ज्यादा वक्त तक दबाव बनाकर, उसे जमीन पर गिराए रखा था। जबकि वह बार-बार कहता रहा कि उसे सांस लेने में तकलीफ हो रही है। बहरहाल, इस पूरी घटना का वीडियो वायरल होने पर, पूरे अमेरिका में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ के प्रदर्शन भड़क उठे थे। कई जगह हिंसक प्रदर्शन हुए। तकरीबन 40 शहरों में कर्फ्यू लगाया गया। प्रदर्शन इतने अनियंत्रित हो गए कि पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को अपनी जान बचाने के लिए व्हाइट हाउस के बंकर में आसरा लेना पड़ा। प्रदर्शन जब ज्यादा बढ़े, तो डोनाल्ड ट्रंप सरकार को डेरेक शॉविन को गिरफ्तार करना पड़ा।

यही नहीं उन तीन दीगर पुलिस अफसरों को भी बर्खास्त कर दिया गया, जो घटनास्थल पर मौजूद थे। अमेरिकी अवाम के विरोध प्रदर्शन में एक ऐसे पुलिस सुधार का आह्वान किया गया, जिसमें सभी पुलिसकर्मी उच्च मानदंड पर खरा उतरें। जनता का दबाव रंग लाया और इसके बाद अमेरिका के कई राज्यों और शहरों ने पुलिस द्वारा नागरिकों पर किसी भी तरह के शारीरिक बल के इस्तेमाल को प्रतिबंधित कर दिया। यहां तक कि पुलिस में अनुशासनात्मक प्रणाली अपनाने की वकालत की गई। पुलिस विभाग के कामों की निगरानी की गई।

अमेरिका का इतिहास नस्लभेद की शर्मनाक वाकिआत से भरा हुआ है। जहां गोरे लोगों द्वारा अश्वेत अमेरिकियों को इंसान नहीं समझा जाता। अफ्रीकी-अमेरिकी अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ कानून प्रवर्तन एजेंसियां आए दिन भेदभाव और उनके साथ अत्याचार करती हैं। कालों के प्रति बैर, पक्षपात और घृणा सिर्फ पुलिस अधिकारी या डिस्ट्रिक्ट अटॉर्नी या जज ही नहीं रखते, बल्कि स्कूल-कॉलेजों में भी उनके साथ भेदभावपूर्ण बर्ताव होता है। मुख्तलिफ महकमों में नौकरी में रखते हुए, कालों के प्रति एक पूर्वाग्रह होता है। उनको शक की निगाह से देखा जाता है। गोया कि यह नस्लभेद अमेरिका में रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है। जिससे निपटना किसी भी सरकार के लिए आसान काम नहीं। बरसों से मानवाधिकार कार्यकर्ता अमेरिकी पुलिस अफसरों खास तौर से श्वेत समुदाय के लिए एक ऐसी ट्रेनिंग की मांग कर रहे हैं, जिससे वे अश्वेतों के प्रति समानता और संवेदनशीलता के साथ बर्ताव करें।

बर्लिन की दीवार पर जार्ज की पेंटिंग।

यही नहीं दशकों से पुलिस और डिस्ट्रिक्ट अटॉर्नी के कामकाज की निगरानी और सख्त गन लॉ के लिए स्वतंत्र निगरानी तंत्र की भी मांग हो रही है। बावजूद इसके अब तक इन मामलों में ना के बराबर प्रगति हुई है। लाख कोशिशों के बाद भी गोरों की मानसिकता में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा के दो कार्यकालों के बाद भी अमेरिका में जिस तरह का नस्लभेद दिखाई देता है, वह अमेरिकी समाज की बड़ी समस्या की ओर ध्यान इंगित करता है। ऊपर से समृद्ध, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील दिखने वाले अमेरिकी समाज में भयानक अंतर्विरोध और विभाजन मौजूद है। जो जब-तब सतह पर आज जाता है।

सच बात तो यह है कि अमेरिका की समृद्धि में अश्वेतों की हिस्सेदारी बेहद कम है। गोरों के मुकाबले उन्हें कम तनख्वाह मिलती है। ज्यादातर अश्वेतों को खुद को बेहतर बनाने के मौके नहीं मिलते। उन्हें अपने बच्चों को दोयम दर्जे के स्कूलों में पढ़ने भेजना होता है। श्वेतों के मुकाबले उनकी जीवन प्रत्याशा कम है। बिना किसी अपराध के उन्हें जेल जाना होता है। छोटे अपराध में भी उन्हें लंबी सजा भोगना होती है। ये सब उनके साथ इसीलिए होता है कि वे गोरे नहीं हैं। संविधान द्वारा समान अधिकार दिए जाने के बाद भी वे अपने ही देश में सेकेंड क्लास सिटीजन हैं।
नस्लभेद की समस्या अकेले अमेरिका में ही नहीं है, बल्कि फ्रांस, ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका, न्यूजीलैंड और ब्राजील जैसे कई विकसित देशों में भी इस समस्या का भयावह रूप दिखलाई देता है। अश्वेत लोगों के प्रति पश्चिमी समाजों की मानसिकता और भेदभावपूर्ण रवैया कमोबेश एक जैसा है। उनमें ज्यादा फर्क नहीं है। इस मानसिकता के पीछे कुछ ऐतिहासिक घटनाएं जिम्मेदार हैं। गुलामी और उपनिवेशवाद की साम्राज्यवादी मानसिकता से यह देश आज भी नहीं उबर पाए हैं। यहां स्कूली पाठ्यक्रमों और मीडिया में नस्ल के प्रति लोगों के नजरिए को बदलने के लिए ईमानदार कोशिशें नहीं हुई हैं।

जॉर्ज फ्लॉयड की दर्दनाक मौत ने एक बार फिर पूरी दुनिया को संस्थागत और ढांचागत नस्लवाद की याद दिलाई। इस घटना ने बतलाया कि अमेरिकी समाज में अश्वेतों के प्रति घृणा, भेदभाव और नाइंसाफी किसी ना किसी रूप में हर जगह मौजूद है। जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद, अच्छी बात यह हुई कि पूरे अमेरिका में स्वतः स्फूर्त ढंग से नस्लभेद के खिलाफ एक अभियान छेड़ दिया गया। अमेरिका में शुरू हुई ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ की मुहिम दुनिया के 60 देशों तक पहुंची और नस्लभेद के खिलाफ व्यापक प्रदर्शन हुए। जॉर्ज फ्लॉयड मामले में अमेरिका की संघीय ग्रांड जूरी ने जो इंसाफ किया है, यह इंसाफ तब तक अधूरा है, जब तक अमेरिकी समाज में वास्तविक न्याय की धारणा मजबूत नहीं हो जाती। समाज में सबके लिए खास तौर से अश्वेतों को न्याय नहीं मिल जाता। उनके साथ नस्लभेद, गैर बराबरी, नाइंसाफी, घृणा और हेट क्राइम की घटनाएं नहीं रुक जातीं।

(जाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार हैं और साहित्यिक क्षेत्र में भी अच्छी दखल रखते हैं।)

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