सूबों में सबसे सुशासित केरल और सबसे कुशासित उत्तर प्रदेश: रिपोर्ट

Estimated read time 1 min read

‘जन मामलों का सूचकांक 2020’ जारी हो गया है। इस सूचकांक के अनुसार बड़े राज्यों में से सबसे सुशासित राज्य केरल और सबसे कुशासित राज्य उत्तर प्रदेश है। इस सूची के बड़े राज्यों की श्रेणी में पहले स्थान पर केरल, दूसरे पर तमिलनाडु, तीसरे पर आंध्र प्रदेश, चौथे पर कर्नाटक और पांचवें पर छत्तीसगढ़ है, जबकि सबसे निचली पायदान पर उत्तर प्रदेश, उससे ऊपर उड़ीसा, बिहार, झारखंड और हरियाणा हैं। इस तरह से हम देखते हैं कि जहां दक्षिण के राज्य सर्वाधिक सुशासित हैं, वहीं उत्तर की गाय-पट्टी के राज्य सर्वाधिक कुशासित हैं। 

इन आंकड़ों को ‘जन मामलों का केंद्र’ (पब्लिक अफेयर्स सेंटर) नामक एक गैर लाभकारी संगठन तैयार करता है। इस संगठन के अध्यक्ष ‘इसरो’ (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) के पूर्व अध्यक्ष के. कस्तूरीरंगन हैं। हर साल सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के पचास संकेतकों के आंकड़ों के आधार पर तीन बुनियादी पैमाने तैयार किए जाते हैं, ये हैं- न्यायसंगतता, वृद्धि और निरंतरता (इक्विटी, ग्रोथ और सस्टेनेबिलिटी)। यही पैमाने किसी राज्य के टिकाऊ विकास तथा उसके कामकाज और उसके प्रदर्शन को मापने और उसके सुशासन के स्तर के मूल्यांकन का आधार बनते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि विकास के लिहाज से यह बात स्वयंसिद्ध है कि इन तीनों पायों- न्यायसंगतता, वृद्धि और निरंतरता में उचित तालमेल होना जरूरी है, अन्य़था इनमें से किसी भी एक के बिना शेष दोनों अपर्याप्त हैं।

यह रिपोर्ट तीन श्रेणियों में तैयार की जाती है। पहली श्रेणी में बड़े राज्यों को रखा जाता है, जिनकी आबादी 2 करोड़ से ज्यादा होती है। दूसरी श्रेणी में छोटे राज्यों और तीसरी श्रेणी में केंद्र शासित प्रदेशों के सुशासन का मूल्यांकन रहता है। इस बार छोटे राज्यों में सर्वाधिक सुशासित गोवा, और उससे नीचे क्रमशः मेघालय, हिमाचल प्रदेश और सिक्किम हैं, जबकि सर्वाधिक कुशासित मणिपुर और उससे थोड़े-थोड़े बेहतर क्रमशः दिल्ली, उत्तराखंड और नगालैंड हैं।

केंद्र शासित प्रदेशों में सर्वाधिक सुशासित चंडीगढ़ और सर्वाधिक कुशासित दादरा और नगर हवेली है।

इन आंकड़ों को जारी करते समय डॉ. कस्तूरीरंगन ने कहा कि ‘जन मामलों के सूचकांक 2020’ द्वारा प्रस्तुत प्रमाण और अंतर्दृष्टि का महत्व तभी है जब यह हमें ऐसे कदम उठाने को मजबूर करे जो उस आर्थिक और सामाजिक संक्रमण में प्रतिबिंबित हों जिसके दौर से भारत आज गुजर रहा है।

1980 के दशक में प्रसिद्ध भारतीय जनसांख्यिकीविद आशीष बोस ने उत्तरी भारत के चार राज्यों का ‘बीमारू राज्य’ के रूप में नामकरण किया था। यह नामकरण इन राज्यों (बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश) के अंग्रेजी नामों के शुरुआती अक्षरों को मिलाकर किया गया था। बाद में उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड, बिहार से झारखंड और मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ निकले, लेकिन उत्तराखंड भी छोटे राज्यों की श्रेणी में कुशासित बना हुआ है और झारखंड अभी भी अपने मातृ राज्य बिहार की दशा से बाहर नहीं निकल पाया है, जबकि छत्तीसगढ़ सबसे सुशासित बड़े राज्यों में पांचवीं पायदान पर है और बीमारू के ठप्पे से मुक्त हो चुका है। 

आखिर क्या कारण है कि ‘गाय पट्टी’ के इन राज्यों की नियति जस की तस बनी हुई है। आर्थिक विकास और स्वास्थ्य सेवाओं के सभी मापदंडों के मामले में दक्षिणी राज्यों की तुलना में इन राज्यों की दयनीय स्थिति किसी से छिपी नहीं है। 

जनवरी, 2009 में तत्कालीन उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने राज्यों की स्वास्थ्य सुविधाओं में भारी अंतर पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि आप किस राज्य में पैदा हुए हैं, इसी से तय हो जाता है कि आप कितने साल जीएंगे। पैदा होने के समय जीवन प्रत्याशा उत्तर प्रदेश में 56 साल है जबकि केरल में 74 साल है। ये 18 साल आपका राज्य आपसे छीन लेता है। हामिद अंसारी उस समय लखनऊ में छत्रपति शाहूजी महाराज मेडिकल कॉलेज के दीक्षांत समारोह में बोल रहे थे।

उन्होंने बताया कि स्वास्थ्य मानकों की गिरावट ने गरीबों की जिंदगी को तबाह कर दिया है। केरल में 85 प्रतिशत महिलाओं की प्रसवपूर्व देखभाल होती है जबकि यूपी में मात्र 11 प्रतिशत की, केरल में 96.6 प्रतिशत प्रसव अस्पतालों में होते हैं जबकि यूपी में मात्र 11.3 प्रतिशत। उन्होंने उत्तर प्रदेश में महिलाओं में रक्ताल्पता तथा बाल टीकाकरण की दयनीय स्थिति के आंकड़े भी पेश किए, और जैसा कि हमेशा होता है, सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े तमाम लोगों को उनकी बातें बहुत चुभी थीं और बाद में उनकी काफी आलोचना की गई।

डॉ. कस्तूरीरंगन की टिप्पणी भी इसी तरफ इशारा करती है कि ‘जन मामलों का सूचकांक 2020’ के ये आंकड़े तो केवल हालत का बयान करते हैं, ये आंकड़े तब तक बेमानी हैं जब तक योजना बनाने वाले और लागू करने वाले लोग इन आंकड़ों का इस्तेमाल करते हुए आवश्यक कदम उठाने और हर हाल में हालात को बदलने की प्रतिबद्धता के साथ जमीन पर ठोस परिणाम नहीं दिखाते हैं।

लेकिन सच्चाई यही है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व जिस तरह से सत्ता को बरकरार रखने और उस पर अधिक से अधिक कब्जा बढ़ाते जाने के लिए हर तरह के हथकंडे इस्तेमाल करने में लगा हुआ है अगर उस कोशिश का सौवां हिस्सा भी वह इन राज्यों में उद्योग-धंधे, कृषि तथा अन्य आर्थिक संरचनाओं को बढ़ाने तथा उन्नत करने, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के आधारभूत ढांचे के निर्माण और सुदृढ़ीकरण में खर्च करता तो इन राज्यों की तकदीर बदल जाती। लेकिन हो इसका उल्टा ही रहा है। वर्तमान सत्ता-कॉरपोरेट गठजोड़ जिस तरह से सभी जन सुविधाओं को खरीद-फरोख्त का माल बनाने में लगा हुआ है उसके कारण ये सुविधाएं कमजोर वर्गों की पहुंच से दिनोंदिन और दूर होती जा रही हैं।

अब तो मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा भी निरंतर कमजोर वर्गों की नियति की ओर खिसकता जा रहा है। एक तरफ रोजगार के छिनते जाने और श्रम कानूनों में पूंजी-हितैषी तथा मजदूर-विरोधी संशोधन होते जाने के कारण रोजगार की परिस्थितियों के कठिन होते जाने, तथा दूसरी तरफ सबके लिए सुलभ सार्वजनिक सुविधाओं के महंगा होते जाने के कारण मध्य वर्ग भी दोहरी मार का शिकार हो रहा है।

इस सबके बावजूद जब तक हमारा राजनीतिक नेतृत्व इस गाय-गोबर पट्टी की आबादी के बड़े हिस्से को भावनात्मक मुद्दों के इर्द-गिर्द बरगलाने, नफरत पैदा करने, फूट डालने तथा संगठित और आंदोलित करने में सफल रहेगा तब तक सार्वजनिक सुविधाएं व सहूलियतें जनता की मांग का हिस्सा नहीं बन पाएंगी।

बंटी हुई जनता को जीवन को बेहतर बनाने वाले मुद्दों से भटकाना आसान होता है। बंटी हुई जनता सत्ता को निरंकुश बनाने में मददगार होती है। अभी इन उत्तरी राज्यों में जनता की एकजुटता को बढ़ाने वाले आंदोलनों तथा अभियानों का बेहद अभाव है। आत्ममुग्ध और जनविमुख सत्ता की निश्चिंत निद्रा को ऐसे आंदोलन ही झिंझोड़ सकते हैं। ‘जन मामलों का सूचकांक 2020’ के आंकड़ों का महत्व तभी है जबकि उत्तरी भारत के इन राज्यों को सुशासन की ओर बढ़ने के लिए यहां की जनता खुद ही मजबूर कर दे।

(शैलेश लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author