Tuesday, April 23, 2024

विशेष आलेख: स्वतंत्र स्त्री और आवारा पूंजी

सिद्धार्थ वशिष्ठ उर्फ मनु शर्मा सुपुत्र विनोद शर्मा (भूतपूर्व नेता कांग्रेस) को प्रसिद्ध मॉडल जेसिका लाल हत्या कांड (1999) में उम्र कैद की सज़ा (2006) सुनाई गई थी। मगर 14 साल बाद ही मनु शर्मा को दिल्ली के उप-राज्यपाल ने ‘विशेषाधिकार’ इस्तेमाल करते हुए, अच्छे चाल-चलन के आधार पर सज़ा पूरी होने से पहले ही रिहा करने का आदेश (जून 2020) दिया है। इससे पहले (दिसंबर 2018) नैना साहनी (तंदूर कांड) के हत्यारे सुशील शर्मा (भूतपूर्व प्रधान युवक कांग्रेस) को भी रिहा कर दिया गया था।

मनु शर्मा को इस तरह रिहा करने पर, व्यापक विरोध सोशल मीडिया में देखा जा सकता है। सवाल उठ रहे हैं कि यह कैसी न्यायिक व्यवस्था है, जहाँ सारे ‘विशेषाधिकार’ साधन संपन्न व्यक्ति के लिए सुरक्षित हैं और हज़ारों निर्दोष गरीब (विचाराधीन कैदी) पर्याप्त कानूनी मदद के अभाव में जेलों में बंद हैं। ‘रूदुल शाह’ जैसे लोगों को, रिहाई के बावजूद, सालों तक रिहा नहीं किया जाता। दलित नरसंहारों में किसी को सज़ा नहीं। सभी हत्यारे बाइज्ज़त रिहा हो चुके हैं। 

थोड़ा अतीत में झाँक कर देखें तो बीसवीं सदी के अंतिम दशक और इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में नैना साहनी (1995), प्रियदर्शन मट्टू (1996), जेसिका लाल (1999), शिवानी भटनागर (1999), नीतीश कटारा (2002) और मधुमिता शुक्ला (2003) हत्या कांड प्रमुख चर्चित मामले रहे हैं। हत्या के इन चार मामलों में दो शर्मा (ब्राह्मण) और दो मामलों में यादव समुदाय के सम्मानित परिवारों से जुड़े हैं, जिनका सत्ता वर्चस्व में शिखर तक संवाद था/है। 

जेसिका लाल 1999 

उल्लेखनीय है कि सेशन कोर्ट ने सबूतों के अभाव में मनु शर्मा और अन्य अभियुक्तों को (2006) बाइज़्ज़त बरी कर दिया था। रिहाई के बाद जनाक्रोश फूट पड़ा था। ‘क्या किसी ने भी जेसिका को नहीं मारा’? दिल्ली हाई कोर्ट ने उम्र कैद की सज़ा (2006) सुनाई थी। दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। मगर मनु शर्मा के वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी की बहस सुनने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने भी सज़ा के सवाल पर हस्तक्षेप करने से मना कर दिया था। आश्चर्यजनक है कि 2006 से 2020 के दौरान मनु शर्मा कितनी ही बार पैरोल और फर्लो पर जेल से बाहर रहे।

तंदूर काण्ड 1995  

दिल्ली की गोल मार्केट के फ्लैट में नैना साहनी की गोली मार कर हत्या की गई और लाश अशोक यात्री निवास की बगिया के तंदूर में झोंक दी गई। 2-3 जुलाई, 1995 की यह दुर्घटना अगले दिन अखबारों के पहले पेज की ख़बर थी। उस समय का सबसे सनसनीखेज़ हत्याकांड। कई दिनों तक ख़बरों और सम्पादकीय पन्नों पर सुलगता रहा यह सामाजिक, न्यायिक और राजनीतिक तंदूर। नैना की लाश तक लेने कोई आगे नहीं आया। उन दिनों एक लेख लिखा था ‘कितनी है बदनसीब नैना कफ़न के लिए’ जो एक राष्ट्रीय अखबार में प्रकाशित भी हुआ था। दरअसल यह मामला भारतीय समाज में स्त्री को तंदूर में भूनने की प्रतीकात्मक घटना या दु:स्वप्न था, जिसने सबके चेहरे बेनक़ाब कर दिए।     

खैर…नैना साहनी (तंदूर काण्ड) की हत्या के अपराध में अभियुक्त सुशील कुमार शर्मा को सेशन (2003) और दिल्ली हाई कोर्ट ने (2007) फाँसी की सज़ा सुनाई थी। मगर (2013) सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों ने फाँसी की सज़ा को उम्र कैद में बदल दिया। फिर एक दिन (2018) दिल्ली हाई कोर्ट ने अच्छे चाल चलन के आधार पर सुशील को सरकार द्वारा रिहा ना करने के फैसले को गलत ठहराया और उसे रिहा कर देने का आदेश सुना दिया। इस तरह अपने समय के सबसे बर्बर हत्या कांड का अपराधी, जेल की सलाखों से बाहर घूम रहा है। वह ऐसा पहला और अंतिम व्यक्ति नहीं है। सवाल उठता है कि जब सेशन और हाई कोर्ट ने सज़ा-ए-मौत का फैसला सुनाया था, तो सुप्रीम कोर्ट ने आजीवन कारावास में क्यों बदल दिया? क्या सज़ा कम करने के आधार तर्क (न्यायिक सहानुभूति) उचित थे?

माननीय न्यायमूर्तियों ने अपने निर्णय के पैरा 82 में लिखा है:-

“मृतक एक योग्य पायलट और युवा कांग्रेस (गर्ल्स विंग), दिल्ली राज्य की महासचिव भी थी। वह एक स्वतंत्र महिला थी, जो अपने फैसले खुद लेने में सक्षम थी। रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्यों से यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपने घर की चार दीवारी से बाहर के लोगों संपर्क में नहीं थी। साक्ष्य बता रहे हैं कि घटना की तारीख पर भी लगभग 4.00 बजे, उसने मतलूब करीम से संपर्क किया था। वह एक गरीब, अनपढ़, असहाय महिला नहीं थी। मृतक की सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए, कहना कठिन है कि अपीलकर्ता उस पर हावी होने की स्थिति में था। अपीलकर्ता मृतक के साथ गहराई से प्रेम करता था और अच्छी तरह से जानता था कि मृतक करीम के बहुत करीब थी उसने इस उम्मीद में शादी की कि मृतक उसके साथ बस जाएगी और वह एक खुशहाल जीवन जीएगा।

रिकॉर्ड पर सबूत बता रहे हैं कि वे एक साथ रह रहे थे और शादी कर ली थी। लेकिन दुर्भाग्य से, ऐसा लगता है कि मृतक अभी भी करीम के संपर्क में थी। ऐसा प्रतीत होता है कि अपीलार्थी मृतक के प्रति बहुत ‘पोजेसिव’ था। सबूतों से पता चलता है कि अपीलकर्ता को उसकी निष्ठा पर शक था और यही हत्या का मुख्य कारण भी था। हमने नोट किया है कि जब अपीलकर्ता को लेडी हार्डिंग शवगृह में  शव दिखाया गया, तो वह रोने लगा। इसलिए, यह कहना मुश्किल होगा कि वह कोई पश्चाताप नहीं कर रहा था। चिकित्सा साक्ष्य यह स्थापित नहीं करते कि मृतक के शरीर को काटा गया था। कोई ऐसा हथियार बरामद नहीं हुआ, जिससे यह पता चल सके कि अपीलकर्ता ने शव को काटा था। उल्लेखनीय है कि अपीलकर्ता के खिलाफ, मृतक के परिवार का कोई भी सदस्य सामने नहीं आया।

हत्या तनावपूर्ण व्यक्तिगत संबंधों का परिणाम थी। यह समाज के खिलाफ अपराध नहीं था। अपीलकर्ता का कोई आपराधिक अतीत नहीं है। वह पक्का अपराधी नहीं है और इस बात का कोई संकेत या सबूत नहीं है कि वह भविष्य में ऐसे अपराधों में फिर से लिप्त हो सकता है। इसलिए, इस मामले के तथ्यों के आधार पर यह कहना संभव नहीं है कि अपीलकर्ता के सुधार और पुनर्वास की कोई सम्भावना नहीं है। हमें नहीं लगता कि सारे विकल्प समाप्त हो गए हैं। हालांकि यह प्रासंगिक नहीं है, लेकिन हम यह उल्लेख कर सकते हैं कि अपीलकर्ता अपने माता-पिता का इकलौता पुत्र है, जो वृद्ध और दुर्बल हैं। अपीलकर्ता दस साल से अधिक समय, मृत्यु सेल में बिता चुका है। निस्संदेह, अपराध क्रूर है मगर सिर्फ क्रूरता इस मामले में मौत की सजा का उचित आधार नहीं हो सकती। उपरोक्त परिस्थितियाँ हमें मौत की सजा को उम्रकैद में बदलने के लिए कह रही हैं।“

देश की सबसे बड़ी अदालत की माने तो ‘स्वतंत्र महिला’ जो ‘अपने फैसले खुद लेने में सक्षम’ है, अगर किसी व्यक्ति के सम्पर्क में है तो उसके पति (प्रेमी) को उसकी ‘निष्ठा’ पर संदेह होना ‘स्वाभाविक’ है। ऐसे में स्त्री की हत्या तनावपूर्ण व्यक्तिगत संबंधों का परिणाम है और यह समाज के खिलाफ कोई अपराध ही नहीं है। जो पेशेवर अपराधी नहीं है, उसको तो हमेशा सुधारा ही जा सकता है और सुधारा भी जाना चाहिए! सुधरने-सुधारने की संभावना से इंकार कैसे करें और क्यों करें? अपराधी इकलौता सुपुत्र हो तो उसे सज़ा में विशेष छूट मिलना भी, पितृसत्ता और न्याय के हित में ही है। मर्दों/पुरुषों द्वारा गढ़े-गढ़ाए आपराधिक न्यायशास्त्र में, ऐसी सैकड़ों  ऐतिहासिक नज़ीर उपलब्ध हैं।       

प्रियदर्शिनी मट्टू (1996)

पच्चीस वर्षीय प्रियदर्शिनी मट्टू दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून (अंतिम वर्ष) की छात्रा थी। वसंत कुञ्ज में अपने माँ-बाप के साथ रहती थी। 23 जनवरी, 1996 को घर में उसकी लाश मिली। बलात्कार के बाद हत्या की गई थी। सीबीआई द्वारा जाँच-पड़ताल के बाद पता चला की हत्या संतोष कुमार सिंह नामक युवक ने की है, जो काफी समय से प्रियदर्शिनी को परेशान कर रहा था। संतोष दिल्ली विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई पूरी कर चुका था। संतोष के पिता जेपी सिंह जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी (डायरेक्टर जनरल) थे।

आश्चर्यजनक रूप से सेशन कोर्ट (जज) ने यह कहते हुए, संतोष कुमार सिंह को बाइज्ज़त बरी कर दिया कि “मैं जानता हूँ कि इसने अपराध किया है मगर सबूतों के अभाव और विरोधाभाषी साक्ष्यों के आधार पर सज़ा देना संभव नहीं”। बरी होने के बाद संतोष दिल्ली हाई कोर्ट में ही वकालत करने लगा था। अपील में दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति आर एस सोढ़ी और पी के भसीन ने पुलिस ही नहीं बल्कि सेशन जज के फैसले की भी यह कहते हुए कड़े शब्दों में आलोचना की कि फैसला न्याय की हत्या और न्यायिक विवेक को झकझोरने वाला है। न्यायमूर्तियों ने लिखा है कि यह फैसला तथ्यों का बेहद अपरिपक्व मूल्यांकन है। तथ्यों को देखने और दोनों तरफ के वकीलों की बहस सुनने के बाद न्यायमूर्तियों ने संतोष कुमार सिंह को फाँसी की सज़ा सुनाई। दिल्ली हाई कोर्ट के इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।

सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति हरजीत सिंह बेदी और सी के प्रसाद ने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को सही ठहराया लेकिन फाँसी की सज़ा को आजीवन कारावास में बदलते हुए कहा कि अपराध निस्संदेह जघन्य और सोच समझ कर किया गया है। हम हैरान हैं कि अपीलार्थी ने जो खुद वकील है और जिसके पिता वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रहे हैं, अपने बचाव में कोई साक्ष्य पेश नहीं किया। सज़ा सुनाने का काम बेहद मुश्किल है और जहाँ जीवन और मौत की सज़ा के बीच फैसला करना हो तो बहुत कम विकल्प बचते हैं। अगर अदालत को सज़ा सुनाने में दिक्कत आ रही हो, तो बेहतर है कि कम सज़ा का ही चुनाव किया जाए। फिर घटना के समय अपीलार्थी चौबीस साल का युवा था, रिहा होने के बाद विवाह कर चुका है और एक बेटी का बाप भी बन गया है। सज़ा होने के एक साल बाद उसके पिता का भी देहांत हो गया। ऐसी भी कोई आशंका नहीं है कि अपीलार्थी सुधरने योग्य नहीं है। 

न्यायमूर्ति बेदी ने निर्णय में लिखा है कि विशेष रूप से हम माता-पिता की उस प्रवृत्ति पर ध्यान देते हैं कि वे अपने बच्चों के लिए बहुत अधिक सजग और भयावह स्थिति में होते हैं। स्थिति तब और खतरनाक हो जाती है, जब किसी अभियुक्त के पास असीमित शक्ति हो या स्वयं इससे भी अधिक खतरनाक सत्ता की श्रेणी में शामिल हो या फिर दोनों का अंतहीन मादक कॉकटेल बन जाए।

विधि विशेषज्ञों का कहना-मानना है कि बरी होने के बाद संतोष ने अगर विवाह ना किया होता और एक बेटी का बाप ना बनता, तो निश्चित रूप से फाँसी की सज़ा होने की संभावना बढ़ जाती। सज़ा सुनाते समय सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों का कलेजा एक वकील की पत्नी और बेटी के नाम पर पसीज ही गया।    

मई 2019 में दिल्ली हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति गीता मित्तल ने संतोष कुमार सिंह को एलएलएम की परीक्षा दने के लिए, 21 मई, 2019 से तीन हफ्तों की पैरोल पर छोड़ा था। जानकारों का कहना है कि एलएलएम की परीक्षा के नाम पर, वह इससे पहले भी कई बार पैरोल ले चुका है। कभी 13 दिन के लिए और कभी एक महीने के लिए। सज़ायाफ्ता अपराधियों द्वारा शिक्षा अर्जित करने पर कोई रोक नहीं है, सो समय-समय पर अदालत पैरोल के मामले में काफी उदार हैं। स्पष्ट है कि ऐसा लाभ भी शिक्षित और साधन सम्पन्न अपराधी ही उठा पाते हैं।      

शिवानी भटनागर 1999 

शिवानी भटनागर पत्नी राकेश भटनागर, निवासी नवकुंज अपार्टमेंट, पटपड़गंज, दिल्ली की हत्या 23 जनवरी, 1999 को हुई थी। संयोग है कि तीन साल पहले इसी दिन (23 जनवरी, 1996) प्रियदर्शिनी मट्टू की हत्या हुई थी। शिवानी इंडियन एक्सप्रेस की वरिष्ठ पत्रकार थी। उसके पति भी वरिष्ठ पत्रकार थे/हैं।

जाँच-पड़ताल के बाद दिल्ली पुलिस ने हरियाणा के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रविकांत शर्मा को मुख्य अभियुक्त माना, जिसके इशारे पर अन्य अभियुक्तों के साथ मिल कर हत्या का षड्यंत्र रचा गया। अभियोग पक्ष के अनुसार शिवानी और रविकांत के बीच गहरे प्रेम सम्बंध बने और शिवानी ने एक बच्चे को भी जन्म दिया। रविकांत ने जब उससे मुंह मोड़ा तो शिवानी भंडा फोड़ने की धमकी देने लगी। रविकांत ने भी उसे रास्ते से हटाने की योजना बनाई। आरोप के अनुसार असल में हत्या करने प्रदीप शर्मा अकेला ही गया था, बाकी सब षड्यंत्र में शामिल थे। पुलिस के पास सब के बीच हुई टेलीफोन पर बातचीत मुख्य सबूत थे। रविकांत शर्मा ने 2002 में तब समर्पण किया, जब उसके खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी हुए। इस बीच वो छुपते-छुपाते रहे।

खैर…अतिरिक्त सेशन जज, कड़कड़डूमा कोर्ट ने 24 मार्च, 2008 को  रविकांत शर्मा, श्री भगवान, सत्य प्रकाश और प्रदीप शर्मा को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। अन्य अभियुक्तों को बरी कर दिया गया।

सेशन के फैसले को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी गई। अपील की सुनवाई न्यायमूर्ति बी डी अहमद और मनमोहन सिंह की खंडपीठ के सामने हुई थी। रविकांत शर्मा का पक्ष रखने के लिए, वरिष्ठ वकील सुशील कुमार थे। बहस सुनने के बाद न्यायमूर्तियों ने 12 अक्टूबर, 2011 को सुनाए फैसले में सिर्फ प्रदीप शर्मा को ही दोषी माना और बाकी सब को अपर्याप्त सबूतों के आधार पर रिहा कर दिया। दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की जो अभी विचाराधीन है। दिल्ली हाई कोर्ट से बरी होने के बाद, रविकांत शर्मा पंचकुला में रह रहे हैं। नौकरी में इसलिए बहाल नहीं हो पाये कि सुप्रीम कोर्ट में अपील विचाराधीन पड़ी है। 

नितीश कटारा 2002 

नितीश कटारा (उम्र 25 साल) को विकास यादव सुपुत्र डी पी यादव और विशाल यादव ने 17 फरवरी, 2002 को सिर्फ इसलिए मौत के घात उतार दिया गया कि वो विकास की बहन भारती यादव से प्रेम करता था। घटना वाले दिन नितीश एक शादी में गया हुआ था, जहाँ से उसे विकास और विशाल सफ़ारी गाड़ी में बैठा कर ले गए थे। और अगले दिन नितीश की जली हुई लाश विवाह स्थल से 80  किलोमीटर दूर खुर्जा (उत्तर प्रदेश) में मिली थी। शायद यादव परिवार को नितीश और भारती के बीच प्रेम सम्बंध स्वीकार नहीं थे और उन्होंने इसे खानदान की नाक का सवाल बना लिया था। हत्या के बाद भारती लंदन चली गई और गवाही में उसने सिर्फ इतना कहा कि नितीश से उसकी सिर्फ दोस्ती थी। 2009 में उसका विवाह एक स्थानीय व्यापारी से संपन्न हुआ। अख़बारों और टीवी पर यह मामला जरूरत से अधिक ही चर्चा में रहा। सुरक्षा कारणों से यह मामला उत्तर प्रदेश से दिल्ली ट्रांसफर कर दिया गया था।

नई दिल्ली फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट की न्यायाधीश रविन्दर कौर ने तमाम गवाहों के बयान दर्ज़ करने और बहस सुनने के बाद (लगभग 1100 पन्नों के फैसले दिनांक 30   मई, 2008) विकास और विशाल को उम्र कैद की सज़ा सुनाई और एक लाख साठ हज़ार रूपये जुर्माना भी किया। सुखदेव पहलवान को भी उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई। सेशन कोर्ट ने इस हत्या को ‘ऑनर किलिंग’ का मामला कहा।

दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति गीता मित्तल और जे आर मिढा ने 6 फरवरी, 2015 को सेशन के फैसले को सही मानते हुए उम्र कैद (तीस साल) की सज़ा सुनाई। अपील में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और सी नागप्पन ने 3 अक्टूबर, 2016 को सुनाये निर्णय में विकास और विशाल की सज़ा 30 साल की बजाए 25 साल कैद कर दी। लेकिन इस शर्त के साथ कि राज्य सरकार सज़ा में कोई छूट नहीं देगी। मतलब समय से पहले जेल से रिहा नहीं होंगे। सुखदेव पहलवान को बीस साल कारावास की सज़ा सुनाई गई। फाँसी की माँग सम्बंधी याचिकाओं को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर दिया गया। 

सज़ा के सवाल पर विचार करते समय न्यायमूर्तियोँ ने पाया कि आरोपी व्यक्ति सदियों से अपूर्णीय भावनाओं और दृष्टिकोण को त्यागने की वह क्षमता हासिल नहीं कर पाए। शायद, उनकी इस परिकल्पना ने परेशान किया था कि यह वही विचार है, जो इस समय में अनादिकाल से यहाँ पहुंचे हैं और अनंत काल तक बने रहना चाहते थे। आगे बढ़ते हुए, न्यायालय ने कहा: –

“कोई भी यह महसूस कर सकता है कि “मेरा सम्मान ही मेरा जीवन है” लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरे की कीमत पर एक का सम्मान बनाए रखा जाए। स्त्री की स्वतंत्रता, आज़ादी, संवैधानिक पहचान, व्यक्तिगत पसंद और विचार हैं। वो एक पत्नी हो या बहन या बेटी या माँ। निश्चित रूप से उसे शारीरिक बल या धमकी या अपने स्वयं के नाम पर मानसिक क्रूरता से नहीं रोका जा सकता है। इसके अलावा, न तो परिवार के सदस्यों और न ही सामूहिक सदस्यों को लड़की द्वारा चुने गए लड़के पर हमला करने का कोई अधिकार है। उसकी व्यक्तिगत पसंद उसका स्वाभिमान है और उसमें सेंध लगाना, उसके सम्मान को नष्ट करना है। उसकी अपनी पसंद को खत्म करके तथाकथित भाईचारे या पितृ सम्मान या वर्ग सम्मान को थोपना अति क्रूरता का अपराध है। इससे भी अधिक जब यह अपराध एक (सम्मान/इज्जत/नाक) आड़ में किया जाता है। यह ‘सम्मान’ की एक निंदनीय धारणा है, जो मध्ययुगीन जुनूनी दावे के बराबर है।”

मधुमिता शुक्ला 2003 

लखनऊ की पेपर मिल कॉलोनी में मधुमिता शुक्ला (उम्र 24 साल) नाम की एक युवा कवयित्री रहती थी। 9 मई, 2003 को सात महीने की गर्भवती मधुमिता की  हत्या हुई, तो उसकी बहन निधि शुक्ल ने महानगर थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाई। जाँच-पड़ताल से पता चला कि हत्या करने संतोष कुमार राय और प्रकाश चंद्र पांडे आये थे और उन्होंने हत्या उत्तर प्रदेश के मंत्री अमरमणि त्रिपाठी, उनकी पत्नी मधुमणि त्रिपाठी के कहने पर की थी। इस षड्यंत्र में कुछ और लोग भी शामिल पाये गए। मंत्री जी और मधुमिता के प्रेम संबंधों के परिणाम स्वरूप ही मधुमिता गर्भवती थी। दो बार गर्भपात करवा चुकी थी और इस बार गर्भ गिराने को राजी नहीं हो रही थी। शायद इसीलिए मंत्री जी और उनकी पत्नी मधुमिता से पीछा छुड़ाना चाहते थे।

17 मई, 2003 को मामला क्राइम ब्रांच को और 17 जून, 2003 को सीबीआई को सौंपा गया। अमरमणि त्रिपाठी को सितम्बर 2003 में गिरफ्तार कर लिया गया और कुछ समय बाद मधुमणि त्रिपाठी ने पुलिस के सामने समर्पण किया। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ ब्रांच के एक जज ने 29 अप्रैल, 2004 और 8 जुलाई, 2004 को अमरमणि त्रिपाठी और मधुमणि त्रिपाठी को जमानत पर छोड़ने के आदेश पारित कर दिए। सीबीआई की अपील पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अशोक भूषण और आर वी रवीन्द्रन ने 26 सितम्बर, 2005 को जमानत रद्द कर दी थी।

जाँच-पड़ताल पूरी होने के बाद अभियोग के लिए मामला, सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार देहरादून की विशेष अदालत को भेजा गया था। विशेष अदालत ने लगभग 80 गवाहों के बयान दर्ज किये और बहस सुनने के बाद 24 अक्टूबर, 2007 को हत्या और हत्या के षड्यंत्र में शामिल सभी अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। प्रकाश चन्द्र पांडे को बरी कर दिया गया।

मुजरिमों ने सेशन कोर्ट के फैसले के खिलाफ, उत्तराखंड हाई कोर्ट, नैनीताल में अपील दायर की।16 जुलाई 2012 को मुख्य न्यायाधीश बरीन घोष और यूसी ध्यानी की खंडपीठ ने भी सेशन को फैसले को उचित ठहराते हुए उम्र कैद की सज़ा सुनाई। हाई कोर्ट ने प्रकाश चन्द्र पांडे को भी आजीवन कारावास का दंड दिया, जिसे सेशन कोर्ट ने बरी कर दिया था। 

मधुमिता केस राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण का एक नमूना भर है। तंदूर काण्ड से लेकर मधुमिता हत्याकांड तक ऐसे कितने ही अपराधी हैं जो राजनीति के विषवृक्ष तले फलते-फूलते रहे हैं। सुन्दरियों के शिकार में सत्ता, सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र बनता जा रहा है।        

उपरोक्त मामलों में नैना साहनी युवक कांग्रेस महिला विंग की महा-सचिव थी। एक स्वतंत्र स्त्री। प्रियदर्शिनी मट्टू दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून (अंतिम वर्ष) पढ़ रही थी। स्वाभाविक है, वकील बनना चाहती थी। स्त्री अधिकारों की पैरवी करना चाहती थी। जेसिका लाल प्रसिद्ध मॉडल थी। शिवानी भटनागर (पति भी) शहर के प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार की वरिष्ठ पत्रकार थी। मधुमिता शुक्ला (गर्भवती) युवा कवियित्री थी। नीतीश कटारा राजनेता की बेटी भारती यादव और राजनेता के बेटों की बहन का प्रेमी है। और बिना किसी दोष/गलती के इन सभी शिक्षित, स्वावलंबी, आधुनिक, प्रतिभाशाली संभावनाओं की हत्या कर दी गई। पीड़िता और हत्यारे के बीच (एकतरफा) प्रेम संबंध है। हत्या के कारणों में प्रमुख है प्रेम, कहीं प्रेम पाना, भोगना, कहीं प्रेम ना मिल पाना और कहीं प्रेम (प्रेमिका) से छुटकारा पाना है।

इन सभी मामलों में अधिकांश हत्यारे (अपराधी) भारतीय समाज के शहरी, शिक्षित और साधन-संपन्न वर्ग के प्रभावशाली व्यक्ति हैं। नैना साहनी केस में सुशील शर्मा युवा कांग्रेस का प्रधान था, जेसिका लाल मामले में सिद्धार्थ वशिष्ठ उर्फ मनु शर्मा के पिता विनोद शर्मा राजनेता (मंत्री) थे, प्रियदर्शिनी मट्टू केस में संतोष कुमार सिंह वकील है, जिसका पिता जम्मू काश्मीर का वरिष्ठ पुलिस अधिकारी (डायरेक्टर जनरल पुलिस) थे, शिवानी भटनागर मामले में रविकांत शर्मा स्वयं वरिष्ठ पुलिस अधिकारी (इंस्पेक्टर जनरल) थे और नीतीश कुमार हत्या कांड में विकास यादव भी राजनेता डी पी यादव के बेटे हैं। विकास यादव तो जेसिका लाल केस में भी शामिल था। उत्तर प्रदेश के राजनेता अमरमणि त्रिपाठी पर भी मधुमिता शुक्ल की हत्या का आरोप था/है। अधिकांश अभियुक्त/अपराधी सत्ता की तमाम सुविधाओं में पले-बढ़े, बिगड़े ‘राजकुमार’ कहे जा सकते हैं। इन छह मामलों में मुख्य अभियुक्त /अपराधी दो राज नेता हैं, तो दो राज नेताओं के सुपुत्र हैं और एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी है, तो एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का (वकील) सुपुत्र है। 

मौजूदा भारतीय न्याय व्यवस्था, कानून द्वारा निर्मित जटिल और पेचीदा जाल-जंजाल हैं। बचाव के लिए विधि विशेषज्ञ और वरिष्ठ वकीलों की फीस अकल्पनीय है, न्याय प्रक्रिया धीमी गति से ही चलती है और इंसाफ की अवधारणा इतनी अनिश्चित है कि अनुमान लगाना असंभव समझें। घटना से अंतिम फैसले तक, कम से कम दस साल से 15 साल तक का समय तो प्राय: लग ही जाता है। अब आप ही देखिये कि जेसिका लाल और प्रियदर्शिनी मट्टू मामले में सेशन से अपराधी बरी हुए मगर अपील में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने उम्र कैद की सज़ा दी।

इसके विपरीत शिवानी भटनागर केस में सेशन ने रविकांत शर्मा व अन्य को उम्र कैद की सज़ा सुनाई परन्तु हाई कोर्ट ने बाइज़्ज़त बरी कर दिया। नैना साहनी केस में सुशील शर्मा को सेशन और हाई कोर्ट से फाँसी की सज़ा हुई, जेसिका लाल केस में हाई कोर्ट ने संतोष कुमार सिंह को फाँसी की सज़ा दी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने दोनों की फाँसी की सज़ा को उम्र कैद में बदल दिया। वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी द्वारा की गई तार्किक बहस के बावजूद, मनु शर्मा को सज़ा में कोई रहत नहीं मिल पाई। दूसरी तरफ वरिष्ठ वकील सुशील कुमार ने रविकांत शर्मा और संतोष कुमार सिंह के बचाव में बहस की थी। रविकांत शर्मा हाई कोर्ट से बाइज्जत बरी हो गए और सुप्रीम कोर्ट ने संतोष कुमार सिंह की फाँसी की सज़ा को उम्र कैद में बदल दिया। मधुमिता शुक्ला केस में त्रिपाठी दम्पति को हाई कोर्ट ने जमानत पर छोड़ दिया था, मगर सुप्रीम कोर्ट ने जमानत रद्द कर दी।  

रविकांत शर्मा फिलहाल हाई कोर्ट से बरी हो गए। सुशील शर्मा और मनु शर्मा को उप-राज्यपाल ने ‘विशेषाधिकार’ का इस्तेमाल कर, सज़ा पूरी होने से पहले ही रिहा कर दिया। संभव है कि कुछ समय बाद संतोष कुमार सिंह और अमरमणि त्रिपाठी भी अच्छे चाल-चलन के आधार पर, सुशील और मनु की तरह जेल से रिहा हो जायें। इन सब के उलट नितीश कटारा के हत्यारे विकास यादव और विशाल यादव को पूरे पच्चीस साल जेल में रहना होगा, क्योंकि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का भी आदेश है कि राज्य सरकार उनकी सज़ा माफ नहीं कर सकती। 

स्त्री के विरुद्ध हिंसा बाहर ही नहीं बल्कि वो सम्बन्धों की किसी भी छत के नीचे सुरक्षित नहीं है। आरुषि तलवार (13 साल) हत्याकांड (2008) में उसके अपने माँ-बाप डॉक्टर राजेश तलवार और डॉक्टर नूपुर तलवार को, नोएडा की विशेष अदालत के न्यायाधीश एस लाल द्वारा 2013 में उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई। उन पर घरेलू नौकर हेमराज की हत्या का भी आरोप था।

सीबीआई ने तो जाँच-पड़ताल के बाद, ‘क्लोज़र रिपोर्ट’ दायर की थी। डॉक्टर तलवार द्वारा दायर आपत्तियों के बाद साक्ष्यों के आधार पर, अदालत ने डॉक्टर दम्पत्ति के खिलाफ पहले सम्मन और फिर गैर-जमानती वारंट जारी किए थे। विधि विशेषज्ञों का मानना है कि अगर ‘क्लोज़र रिपोर्ट’ के विरुद्ध आपत्तियाँ ना दर्ज होती, तो मुकदमा वहीं ख़त्म हो सकता था। मगर कैसे होता! मुकदमे से जुड़े बहुत से लोग मालामाल क्यों नहीं होते?

मीडिया में बहुचर्चित आरुषि हत्याकांड से भारतीय समाज के आधुनिक वर्ग की आवारा पूँजी की, बहुत सी करतूत नग्नतम रूप में सामने आने लगी है। कोई नहीं जानता कि यह रहस्यमय हत्या, आरुषि और हेमराज को ‘आपत्तिजनक स्थिति’ में देखने की वजह से हुई या वैवाहिक संबंधों से बाहर अवैध संबंधों की पोल खुलने के डर से। सेशन कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक कई-कई बार, बार-बार हर आदेश के विरुद्ध अपील/समीक्षा की गई। तथाकथित बड़े और महंगे वरिष्ठ वकील पेश हुए, लेकिन मामला अभी तक कोर्ट-कचहरी में उलझा हुआ है।

उम्र कैद की सज़ा के निर्णय के खिलाफ़ अपील में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2012 में दोनों को बाइज़्ज़त बरी कर दिया था। हाई कोर्ट फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की अपील पर अगस्त 2018 में नोटिस जारी किया था। मामला अभी तक विचाराधीन है। कहना कठिन है कि अंतिम फैसला कब और क्या होगा!

शिवानी भटनागर केस में हत्या मीडिया से बाहरी व्यक्तियों ने की थी। मगर  तरुण तेजपाल तो स्वयं प्रसिद्ध पत्रकार, प्रकाशक, उपन्यासकार और ‘तहलका’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक रहे हैं। उनकी अपनी सहयोगी पत्रकार ने उन पर गोवा में बलात्कार करने का आरोप लगाया। 23 नवंबर, 2013 को एफआईआर दर्ज हुई। वारंट जारी हुए और 30 नवंबर, 2013 को गिरफ्तार किये गए। बाद में जुलाई 2014 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जमानत पर रिहा हुए। सेशन कोर्ट ने  सितम्बर 2017 में आरोप तय किये। इसके विरुद्ध दायर  रिवीजन बॉम्बे हाई कोर्ट में दायर की गई। न्यायमूर्ति ने तेजपाल के  वरिष्ठ वकील अमन लेखी की बहस सुनने के बाद, 20 दिसंबर, 2017 को याचिका स्वीकार करने से  मना कर दिया।

हाई कोर्ट के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। 19 अगस्त, 2019 को सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और आर एम शाह ने भी यह कहते हुए हस्तक्षेप करने से मना कर दिया कि यह एक औरत की गरिमा और सम्मान से जुड़ा गंभीर आपराधिक मामला है। न्यायमूर्तियों ने सेशन कोर्ट को निर्देश दिया कि वाद का निपटारा छह महीने में किया जाये। छह महीने की समय सीमा समाप्त हो चुकी है। लेकिन मामला अभी सेशन कोर्ट में ही अटक-लटका है। 

मीडिया में स्त्री अस्मिता पर हुए शोध बताते हैं कि पिछले दो दशकों में मीडिया में स्त्रियों (पत्रकारों) की उपस्थिति बढ़ी है, मगर ‘स्थिति’ निरंतर बिगड़ती गई है। स्त्रियों के यौन शोषण, उत्पीड़न और आत्महत्या के आँकड़े भी लगातार बढ़ते रहे हैं। उपरोक्त मामलों के अलावा भी बहुत घटनाएँ इस बीच हुई हैं, जिन पर फिर कभी विस्तार से विचार करेंगे। शीना बोरा केस में इन्द्राणी मुखर्जी और अन्य पर लगे आरोप और अभियोग अभी विचाराधीन हैं। पर अभी तक सामने आये तथ्य-सत्य, मीडिया के भीतर पल रही हिंसा की प्रतिध्वनियाँ तो साफ़-साफ़ सुनी ही जा सकती हैं। नैना साहनी (तंदूर काण्ड) और मधुमिता शुक्ला हत्याकांड की परोक्ष अनुगूँज, सुनंदा पुष्कर पत्नी शशि थरूर की हत्या/आत्महत्या में भी सुनाई पड़ सकती है। अभी यह मामला भी अदालत में विचाराधीन है। उच्च मध्यम-वर्ग के ‘पाताल लोक’ में आवारा पूंजी का सनसनीखेज और भयावह नाटक जारी है! देखते रहिये….जनाब!

(अरविंद जैन सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)            

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