तमाम बहकावों के बीच, बेचैन होता समाज

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यह दौर बेहद पीड़ादायी है, सभी के लिए। उनके लिए भी जो समझ रहे हैं कि वे राज कर रहे हैं, और जो सताए जा रहे हैं, उनका तो कहना ही क्या। 

समाजवाद के बारे में पिछले तीन दशकों से ही उसकी मृत्यु की घोषणा और पूंजीवाद के अमरता की कहानी अब बड़ी तेजी से धूमिल पड़ती जा रही है। मुनाफे की बेतहाशा दौड़ में उसने सरकारों को खरीद लिया है। वे उसकी चाकरी और क्रोनी कैपिटल की सेवा में, दिन रात जुटे हैं। इसका सीधा असर मेहनतकश मजदूरों, आदिवासियों और किसानों के वर्ग पर पड़ रहा है और सामाजिक आधार पर यह असर अल्पसंख्यक वर्ग, आदिवासियों और महिलाओं के माथे पर है, लेकिन इस नव उदारवादी व्यवस्था की चपेट में पहली बार मध्यवर्ग भी भारी संख्या में आने जा रहा है और कई क्षेत्रों में इसका असर भी दिखने लगा है।

नोटबंदी ने जिस छोटे और मझोले कारोबार को चौपट किया, उसने धीरे-धीरे पूरी अर्थव्यवस्था को अपनी आगोश में ले लिया है, और अब इसका असर उद्योग-धंधों पर निचले तबके के मजदूरों, कर्मचारियों के रूप में लाखों की संख्या में बेरोजगारी से अब मिडिल मैनेजमेंट पर भी दिखना शुरू हो गया है। पब्लिक सेक्टर की तमाम संस्थाओं को एक के बाद एक तेजी से बंद करने, प्राइवेट हाथों में बेचने का काम जारी है। जो शुरू के वर्षों में कुछ हजार करोड़ के disinvestment से शुरू हुआ था अब 60 हजार करोड़ और एक लाख करोड़ प्रति वर्ष की दर पर पहुंच गया है। सरकारी नौकरी बेहद कम लोगों को रोजगार देती थी, लेकिन उससे भी अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्सों को गतिशील होने में मदद मिलती थी। अब उसमें भी सिकुड़न से और दूसरी और गिरती मजदूरी और एकाधिकार होते क्रोनी कैपिटल के लिए मुनाफे में असीमित उछाल देखने को मिल रहा है। 

देश चुनिंदा लोगों के बेहद अमीर होते जाने और भारी संख्या के गरीबी के दलदल में धंसने को अभिशप्त है। यह पूंजीवाद का भी गहराता संकट है, जिससे निकलने में शायद ही कोई राह उसे दिख रही हो। अभी तक पूंजीवाद ने झटके खाए, लेकिन हर बार उसे बचने की राह मिली है। इस बार जब उसका मुकाबला किसी से नहीं है, क्या वह अपने खात्मे के लिए खुद ही अपना गला घोंट रहा है?

क्या व्यवस्था परिवर्तन कर सामूहिक विकास, और सब लोग सबके कल्याण के लिए काम करने वाले नागरिक समाज की स्थापना के बीज बोने के लिए और इस धरती और मानवता की रक्षा के लिए आगे नहीं आएंगे? क्योंकि पूंजीवाद मानवता के, प्रकृति के, धरती के, मानव के मानव के शोषण के बल पर ही अपनी जीवनी शक्ति पाता रहा है, लेकिन उसकी लिमिट खत्म हो चुकी है। 

लातिन अमरीका से लेकर मध्य यूरोप, मध्य यूरोप से लेकर खुद अमरीका यूरोप, एशिया के देशों में यह सवाल जोर पकड़ता जा रहा है। इसे फ़िलहाल देश भक्ति की आड़ में बहकाया जा रहा है, लेकिन इस असंतोष की मूल वजह तो यह आर्थिक बढ़ता विभाजन ही है, जो देर-सवेर भारत में भी लाख धारा 370, कश्मीर, पाकिस्तान, राम मंदिर के मुद्दे पर पल भर को बहुसंख्यक समाज को बहका दे, लेकिन अगले ही पल इंसान को बैचेन कर उठता है। नतीजे में सत्ता पक्ष हक्का-बक्का रह जाता है कि उसकी चाणक्य नीति को हरियाणा जैसे धुर मर्दवादी समाज ने ठुकरा दिया। उसका तीन दशक से पुराना साथी जो उससे भी अधिक सांप्रदायिक बयानबाजी करता है, उससे अलग हो गया।

आखिर क्यों?

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार है और दिल्ली में रहते हैं)

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