भारत में समय-समय पर बिना डिग्रीधारी डॉक्टर (झोला छाप डाक्टर) के ऊपर सरकार द्वारा छापे डाले जाते हैं। ऐसी स्थिति में उनसे जमकर अवैध वसूली भी की जाती है और उनको अपमानित भी किया जाता है। बहाना यह होता है कि सरकार जनता की जानो-माल के लिए बहुत फिक्रमंद है।
हेलमेट न पहनने पर जुर्माना करने से लेकर खाद्य पदार्थों में मिलावट की जांच करने में मोटे तौर पर “सरकार बहादुर” की भलमनसाहत नजर आती है। कहते हैं, भात का एक चावल अगर पक गया है तो पूरा भात पक चुका है।
सभी राज्यों की पूंजीवादी सरकारें जनता को कितना प्यार करती हैं, यह तो अपने हक की मांग करते मजदूर, किसानों, बेरोजगारों पर होते दमन से हमें दिखाई देता है। परंतु भाजपा के मोदी राज्य में इसकी सबसे प्रबल अभिव्यक्ति होती है तीन काले कृषि कानूनों में।
खासकर जमाखोरी अधिनियम को समाप्त करने संबंधी कानून बनाने के बारे में। मोदी सरकार ने 2020 में कोरोना के समय मौका पाकर अध्यादेश लाकर तीन कृषि कानून पास करवा लिए थे। यह सब अंबानी अडानी और वैश्विक पूंजीपतियों के हित में पास किए गए थे।
जमाखोरी अधिनियम समाप्त करने के पीछे सरकार का तर्क था कि आजादी के बाद जमाखोरों को सजा देने वाला यह कानून जब पास किया गया था तब तो इसका एक अर्थ भी था क्योंकि उस समय देश में उत्पादन बहुत निम्न स्तर का होता था।
परंतु अब चूंकि सभी प्रकार का उत्पादन बहुत ऊंचाईयों पर चला गया है तो अब जमाखोरी को अपराध घोषित करने के कानून का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन सरकार चालाकी से यह बात छुपा ले जाती है कि औद्योगिक उत्पादों के विपरीत कृषि उत्पादों की एक खासियत होती है कि उनका उत्पादन एक निश्चित सीमा से ज्यादा नहीं बढ़ाया जा सकता।
पहली बात यह कि भारत में कृषि योग्य भूमि न केवल सीमित है बल्कि घटती चली जा रही है। दूसरी बात यह है कि कृषि उत्पादों के लिए कम से कम कुछ हफ्ते से लेकर कुछ महीनों तक का समय चाहिए। तब जाकर वह तैयार हो पाते हैं।
ऐसी अवस्था में अगर कुछ बड़े पूंजीपति गेहूं, चावल, आलू, प्याज का पूरे देश भर में संग्रह कर लेंगे तो उसका कृत्रिम अभाव पैदा किया जा सकता है और मोटा मुनाफा पीटा जा सकता है। भले ही लोग भूख, कुपोषण जनित रोग से मर जाएं। (जनसंख्या नियंत्रण! एक पंथ दो काज! आम के आम गुठली के दाम!)
इसका प्रमाण तब मिला था जब कृषि कानून पास होने से पहले ही पानीपत आदि जगहों पर अडानी के गोदाम बन जाने का पता चला था। यह अनुच्छेद 21 अर्थात जीवन के अधिकार से भी जनता को वंचित करने का षड्यंत्र था। इससे खूब पता चलता है कि आम जनता की सरकार को कितनी फिक्र है।
लगभग बिना अपवाद के हर भारतीय शहर गांव में बिकने वाली कच्ची शराब, चरस, स्मैक आदि से क्या सरकार अनभिज्ञ है? बल्कि शराब, स्मैक आदि नशे की अर्थव्यवस्था तिहाड़ जेल जैसी जगहों पर अरबों रुपयों की होती है। क्या खूब कल्याणकारी राज्य है!
तो अब वापस झोलाछाप डॉक्टरों के विषय पर आया जाए। झोलाछाप डॉक्टर न केवल दूरस्थ गांवों, जंगलों, पहाड़ों में जनता को साल के 365 दिन और 24 घंटे सेवाएं देने में सक्षम होते हैं। बल्कि बहुत ही कम प्रतीक्षा कराये, बहुत ही कम दामों पर 30 या 40 रुपये में रोगी को ईलाज और आराम भी मिल जाता है।
क्या रोज ₹400 की दिहाड़ी करने वाले व्यक्ति से यह उम्मीद करना मूर्खता नहीं है कि वह पूरा दिन सरकारी अस्पताल आने जाने और लंबी लाईन में खड़ा रहने में खर्च करेगा?
अगर उत्तराखंड का ही उदाहरण लिया जाए तो यहां पर सरकारी पर्ची का रेट ₹30 है। कुछ टेस्ट जहां निशुल्क होते हैं, वहां कई टेस्ट ₹100 डेढ़ सौ रुपए तक भी चले जाते हैं।
फिर कई सौ की दवाइयां बाहर मेडिकल स्टोर से लेनी पड़ती हैं। मेरे कई परिचित एलोपैथिक विशेषज्ञ डॉक्टर का कहना है कि प्रधानमंत्री योजना के तहत दी जा रही औषधियां भी उतनी प्रभावकारी नहीं हैं, जितनी कि बाजार में बिकने वाली दूसरी औषधियां।
अगर पर्ची बनवाने की लाइन और डॉक्टर को दिखाने की लाइन और टेस्ट करवाने के लिए लाइन में लगने वाले समय को जोड़ दिया जाए तो निस्संदेह सुबह से शाम हो जाती है। यानि आपकी दिहाड़ी भी गई ऊपर से ₹100 अपने सरकारी अस्पताल में खर्च किया और कम से कम ₹200 की दवा आपने मेडिकल स्टोर से ली।
अब एक तरफ सात आठ सौ रुपए खर्च करना है और दूसरी और ₹40 में तुरंत दवा लेकर दिहाड़ी पर निकल जाना है।
यह ठीक है कि अक्सर कई झोलाछाप डॉक्टर स्टेरॉयड और उच्च श्रेणी की एंटीबायोटिक का भी बिना सोचे समझे अनियंत्रित तरीके से इस्तेमाल करते हैं। उसके लिए उन पर निस्संदेह किसी प्रकार का नियंत्रण स्थापित किया जाना आवश्यक है।
इसके लिए हमें 60 साल पहले के चेयरमैन माओकालीन चीन की तरफ नजर दौड़ानी होगी। 1949 में क्रांति की शुरुआत में चीन में केवल बीस हजार एलोपैथी डॉक्टर ही थे। वह भी शहरों में ही केंद्रित थे।
गांव जहां कि 80% जनसंख्या रहती थी वहां बहुत कम चिकित्सक थे। माओ ने तब व्यंग्य में कहा था कि, “आपको अपने स्वास्थ्य मंत्रालय का नाम शहरी स्वास्थ्य मंत्रालय रख लेना चाहिए।”
चीन की बड़ी आबादी और व्यापक क्षेत्रफल में स्वास्थ्य सेवाओं को पहुंचाने के लिए चीन में बेयरफुट डॉक्टर मॉडल विकसित किया गया।
क्रांति के बाद 1976 तक यानी मात्र 26 सालों में चीन की औसत आयु 35 वर्ष से बढ़कर 68 वर्ष हो गई थी तो यह बेयरफुट डॉक्टर मॉडल का ही कमाल था।
यह इतना सफल रहा कि कजाकिस्तान के अल्माआता में 1978 में हुई विश्व स्वास्थ्य संगठन की बैठक में इसे भविष्य हेतु एक मार्गदर्शक के रूप में लिया गया। इसी के आधार पर दुनिया भर में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र विकसित किए गए और सन 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य की वैश्विक परियोजना का लक्ष्य निर्धारित किया गया।
लोकतंत्र को सही मायने का लोकतंत्र (यानि समाजवादी लोकतंत्र) बनाते हुए कामरेड माओ के समय में ग्रामीण जनता की खुली बैठकों में ऐसे युवक-युवतियों का चयन किया जाता था जो सेवाभावी हों और मजदूर राज्य सामूहिकता के दर्शन को स्वीकार करते हैं।
ऐसे युवक-युवतियों को मेडिकल विशेषज्ञों की सहमति के बाद चयनित कर लिया जाता था। फिर तीन से छ: माह की ट्रेनिंग दी जाती थी। कुछ बाद में पू्र्ण डिग्री हेतु भी भेजे जाते थे। ये लोग वर्ष में 365 दिन गांव में ही अपनी चिकित्सा सेवाएं देते थे।
इस सेवा के बदले पूरे-पूरे गांव या ग्राम समूह के किसानों द्वारा कुछ न्यूनतम राशि निर्धारित की गई थी जो बेयरफुट डॉक्टर को मिलती थी। खाली समय में यह डाक्टर सामूहिक खेती किया करते थे।
यही नहीं गांव में बीमारी से बचाव के लिए किस प्रकार मानव मल और पशुमल का निस्तारण कर उससे खाद बनाई जाए और रोग पैदा करने वाली परिस्थितियों को खत्म किया जाए इस बारे में भी यह ये डॉक्टर किसानों, ग्रामीण जनता को प्रशिक्षित करते थे।
यह डॉक्टर पारंपरिक चीनी औषधियों और एक्यूप्रेशर का भी इस्तेमाल करते थे।
एक तरफ गांव में सेवा करने की भावना वाले ये डॉक्टर हैं, तो दूसरी ओर भारत जैसे भूखे नंगे देश में बेहद मामूली रकम में देश के बेहतरीन सरकारी चिकित्सा संस्थानों में डिग्री प्राप्त कर अमेरिका उड़ जाने वाले भारतीय डॉक्टर हैं। जो अमेरिका जाकर मनमोहन सिंह या मोदी जी को कागजी तिरंगा झंडा दिखाते हैं, इंडिया-इंडिया करते हैं।
आखिर भारत में भी चीन की तरह सरकारी विश्वविद्यालय एवं इंजीनियरिंग कॉलेज और मेडिकल कॉलेज में जनता द्वारा चुने हुए बुद्धिमान, सेवा भावी ईमानदार युवक-युवतियों को क्यों नहीं चयन किया जा सकता?
आज हम भारत में देखते हैं कि न केवल दूरस्थ क्षेत्र बल्कि शहरी क्षेत्र के आसपास के भी सरकारी अस्पताल में डॉक्टर जाना नहीं चाहते हैं या कुछ ही घंटे के लिए जाते हैं। ऐसे में आपातकालीन व्यवस्था के तौर पर झोलाछाप डॉक्टर कम से कम जनता को कुछ राहत तो पहुंचाते हैं।
यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि भारत भर में राज्य सरकारों ने हाई स्कूल पास युवक-युवतियों को 3 महीने की ट्रेनिंग देकर उनको गाय-भैंसों में कृत्रिम गर्भाधान करने का अधिकार और प्राथमिक चिकित्सा का अधिकार दे दिया है। जिस कारण वे आज खुलकर हर तरह की दवाइयों का मनमर्जी से इस्तेमाल कर रहे हैं।
तो ऐसी स्थिति में सरकार का भी फर्ज है कि मानव सेवा में लगे इन लोगों को उपयुक्त ट्रेनिंग दे। भले ही कुछ महीने की हो। और ज्यादा योग्य, सेवाभाव वाले झोलाछाप डाक्टर को पचास प्रतिशत का कोटा निर्धारित कर सीधे सरकारी एमबीबीएस/ बीएएमएस आदि कॉलेजों में मुफ्त प्रशिक्षण देकर एमबीबीएस की डिग्री प्रदान की जाए।
आखिर डाल्फिन फैक्ट्री की बीमार महिला मजदूर (जिन्हें उत्तराखण्ड राज्य में अर्धकुशल को कानूनन देय 10,300 भी नहीं दिया जाता है) 5,000 रु प्रति माह की बेगारी में झोला छाप डाक्टर से ईलाज न कराएं तो क्या करें?
क्या हमारे सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस जानते हैं कि 1978 के सात जजों की संवैधानिक बेंच ने मेनका गांधी केस में अनुच्छेद 21 को यानि जीवन के अधिकार को कितना गरिमामय, कितना व्यापक बना दिया था। क्या संरक्षित पशुओं की मौत पर स्वयं संज्ञान लेने वाले उच्च न्यायालय करोड़ों मानव जीवन के लिए भी स्वयं संज्ञान लेंगे?
“सियाराम मय सब जग जानी” की भावना योर आनर !!
(डॉ उमेश चन्दोला पशु चिकित्सक हैं।)
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