जनता के स्वास्थ्य के बजाय कार्पोरेट के मुनाफे को केन्द्र में रखने से विकराल हो गया कोरोना का संकट

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‘बेला चाओ ! बेला चाओ !! ( Bela Chao ) 

वह गीत जो कभी 19 वीं सदी की इटली की कामगार औरतों / धान बीनने वाली/ के संघर्षों में जन्मा था और जो बाद में वहां के फासीवाद विरोधी संघर्ष का अपना समूहगान बना, वह पिछले दिनों रोम की सड़कों पर गूंजता दिखा।

गौरतलब था कि कहीं कोई लोग एकत्रित नहीं थे अलबत्ता आप उनके घरों की खिड़कियों से या उनकी बालकनियों से उनकी आवाज़ सुन सकते थे। और न केवल बेला छाओ, लोग अलग अलग देशभक्ति वाले गाने भी गा रहे थे और कुछ ऐसे गीत भी गा रहे थे जिन्हें उन्होंने खुद रचाा था। (https://www.theguardian.com/world/2020/mar/14/italians-sing-patriotic-songs-from-their-balconies-during-coronavirus-lockdown)

एक ऐसे समय में जब वह पूरा मुल्क – जो दुनिया की आठवीं बड़ी अर्थव्यवस्था है – अपने घरों में ‘कैद’ है, लोग अपने अपने घरों तक सीमित हैं और कोरोना के चलते मरने वालों की तादाद 2,000 के करीब पहुंच रही है, अपने-अपने घरों से एक ही समय में किया गया यह समूह गान एक तरह से उनका अपना तरीका था कि दुख की इस घड़ी में खुशी के चंद पल ढूंढने का और अपने आप को उत्साहित रखने का तथा एक दूसरे के प्रति एकजुटता प्रदर्शित करने का।

जैसे-जैसे दुनिया अपनी सांस रोके इस महामारी के फैलाव को देख रही है और गौर कर रही है कि किस तरह सरकारों एवं म्युनिसिपालिटियों को इसे रोकने के लिए अभूतपूर्व कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है, परस्पर एकजुटता और उम्मीद की ऐसी तमाम कहानियां दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से ही आ रही हैं। निराशा के इन लमहों में ही यह जानना सुखद था कि क्यूबा और चीन के डॉक्टर तथा पैरामेडिकों की एक टीम इटली पहुंची है और वहां स्वास्थ्य महकमे को मदद पहुंचा रही है।  https://twitter.com/telesurenglish/status/12386774349433651200

हम इस बात से भी परिचित हो रहे हैं कि किस तरह क्यूबा ने एक दवा अल्फा 2 बी दवाई /एंटी वायरल /विकसित की है ‘जिसे कोरोनावायरस के इलाज में कारगर माना जा रहा है और यह भी ख़बर है कि चीन में भी इस बीमारी के रोकथाम के लिए उसने इस दवा का प्रयोग किया था।’ (https://www.telesurenglish.net/news/cuban-antiviral-used-against-coronavirus-in-china-20200206-0005.html)  शायद ‘मुनाफे के लिए दवाईयां’ के सिद्धांत पर चलने वाले मौजूदा मॉडल में ऐसी कामयाबियों पर गौर करने की फुरसत नहीं है। (https://www.theguardian.com/commentisfree/2020/mar/04/market-coronavirus-vaccine-us-health-virus-pharmaceutical-business

अगर हम अपने मुल्क को देखें तो यहां कोरोना नियंत्राण में सूबा केरल की हुकूमत की कोशिशें और किस तरह जनता भी इन कोशिशों से जुड़ी है, इसे काफी सराहना मिली है।  (https://www.huffingtonpost.in/entry/kerala-coronavirus-plan-health-minister-shailaja-teacher_in_5e61f9a2c5b691b525f04f41?ncid=yhpf)  देखने में यह आया है कि न केवल यहां के स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस खतरे को पहले भांपा और ऐसे कदम बढ़ाये ताकि प्रभावित इलाकों से – मुख्यतः वुहान – आने वाले लोगों को क्वारंन्टाइन करने अर्थात अलग रखने के लिए कदम उठाये और ऐसे मामलों में जहां ऐसे यात्रियों के सम्पर्क में उनके परिवार वाले भी आए थे, तो उन्हें भी सुरक्षित अलग रखने का इंतजाम किया। ‘द टेलीग्राफ’ की ख़बर थी कि किस तरह केरल सरकार के साथ काम करने वाले डॉक्टर अपनी ‘श्मशान शिफ्ट’ भी कर रहे हैं अर्थात ‘मृतक के शरीर की जांच के लिए श्मशान गृहों का भी दौरा कर रहे हैं’  (https://www.telegraphindia.com/india/coronavirus-outbreak-literally-a-graveyard-shift-for-doctors-in-kerala/cid/1753276)  या किस तरह केरल के एक मेडिकल स्टोर ने फेस मास्क दो रूपये की कीमत पर ही बेचना जारी रखा जबकि उन्हें खुद 8 रूपये में मिल रहा था तथा ब्लैक मार्केट में लोग उसे 25 रूपये में बेचते दिख रहे थे। (https://www.indiatoday.in/india/story/cornavirus-outbreak-kerala-medical-store-sells-face-masks-1655687-2020-03-15)  और इस बात पर जोर दिया कि ऐसे स्तर की मानवीय त्रासदी कोई पैसा कमाने का वक्त़ नहीं होता। जनता को राहत पहुंचाने में किस तरह सरकारी मुलाजिम भी जुटे हैं इसे उजागर करने वाली एक तस्वीर भी काफी वायरल हुई है जिसमें आंगनबाडी में कार्यरत एक महिला एक बच्चे के घर पहुंची है ताकि मिड डे मील का पैकेट उसे दिया जाए। दरअसल कोरोना के चलते केरल सरकार ने तमाम स्कूल और आंगनबाड़ियां बन्द की हैं, और कर्मचारियों को निर्देश दिया है कि वह बच्चों के घरों पर मिड डे मील पैकेज पहुंचायें।  

(https://www.news18.com/news/buzz/kerala-teacher-delivering-mid-day-meal-to-childs-home-amid-covid-19-scare-melts-hearts-2536049.html)   

ऐसी आपदा मानवता की अच्छाइयों और बुराइयों को भी सामने ला देती है और उसकी तमाम मूर्खताओं को बखूबी उजागर करती है।

मीडिया में यह ख़बरें भी आयी हैं कि किस तरह एक केन्द्रीय कैबिनेट मंत्री अपने सहयोगियों के साथ बाकायदा एक मंत्र दोहरा रहे हैं जिसमें कोरोना को ‘जाने के लिए’ – गो कोरोना, कोरोना गो – कहा जा रहा है। (https://scroll.in/video/955774/go-corona-rajya-sabha-mp-ramdas-athawale-leads-chant-requesting-the-virus-to-leave-india)  या किस तरह एक हिन्दुत्ववादी संगठन की तरफ से कोरोना वायरस से ‘मुक्ति पाने’ के लिए गोमूत्र पार्टी का आयोजन किया गया था।;  ( https://www.indiatoday.in/india/story/coronavirus-gaumutra-party-swami-chakrapani-maharaj-all-india-hindu-mahasabha-1655557-2020-03-14)     , ईरान के एक अयातोल्ला ने जो सलाह दी वह कम विचित्र नहीं थी उसका कहना था कि अगर हम अपने पश्चभाग में हल्के नीले रंग का तेल लगा लें तो हम उससे बच सकते हैं  (https://www.al-monitor.com/pulse/originals/2020/03/bizarre-cures-for-coronavirus-in-iran.html)     तो वहां ऐसे वीडियो भी आये कि कोम नामक जगह पर जहां इस्लाम की दो प्रमुख शख्सियतों को दफनाया गया है वहां उनकी कब्र के बाहर लगे दरवाजे को अगर कोई चाट कर आए तो उससे भी कोरोना से निवारण हो सकता है / वही/

गनीमत है कि ऐसे तमाम ‘समाधान’ मज़ाक का विषय बने हैं और कम से कम दक्षिणपंथी सरकारों ने भी उन्हें अपनी सहमति नहीं दी है।

हम यह भी देख रहे हैं कि इस महामारी ने – बकौल टेडरॉस अधानोम, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक हैं – दुनिया की तमाम राजधानियों में व्याप्त ‘‘नैतिक क्षय / मॉरल डिके/ को भी उजागर किया है। महानिदेशक महोदय इस स्थिति को देख कर विचलित थे कि इस महामारी के रोकथाम के लिए कोई गंभीर प्रयास करने के काम से किस तरह इन तमाम सरकारों ने इन्कार किया है। (https://www.wsws.org/en/articles/2020/03/12/pers-m12.html)  

विकसित दुनिया के इन अग्रणियों के इस लापरवाही भरे रवैये को देखते हुए जहां वह लोगों के स्वास्थ्य के बनिस्पत कार्पोरेट क्षेत्र के मुनाफे को लेकर चिंतित दिखे उन्हें यह याद दिलाना पड़ा कि मानवीय जीवन हमारे लिए कितना अनमोल है।

‘‘अगर यह बीमारी किसी युवा की जिन्दगी लेती है या किसी वयस्क की, हर मुल्क की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह उसे बचाये। हमें यह कहना होगा कि हम हार नहीं मान रहे हैं और अपने संघर्ष को जारी रखे हुए हैं। हमारे बच्चों को बचाने के लिए, हमारे वरिष्ठ नागरिकों को बचाने के लिए, आखिर वह मानवीय जीवन का ही सवाल है। यह कहना काफी नहीं होगा कि हम लाखों लोगों की देखभाल कर रहे हैं जबकि हम किसी एक व्यक्ति की चिन्ता नहीं कर रहे हैं।’’

राष्ट्रपति ट्रंप, जो दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के कर्णधार हैं, दरअसल जनता के स्वास्थ्य के प्रति इस आपराधिक लापरवाही तथा कार्पोरेट मुनाफे की अधिक चिन्ता के प्रतीक के तौर पर सामने आए हैं। उनकी यह बेरूखी तब भी बरकरार रही जब अमेरिकी सरकार के नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ एलर्जी और संक्रामक रोगों के संस्थान के निदेशक एंथनी फौसी ने यह ऐलान किया कि यह ‘‘मुमकिन’’ है कि इस महामारी से अमेरिका के लाखों लोग कालकवलित हो सकते हैं।  (https://www.wsws.org/en/articles/2020/03/16/pers-m16.html

देश के नाम दिए सम्बोधन में /12 मार्च / उनसे लोगों को यह उम्मीद थी कि वह इस बीमारी की रोकथाम के लिए कदमों का ऐलान करेंगे – जैसे अस्पतालों के विस्तार के लिए या जांच के लिए उपलब्ध संसाधनों को बढ़ाने या अग्रणी चिकित्सा कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए सबसे बुनियादी सुरक्षात्मक उपकरण प्रदान करने के लिए सुविधाएं देना- मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उन्होंने ऐलान किया कि वह बिजनेस के लिए 50 बिलियन डॉलर का कर्जा दे रहे हैं – ताकि कोरोना के चलते उत्पन्न आर्थिक संकट से वह निजात पा लें –  और अमेरिकी कांग्रेस से यह अपील की कि वह कार्पोरेट के पक्ष में कर कटौती का ऐलान करे।

रेखांकित करने वाली बात थी कि उनके इस प्राइम टाइम सम्बोधन में उनके साथ दवा उद्योग की विशालकाय कम्पनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारी या संरक्षक उपस्थित थे और राष्ट्रपति ट्रंप ऐसी बातें कर रहे थे कि गोया वही लोग कोरोना की महामारी के ‘मुक्ति दूत’ होंगे। यह अकारण नहीं था कि ट्रंप का भाषण समाप्त होते होते इन कंपनियों के शेयरों के दामों में अचानक तेजी देखी गयी थी।

‘इस संकट के प्रति नज़र आयी प्रशासन की अकर्मण्यता और बिखराव को लेकर कोई जिम्मेदारी लेना दूर रहा’ उन्होंने ऐसी बात की कि वह ‘दुनिया में सर्वोत्तम था’। न केवल उन्होंने दावा किया कि कोरोना वायरस एक गंभीर ख़तरा नहीं है बल्कि यह भी ऐलान किया कि सब ठीक है और अपने आप को स्टॉक मार्केट के संभावित संकट पर ही केन्द्रित रखा। उनका समूचा जोर इसी बात पर था कि यह बताया जाए कि यह महामारी गोया एक विदेशी आक्रमण है। उन्होंने इस बीमारी को ‘‘विदेशी वायरस’’ जनित जिसका स्रोत चीन है यह विशेष तौर पर उल्लेखित किया और अभूतपूर्व ढंग से यात्राओं पर नियंत्रणों का ऐलान किया।

इतना ही नहीं जब ऐसे वैश्विक संकट के वक्त़ जबकि इस महामारी को ‘इन्सानियत का दुश्मन’ घोषित किया जा रहा है राष्ट्रपति ट्रंप इस कोशिश में लगे थे कि ‘कोविड 19 के लिए वैक्सीन तैयार कर रही जर्मन बायो टेक कम्पनी से सभी अधिकार खरीद लिए जाएं’ ताकि खूब मुनाफा कमाया जा सके। लाजिम था कि इस कोशिश के लिए उनकी जबरदस्त भर्त्सना हुई।

यह भी देखने में आ रहा है विकसित पूंजीवादी दुनिया के अन्य नेताओं की भी इस मामले में प्रतिक्रिया कोई खास भिन्न नहीं है।

जर्मन चैन्सेलेर एंगेला मर्केल ने इस बात को स्वीकारा कि 60 से 70 फीसदी जर्मन आबादी इससे प्रभावित हो सकती है, संक्रमण का शिकार हो सकती है – जिसका मतलब होगा कि लाखों लोगों की असामयिक मौत या ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने भी इस बात को कबूला कि ‘कई ब्रिटिश नागरिक असमय अपने आत्मीयों को खो सकते हैं’ लेकिन उन्होंने इस संकट से निपटने के लिए कोई अतिरिक्त फंड उपलब्ध नहीं कराये।

सर पैटरिपक वालेन्स, जो जॉन्सन के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार हैं, उन्होंने एक तरह से ब्रिटिश सरकार के मन में क्या चल रहा है इसे जुबां दी जब उन्होंने जोर दिया कि ‘‘ब्रिटिश हुकूमत को चाहिए कि वह इसके लिए अधिक कोशिश न करे कि कोरोना वायरस लोगों में संक्रमित हो: यह संभव भी नहीं है और वांछनीय भी नहीं।’’ ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अख़बार द टेलीग्राफ के मशहूर स्तंभकार ने गोया सत्ताधारी तबके के सरोकारों को प्रगट किया जब उन्होंने खुल कर लिखा ‘‘ कोविड 19 दूरगामी तौर पर लाभप्रद भी हो सकता है कि वह निर्भर बुजुर्गों को अधिक प्रभावित करे।’’ (https://www.wsws.org/en/articles/2020/03/14/pers-m14.html)

चाहे डोनाल्ड टंप हों, बोरिस जान्सन हों या पूंजीवादी जगत के तमाम कर्णधार हों, इस महामारी ने इस हक़ीकत को और उजागर किया है कि मितव्ययिता की नीतियां  (austerity measures) – जिसका मतलब स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य अवरचनाओं पर सार्वजनिक खर्चों में कटौती – जो अलग-अलग मुल्कों में अलग अलग स्तरों पर मौजूद हैं उनका जनता के स्वास्थ्य पर बेहद विपरीत प्रभाव पड़ने वाला है। नेशनल हेल्थ सर्विस- वह मॉडल जिसे ब्रिटिश सरकार ने अपनाया वह ऐसा संकट है जो इन विभिन्न मुल्कों में हावी होता दिख रहा है।

नेशनल हेल्थ सर्विस में कटौतियों का मतलब है एक ऐसी प्रणाली जहां इन्तज़ार की घड़ियां और बढ़ गयी हैं, जहां अत्यधिक काम से लदे और थके डॉक्टर और नर्सें हैं और जहां नया स्टाफ भरती करने की कोई स्थिति नहीं है, और अब उससे ही अपेक्षा की जा रही है कि मरीजों की बढ़ी प्रचंड तादाद को समाहित करे जिसे एक ऐसी बीमारी ने जकड़ा है जिसके बारे में हम खुद भी अधिक नहीं जानते हैं।

https://jacobinmag.com/2020/03/coronavirus-austerity-nhs-sick-leave)

मुनाफा आधारित मौजूदा प्रणाली की संरचनात्मक सीमाएं – जिसे आम भाषा में पूंजीवाद कहा जाता है – वह भी ऐसी घड़ी में बेपर्द हो रही है कि ऐसी कोई महामारी को नियंत्रित करने के लिए कोई दूरगामी योजना वह बना नहीं सकती। (https://www.theguardian.com/commentisfree/2020/mar/04/market-coronavirus-vaccine-us-health-virus-pharmaceutical-business)  

यह आम जानकारी है कि ऐसे किसी वायरस के भविष्य में प्रकोप को नियंत्रित रखने का सबसे महत्वपूर्ण उपाय वैक्सीन ही हो सकते हैं। आज जबकि कोरोना सुर्खियों में है, विगत दो दशकों में हम ऐसे वायरसों से कई प्रकोपों से हम गुजरे हैं – फिर वह चाहे सार्स हो, मेर्स हो, जिका हो या इबोला हो। ऐसे प्रकोपों से अनुसंधानकर्ताओं को इनके वैक्सीन बनाने के लिए प्रेरित भी किया मगर इबोला को छोड़ कर कहीं भी सफलता हाथ नहीं लगी है।

इसका कारण समझना कोई मुश्किल नहीं है जिसे ‘द गार्डियन’ ने स्पष्ट किया है:

मौजूदा ढांचे में दोनों दुनिया की सबसे ख़राब बातें मौजूद हैं- वह नये ख़तरों को लेकर अनुसंधान शुरू करने में बेहद ढीली दिखती है क्योंकि पैसे ही नहीं हैं और उसे तुरंत छोड़ देने में भी माहिर है जब उसे पता चलता है कि भविष्य में इसके लिए पैसे नहीं होंगे। यह बाज़ार आधारित प्रणाली है और बाज़ार हमेशा ही हमसे धोखा करता रहा है। 

सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की बढ़ती असफलता और एक ऐसा राज्य जिसे जनता के स्वास्थ्य की तुलना में कार्पोरेट के मुनाफों की चिन्ता है, ऐसी पृष्ठभूमि में ऐसी महामारी जैसी स्थिति सरकारों के कर्णधारों के लिए तमाम जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ देने का बहाना बनती है और वह व्यक्तिगत नागरिक पर ही सारी जिम्मेदारी डाल कर मुक्त हो जाते हैं, जैसा कि इन दिनों कहा जा रहा है: नियमित हाथ धोएं, घरों तक सीमित रहें, सामाजिक दूरी बनाए रखें। निश्चित ही यह सारे कदम जरूरी हैं, मगर सरकार की अपनी जिम्मेदारी का क्या?

मिसाल के तौर पर अगर स्वास्थ्य प्रणाली मजबूत नहीं रखी तो फिर तमाम ध्यान रखने के बावजूद जिन्हें संक्रमण हो जाएं उनके बड़े हिस्से के लिए मरने के अलावा कोई चारा नहीं है। इटली जैसा सापेक्षतः छोटा / छह करोड़ आबादी का मुल्क/ – जिसकी अर्थव्यवस्था दुनिया मे आठवें नम्बर पर है – वहां अगर मरने वालों की तादाद दो हजार के करीब पहुंच रही है, और तमाम मरीज बिना इलाज के दुर्गति का शिकार हो रहे हैं तो अन्दाज़ा ही लगाया जा सकता है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों का अधिकाधिक मजबूत रहना क्यों जरूरी है।

हर महामारी या आपदा की जिम्मेदारी नागरिक पर डालने की बात गोया ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्राी मार्गारेट थैचर /1979-1990/ के उन कथन  की ही पुष्टि करती है कि ‘अब कोई समाज नहीं है, अब महज व्यक्तिगत पुरूष और स्त्रियां हैं, और परिवार हैं। और कोई भी सरकार उसके लोगों के बिना कुछ भी नहीं कर सकती और लोगों को तो सबसे पहले अपना ध्यान रखना होता है।’

यह वही थैचर थीं जिन्हें पश्चिमी जगत में इस बात के लिए नवाज़ा जाता है कि उन्होंने राष्ट्रीयकृत उद्योगों के निजीकरण का रास्ता सुगम किया और कल्याणकारी राज्य को सीमित करती गयीं – जिसका मतलब था चाहे शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक अवरचनागत उद्योगों से राज्य की विदाई और मुनाफा कमाने वाली यंत्रणा को केन्द्र में रखना।

(सुभाष गाताडे लेखक, चिंतक और पत्रकार हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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