डोनाल्ड ट्रंप की नीतियां न केवल अप्रवासियों के लिए खतरे की घंटी हैं, बल्कि अमेरिका की उस छवि को भी ध्वस्त कर रही हैं, जिसने सदियों से दुनिया भर के लोगों को बेहतर जीवन का सपना दिखाया था। ट्रंप जिस गुणवत्ता की बात कर रहे हैं, वह वास्तव में अमीर, व्हाइट और उनकी विचारधारा से मेल खाने वाले लोगों तक सीमित है। जो लोग युद्ध, गरीबी और दमन से भागकर अमेरिका आने की कोशिश कर रहे हैं, उनके लिए अब कोई जगह नहीं है।
ट्रंप के इस बार के कदम सिर्फ अवैध अप्रवास को रोकने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे कानूनी अप्रवास को भी खत्म करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। दक्षिणी सीमा पर शरणार्थियों को प्रवेश से रोकने से लेकर पहले से स्वीकृत अफगान शरणार्थियों की उड़ानें रद्द करने तक, उन्होंने हर संभव तरीका अपनाया है ताकि अमेरिका की धरती पर आने वाले लोगों की संख्या कम हो। यहां तक कि जन्मसिद्ध नागरिकता को भी खत्म करने की कोशिश की जा रही है, ताकि प्रवासियों के बच्चों को अमेरिकी होने का हक न मिल सके।
उनकी नीतियां स्पष्ट रूप से नस्लीय भेदभाव पर टिकी हुई हैं। वीज़ा आवेदकों के लिए वैचारिक जांच की योजना यह सुनिश्चित करने के लिए है कि वे ट्रंप के नज़रिये से मेल खाते हों। यहां तक कि इज़राइल विरोधी विचार रखने वालों को भी देश से बाहर करने की योजना बनाई जा रही है। यह न केवल अमेरिकी संविधान के मूल्यों के खिलाफ है, बल्कि यह दिखाता है कि अमेरिका किस दिशा में बढ़ रहा है-स्वतंत्रता और समानता से दूर, और नियंत्रित विचारधारा की ओर।
ट्रंप के समर्थक यह मानते हैं कि अप्रवासी अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर बोझ हैं, जबकि सच्चाई इसके उलट है। अमेरिकी उद्योगों को कुशल श्रमिकों की आवश्यकता होती है, जिसे पूरा करने के लिए H-1B जैसे वीज़ा कार्यक्रम बनाए गए थे।
लेकिन ट्रंप इस कार्यक्रम को भी सीमित कर देना चाहते हैं ताकि केवल सबसे अधिक वेतन पाने वाले प्रवासी ही आ सकें। इसका सीधा असर उन लोगों पर पड़ेगा, जो बेहतर अवसरों की तलाश में अमेरिका आते हैं और वहां की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाते हैं।
लेकिन क्या अमेरिका के लोग वास्तव में ट्रंप की इन नीतियों का समर्थन करते हैं? हालिया सर्वेक्षण बताते हैं कि अधिकांश अमेरिकी कानूनी अप्रवास के पक्ष में हैं और दशकों से वहां रह रहे, कर चुकाने वाले अप्रवासियों को बाहर करने के खिलाफ हैं। ट्रंप का अभियान इस नफरत को हवा देकर चुनावी बढ़त हासिल करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन यह अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय छवि को नुकसान पहुंचाने वाला कदम है।
अब ट्रंप प्रशासन की नजर अमेरिका के शिक्षा विभाग पर भी पड़ गई है। अरबपति एलन मस्क और उनके साथियों की मदद से ट्रंप अब इस पूरे विभाग को खत्म करने की योजना बना रहे हैं। शिक्षा विभाग का अस्तित्व अमेरिका के छात्रों के भविष्य के लिए अनिवार्य है, लेकिन ट्रंप इसे पूरी तरह समाप्त करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि राज्यों को शिक्षा नीति पर पूरा नियंत्रण मिल जाए। यह उन्हीं विचारों की अगली कड़ी है, जिनके तहत वह सामाजिक कल्याण और सार्वजनिक सेवाओं को धीरे-धीरे नष्ट कर रहे हैं।
मस्क और ट्रंप की यह साजिश केवल संघीय सरकार के आकार को छोटा करने की कवायद नहीं है, बल्कि यह अमेरिका की शिक्षा व्यवस्था को ऐसी दिशा में ले जाने का प्रयास है, जहां शिक्षा पूरी तरह पूंजीपतियों और धनी वर्ग के नियंत्रण में आ जाए। संघीय शिक्षा विभाग को खत्म करने का मतलब होगा कि कम आय वाले छात्रों को मिलने वाली आर्थिक सहायता बंद हो जाएगी, दिव्यांग छात्रों के लिए बनाए गए कानून कमजोर हो जाएंगे, और शिक्षा में नागरिक अधिकारों की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी।
शिक्षा विभाग को खत्म करने का एक और छिपा हुआ मकसद है-यह सुनिश्चित करना कि अमेरिकी छात्र एक खास विचारधारा में ढल जाएं। ट्रंप और उनके सहयोगी शिक्षा में LGBTQ+ अधिकारों की सुरक्षा और छात्र ऋण माफी जैसी नीतियों से नाखुश हैं। ट्रंप प्रशासन का यह प्रयास केवल शिक्षा प्रणाली पर हमला नहीं है, बल्कि यह व्यापक सांस्कृतिक युद्ध का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य समाज में समानता और विविधता को कुचलना है।
लेकिन क्या अमेरिकी जनता इस कदम का समर्थन करती है? हाल के एक सर्वेक्षण में 61% अमेरिकी नागरिकों ने शिक्षा विभाग को खत्म करने के खिलाफ राय दी। अधिकांश नागरिक चाहते हैं कि शिक्षा का बजट बना रहे और संघीय सरकार इस क्षेत्र में अपनी भूमिका निभाती रहे। ट्रंप का यह कदम उनकी पुरानी रणनीति का हिस्सा है-पहले किसी सार्वजनिक संस्थान को ‘निष्क्रिय’ बताकर उस पर हमला करो और फिर इसे पूरी तरह खत्म करने की कोशिश करो।
अमेरिका दशकों से एक ऐसा देश रहा है, जिसने दुनिया भर के लोगों को अपने यहां बसने और एक नया जीवन शुरू करने का अवसर दिया। लेकिन ट्रंप की नीतियां इस बुनियादी धारणा पर ही हमला कर रही हैं। यह सिर्फ एक व्यक्ति की सनक नहीं है, बल्कि यह अमेरिका की अंतर्चेतना को बदलने का सोचा-समझा प्रयास है। और अब शिक्षा के क्षेत्र में उनका हमला यह साबित करता है कि वे अमेरिका के बौद्धिक और सामाजिक भविष्य को भी ध्वस्त करने पर उतारू हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या अमेरिका वास्तव में इस नई पहचान को स्वीकार करने के लिए तैयार है?
(मनोज अभिज्ञान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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