Wednesday, April 24, 2024

यह सरकार के साथ ही बाजार की ताकतों की भी हार है!

जिन तीन कृषि कानूनों को केंद्र की शक्तिशाली सरकार अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना चुकी थी, उन्हें वापस लेने की ‘महाप्रतापी’ प्रधानमंत्री की ‘विनम्र’ घोषणा बताती है कि अगर आंदोलन का उद्देश्य पवित्र हो, आंदोलन के नेतृत्व में चारित्रिक बल हो और आंदोलनकारियों में धीरज हो तो शक्तिशाली सरकारों को भी झुकाया जा सकता है और उन सरकारों के पीछे खड़ी बाजार की बड़ी से बड़ी ताकतों को हराया भी जा सकता है। अहिंसक और शांतिपूर्ण आंदोलनों को पूरी तरह से कुचल देना किसी जालिम से जालिम हुकूमत के लिए भी आसान नहीं होता। 

डेढ़ साल पहले सरकार ने इन तीनों कानूनों को बनाने में जिस तरह अभूतपूर्व हड़ड़ी दिखाई थी, उसके मद्देनजर उसके लिए अपने कदम पीछे खींचने के इस फैसले तक पहुंचना आसान नहीं रहा होगा। सब जानते है कि कृषि क्षेत्र में तथाकथित ‘सुधार’ लागू करने के लिये सरकार पर देश के सर्वग्रासी ‘कॉरपोरेट जगत’ का कितना दबाव था। डेढ़ साल पहले जब दुनिया के तमाम देशों की सरकारें कोरोना महामारी से निबटने में लगी हुई थी, तब भारत सरकार उस महामारी से मची अफरातफरी के शोर में देशव्यापी लॉकडाउन लागू कर खेती को कॉरपोरेट के हवाले का ताना-बाना बुन रही थी। इस सिलसिले में उसने पहले तो अध्यादेश जारी किए और फिर तीन महीने बाद संसद के जरिए उन अध्यादेशों को कानून की शक्ल देने के लिए तमाम संसदीय नियम-कायदों और परंपरा की अनदेखी कर जोर-जबरदस्ती का सहारा लिया। 

देश के कॉरपोरेट महाप्रभुओं को सरकार चला रहे अपने ‘सेवकों’ की वफादारी पर कितना भरोसा था कि एक बड़े कॉरपोरेट घराने ने तो कृषि कानूनों के बनने की प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही अनाज संग्रहण की तैयारियां शुरू कर दी थीं। युद्ध स्तर पर तैयार हुए उसके विशालकाय अनाज गोदामों के कई फोटो और वीडियो डिजीटल मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए सामने आ चुके थे, जो इस बात की तसदीक करते थे कि देश की समूची खेती-किसानी पर काबिज होने के लिये बड़े कॉरपोरेट घराने कितने बेताब हैं। 

दरअसल, तीनों कृषि कानूनों को अपनी मौत का परवाना मान रहे किसानों के आंदोलन ने जिस द्वंद्वंद की शुरुआत की थी, उसमें वैसे तो सामने सरकार थी लेकिन परोक्ष में कॉरपोरेट शक्तियां भी थी। इसलिए कृषि कानूनों को रद्द करने का फैसला सरकार की ही नहीं बल्कि जिनके लिए वह रात-दिन काम कर रही है, उन कॉरपोरेट घरानों की और हाल के वर्षों में हावी हुई कॉरपोरेट संस्कृति की भी करारी हार है।

पिछले सात साल के दौरान सरकार और कॉरपोरेट घरानों की यह दूसरी बडी शिकस्त है। इससे पहले 2014 में धूम-धड़ाके से प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी जब संशोधित भूमि अधिग्रहण विधेयक लेकर आए थे तब भी उन्हें विपक्षी दलों और किसान संगठनों के भारी विरोध का सामना करते हुए अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे। उस समय भी इस विधेयक पेश करने के पहले सरकार ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जारी किया था, जैसे पिछले साल कृषि कानूनों को लेकर किया गया था। यूपीए सरकार के समय बने कानून में भूमि अधिग्रहण के लिए 80 फीसदी किसानों की सहमति अनिवार्य थी। भूमि अधिग्रहण के नए प्रस्तावित कानून में निजी और सरकारी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण आसान बनाने के लिए किसानों की सहमति का प्रावधान खत्म कर दिया गया था। 

सरकार के इस अध्यादेश का किसानों और खेत मजदूरों के संगठनों के साथ ही विपक्षी दलों ने भी कांग्रेस की अगुवाई में एकजूट होकर विरोध किया था। इस विरोध को नजरअंदाज करते हुए सरकार ने उस अध्यादेश को कानूनी शक्ल देने के लिए संसद में विधेयक पेश किया था। चूंकि लोकसभा में सरकार के पास पर्याप्त बहुमत था इसलिए वहां तो वह असहमति की आवाज को अनसुना करते हुए विधेयक पारित कराने में कामयाब हो गई थी, लेकिन राज्यसभा में वह ऐसा नहीं कर सकी थी, क्योंकि वहां वह बहुमत से काफी दूर थी। उसने विपक्षी दलों में फूट डाल कर बहुमत जुटा लेने की उम्मीद के चलते चार बार अध्यादेश जारी किया, लेकिन बहुमत जुटाने की उसकी तमाम कोशिशें नाकाम रहीं। आखिरकार 31 अगस्त 2015 को प्रधानमंत्री मोदी ने वह विवादास्पद विधेयक वापस लेने का ऐलान किया। उस समय भी उन्होंने अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में उस विधेयक को लेकर नाटकीय अंदाज में ऐसा ही भावुक भाषण दिया था, जैसा कि इस बार कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान करते हुए दिया। 

बहरहाल यह बाजारी ताकतों की निर्मम और बेलगाम हसरतों पर किसानों, विपक्षी दलों और नागरिक समूहों के संगठित प्रतिकार की जीत का भी क्षण है, जिसके दूरगामी प्रभाव अवश्यम्भावी है। यह जीत संगठित क्षेत्र के उन कामगार संगठनों के लिए एक शानदार मिसाल है, जो प्रतिरोध की भाषा तो खूब बोलते हैं लेकिन कॉरपोरेट के शैतानी इरादों से लड़ने और और उनके सामने चट्टान की तरह अड़ने का साहस और धैर्य नहीं दिखा पाते हैं। उनकी इसी कमजोरी की वजह से सरकार एक के बाद एक सार्वजनिक क्षेत्र के तमाम उपक्रम अपने चहते कॉरपोरेट महाप्रभुओं के हवाले करती जा रही है। 

सरकार की ओर से किसान आंदोलन को बदनाम करने और उसे तोड़ने के लिए क्या-क्या नहीं कहा और किया गया! प्रधानमंत्री मोदी ने आंदोलनकारी किसानों को आंदोलनजीवी और परजीवी कहा। उनकी सरकार के किसी मंत्री ने किसानों को खालिस्तानी कहा, तो किसी ने माओवादी, किसी ने पाकिस्तानी, किसी ने देशद्रोही, किसी ने टुकड़े-टुकड़े गैंग और किसी ने गुंडा-मवाली कहा। आरोप लगाए गए कि यह आंदोलन विदेशी ताकतों के इशारे पर और विदेशी आर्थिक मदद से चल रहा है, जिसका मकसद देश के विकास को बाधित और सरकार को अस्थिर करना है। यह आंदोलन कुछ खास इलाकों के संपन्न किसानों का ऐसा आंदोलन है जिसे देश के अधिसंख्य किसानों का समर्थन हासिल नहीं है। सरकार की तरफदारी करते हुए अफवाह फैलाने वाले तंत्र में तब्दील हो चुका कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया भी पूरी ताकत से आंदोलन को किस कदर बदनाम करने में जुटा था, यह भी देश और दुनिया देखा। 

आंदोलनकारी किसानों को दिल्ली में आने से रोकने के लिए कांटेदार तार बिछाए गए, सड़कों पर कीलें ठोंके गए, खाइयां खोदी गईं, किसानों पर लाठियां बरसाई गईं, कड़ड़ाती सर्दी में उन ठंडा पानी फेंका गया, उनके ट्रैक्टर और अन्य वाहन जब्त किए गए। यही नहीं, उन्हें वाहन से कुचल कर मारा भी गया। दिल्ली की सीमाओं पर अहिंसक तरीके से आंदोलन कर रहे किसानों पर पुलिस की मौजूदगी में सत्तारूढ़ दल से जुड़े गुंडों ने हमला किया। उनके तंबुओं पर पथराव किया गया, उनमें आग लगाने की कोशिशें की गईं। दिल्ली में प्रवेश करने वाले सभी रास्तों को बैरिकेड्स लगा कर बंद कर दिया गया और तोहमत किसानों पर लगाई गई कि उन्होंने रास्ता रोक रखा है। सरकार की ओर से यही झूठ सुप्रीम कोर्ट में भी बार-बार बोला गया। 

किसान नेताओं का मनोबल तोड़ने के लिए उनके घरों पर आयकर और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के छापे डलवाए गए। किसानों पर झूठे आरोप लगा कर उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किए गए। आंदोलन प्रभावित एक राज्य के मुख्यमंत्री तो खुलेआम अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को किसानों पर हमला करने और उनके सिर फोड देने के निर्देश देते दिखाई दिए। ऐसे ही निर्देश उसी राज्य के एक प्रशासनिक अधिकारी भी पुलिसकर्मियों को देते हुए दिखे। उनके इन निर्देशों पर पुलिस और सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं को अमल करते हुए भी पूरे देश ने देखा। पिछले एक वर्ष से जारी किसानों का यह आंदोलन दुनिया के इतिहास में संभवत: इतना लंबा चलने वाला पहला ऐसा आंदोलन है, जो हर तरह की सरकारी और सरकार प्रायोजित गैर सरकारी हिंसा का सामने करते हुए भी आज तक पूरी तरह अहिंसक बना हुआ है। हालांकि इसको हिंसक बनाने के लिए सरकार की ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। तमाम तरह से उकसावे की कार्रवाई हुई है, लेकिन आंदोलनकारियों ने गांधी के सत्याग्रह का रास्ता नहीं छोड़ा है। यही नहीं, इस आंदोलन ने सांप्रदायिक और जातीय भाईचारे की भी अद्भूत मिसाल कायम की है, जिसे तोड़ने की सरकार की तमाम कोशिशें भी नाकाम रही हैं। 

किसानों को छलने, उन्हें हतोत्साहित करने और उनके आंदोलन को तोड़ने के लिए सरकार ने ही प्रयास नहीं किए बल्कि न्यायपालिका ने भी इस काम में कुछ हद तक परोक्ष भूमिका निभाई। किसान आंदोलन शुरू होने के दो महीने बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने तीनों कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगा दी थी और तीन सदस्यों की एक कमेटी बना कर इस मामले में सलाह-मशविरे की प्रक्रिया शुरू कराई थी। हालांकि आंदोलनकारी किसानों ने अपने को इस प्रक्रिया दूर रखा था, फिर भी देश के दूसरे कुछ किसान संगठनों और कृषि मामलों के जानकारों ने अपने सुझाव सुप्रीम कोर्ट की कमेटी को दिए थे। कमेटी ने 31 मार्च को अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी थी। लेकिन कमेटी की रिपोर्ट मिलने के बाद उस पर आगे कार्यवाही करने के बजाय पहले तो सुप्रीम कोर्ट गरमी की छुट्टियों पर चला गया और छुट्टियां खत्म होने के बाद भी उसने रिपोर्ट को खोल कर देखा तक नहीं। 

यह सब चलता रहा और इस दौरान ठंड, गरमी, बरसात और कोरोना महामारी का सामना करते हुए आंदोलन स्थलों पर करीब 800 किसानों की मौत हो गई। लेकिन गाडी के नीचे कुचल जाने वाले कुत्ते के बच्चे की मौत पर भी द्रवित हो जाने वाले प्रधानमंत्री पर इसका कोई असर नहीं हुआ। सरकार के मंत्री और सत्तारूढ़ दल के नेता उन किसानों की मौत को लेकर भी निष्ठुर बयान देते रहे, खिल्ली उड़ाते रहे। इसी के साथ सरकार की ओर से यह बात भी लगातार दोहराई जाती रही कि कानून किसी भी सूरत में वापस नहीं लिए जाएंगे। 

सरकार के इस दमनचक्र का मुकाबला करते हुए संगठित और संकल्पित किसानों ने नजीर पेश की है कि मौजूदा दौर में नव औपनिवेशिक शक्तियों से अपने हितों की, अपनी भावी पीढ़ियों के भविष्य की रक्षा के लिये कैसे जूझा जाता है। उन्हें अच्छी तरह अहसास था कि अगर कॉरपोरेट और सत्ता के षड्यंत्रों का डट कर प्रतिकार नहीं गया तो उनकी भावी पीढ़ियां हर तरह से गुलाम हो जाएंगी।

जब किसी आंदोलित समूह का मकसद साफ हो और उसके साथ सामूहिक चरित्र बल हो तो सत्ता को अपने कदम पीछे खींचने ही पड़ते हैं, खास कर ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में, जिनमें वोटों के खोने का डर किसी भी सत्तासीन राजनीतिक नेतृत्व के मन में सिहरन पैदा कर देता है। देश की किसान शक्ति ने सरकार के मन में यह डर पैदा करने में कामयाबी हासिल की है।

किसान आंदोलन की यह जीत न सिर्फ सरकार के खिलाफ बल्कि कॉरपोरेट की सर्वग्रासी और बेलगाम हवस के खिलाफ किसी सामाजिक-आर्थिक समूह की ऐसी ऐतिहासिक उपलब्धि है जो समाज के अन्य समूहों को भी रास्ता दिखाती है कि घनघोर अंधेरे में भी अपनी संकल्प शक्ति और साफ राजनीतिक दृष्टि के सहारे उजालों की उम्मीद जगाई जा सकती है। यह शक्तिशाली बाजार के समक्ष उस मनुष्यता की भी जीत है, जिसे कमजोर करने की तमाम कोशिशें बीते तीन दशकों से की जा रही हैं। 

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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