अभी हाल ही में 27 जनवरी, 2025 को हमारे मित्र, पत्रकार, लेखक रूपेश कुमार सिंह की झारखंड के सरायकेला केस में जमानत याचिका सुप्रीम कोर्ट से खारिज हो गई। कारणों में सबसे बड़ा कारण एनआईए जैसे केस में जमानत का न होना और ज्यादा पेंडिंग केस का होना रहा है। हालांकि अभी तक एनआईए के केस में जमानत याचिका फाइल ही नहीं की गई है। और एक केस को छोड़ कर बाक़ी के केसों में इस केस के बाद नाम जोड़ा गया है।
इस खारिज स्पेशल लीव पेटिशन के लिखित आर्डर में कहा गया है कि “हम हाईकोर्ट के आर्डर में हस्तक्षेप करने के इच्छुक नहीं हैं।”
रूपेश की गिरफ्तारी 17 जुलाई, 2022 को हुई थी, ढाई साल के बाद भी जमानत की जो उम्मीद थी वह खत्म हो गयी। गिरफ्तारी के वक्त पांच वर्ष का रहा बेटा जो अब साढ़े सात वर्ष का हो गया है निकट भविष्य में भी पापा के प्यार से महरूम ही रहेगा। जीवन साथी जो ढाई वर्षों से अपनी टीचर की नौकरी खोकर संघर्ष करती हुई अकेले ही सारी जिम्मेदारियां उठा रही हैं, निकट भविष्य में भी उठाती रहेंगी।
रूपेश कुमार सिंह की पत्रकारिता और आरोप
बताने की जरूरत शायद नहीं है कि रूपेश कुमार सिंह एक स्वतंत्र पत्रकार हैं जो वर्तमान में जेल में बंद हैं। जेल में इसलिए क्योंकि उन पर माओवादी कनेक्शन का आरोप लगा हुआ है। एक पत्रकार जो कि अपनी कलम से ईमानदारी बरत रहा है जो कि प्रेस के सही अर्थों को जी रहा है, प्रेस की स्वतंत्रता का उदाहरण बना हुआ है, जेल में बंद कर दिया गया है और उसके साथ कैद है उसके लिखने की क्षमता, उसकी योग्यता। चूंकि पिछले ढाई सालों से रूपेश सलाखों में कैद हैं, इसलिए उन्होंने ढाई वर्षों से कुछ भी नहीं लिखा है और उनकी कोई रचना भी जेल में होने के कारण प्रकाशित नहीं हुई है।
2014 से ही रूपेश कुमार सिंह ने झारखंड के जमीनी मुद्दे जो जल -जंगल-जमीन से जुड़े हैं, जो वहाँ की आदिवासी-मूलवासी जनता से जुड़े हैं, की मुखर आवाज की ग्राउंड जीरो पर जाकर रिपोर्टिंग की है। चाहे बोकारो के विस्थापितों का मुद्दा हो, चाहे जमीन के मुद्दे पर हजारीबाग के ब़ड़कागांव गोलीकांड की सच्चाई हो, चाहे ललमटिया खदान हादसा हो, चाहे नक्सल नाम पर आदिवासी मूलवासी तथा उनके संगठन पर राजकीय दमन हो, चाहे फर्जी मुठभेड़ में ग्रामीण की ईनामी नक्सली बताकर हत्या हो, चाहे नक्सली कहकर ग्रामीण की हत्या हो जिसे बाद में सरकार भी मानवीय चूक मान बैठी।
चाहे नक्सली के नाम पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, नेताओं की गिरफ्तारी हो, चाहे कोरोना काल में मानवता की खोई सच्ची तस्वीर हो, चाहे अनाज के अभाव में मरे बच्चे सहित लोगों का सच हो, चाहे कॉरपोरेट जगत की जमीनी लूट हो, चाहे विस्थापितों के विरोध की कहानी हो, चाहे गिरिडीह जिले में औद्योगिक प्रदूषण से तंग-तबाह हुई ग्रामीण जिंदगी की सच्चाई हो, इन सारे मुद्दों पर पत्रकार रूपेश कुमार सिंह ने मुखरता से रिपोर्टिंग की और लिखी है।
लिखने के लिए तो वे वादियों की खूबसूरती पर, गगनचुंबी इमारतों के सौंदर्य पर, सिक्स लेन सड़क व फ्लाईओवर पर, आसमान में उड़ान भरते हवाई जहाज पर , अपने नेताओं की विदेश यात्रा पर, या चांद पर पहुंची सफलता पर भी लिख सकते थे, मगर चूंकि यह दुनिया, यह सिस्टम चंद लोगों के सुखद जिंदगी के लिए नहीं बनाया गया है।
जनता का एक मेहनतकश हिस्सा रोजमर्रा की जरूरतों से जूझ रहा हो, मजदूर-किसान कर्ज की वजह से आत्महत्या कर रहे हों, पढ़े-लिखे युवा बेरोजगार घूम रहे हों, गरीब सड़क किनारे रात काटने को अभिशप्त हो, वहां कुछ सड़कों, फ्लाईओवर का निर्माण और चमचमाती अत्याधुनिक तकनीकयुक्त मार्केट लोगों को आकर्षित तो कर सकती है, विश्व पटल पर अत्याधुनिक होने का मॉडल तो पेश कर सकती है, पर विकास का पैमाना नहीं बन सकती। जनता के बड़े हिस्से के अधिकार और जरूरतों को नजरअंदाज करने वाली इस सफलता पर एक संवेदनशील इंसान नहीं लिख सकता।
यही वजह है कि रूपेश जी जैसे कुछ लोग इस अधूरे और सेलेक्टिव विकास की सफलता पर नहीं लिखते, बल्कि उसके नीचे दब रहे लोगों के बड़े वर्ग की स्थिति पर लिखते हैं। और यही चीज सत्ता को रास नहीं आती, क्योंकि ये उनकी सच्चाई की पोल खोलता है।
फिर नक्सलवाद और नक्सल इलाका का मामला तो बेहद ही संवेदनशील है। क्योंकि एक तरफ नक्सल मुक्त अभियान के नाम पर वहां के ग्रामीणों की दयनीय स्थिति की सच्चाई है, तो वहीं जंगल पहा़डों के नीचे दबी खनिज सम्पदा की लूट की सच्चाई है। जिस खनिज सम्पदा का उपयोग संयम के साथ जनता के बड़े वर्ग के हित में, भविष्य की पीढ़ियों की जरुरतों को ध्यान में रखते हुए, पर्यावरण के हित को ध्यान में रखते हुए सीमित मात्रा में उपयोग की जानी चाहिए, कारपोरेट जगत की उस पर तीखी नजर है। कारपोरेट जगत उसे अपने निजी लाभ के लिए अंधाधुंध उपयोग करने के लिए लालायित है, और कर भी रहा है। देश में ऐसे कितने उद्योग हैं जो पर्यावरण प्रदूषण के मानकों के हिसाब से संचालित होते हैं?
कितनी खनन योजनाएं हैं जो भावी पीढ़ियों के हित को ध्यान में रखकर हो रही हों? भावी पीढ़ी तो दूर की बात है वर्तमान की जनता की जरूरतें भी यहां नगण्य हैं। जो विस्थापित किए जाते हैं उन्हें भी रोजगार नसीब नहीं है, छत नसीब नहीं है।
बड़े दुर्भाग्य की बात है कि इन्हें इस लक्ष्य के लिए सरकार का सहयोग प्राप्त रहता है। इसलिए नक्सल मुक्त अभियान के नाम पर कई ग्रामीण जेलों में बंद हैं और उनकी सच्चाई लिखने, बोलने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक, कलाकार भी।
शायद ही किसी पत्रकार, लेखक की कलम इन बिंदुओं पर चले, और जिनकी चलती है वे आज नहीं तो कल ज़रूर किसी बनावटी आरोप के तहत जेल में डाल दिए जाते हैं। नक्सली का आरोप तो सबसे बेहतर साबित होता है क्योंकि इसके बाद कानून की नजर में आप गंभीर आरोपी हो और एक विकास विरोधी, कानून विरोधी, देश विरोधी व्यक्ति भी।
अपनी गिरफ्तारी 17 जुलाई, 2022 के चार दिन पहले ही रूपेश ने गिरिडीह जिले के औद्योगिक प्रदूषण पर ग्राउंड रिपोर्टिंग की थी, और इस रिपोर्टिंग से पूरे गिरिडीह जिले के सैकड़ों उद्योगों द्वारा भीषण प्रदूषण फैलाने का सच उजागर हुआ था, किस तरह कचरे का पहाड़ आस-पास के इलाके के ग्रामीणों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है, लोग परेशान हैं, को उभारा गया था। साथ ही इस रिपोर्टिंग से प्रदूषण के प्रभाव से एक 12 साल की बच्ची का वीभत्स रूप से विकृत हो रहा चेहरा भी सामने आया था, जो कि सनसनीखेज मामला बन गया था। ये प्रदूषण फैलाने वाले औद्योगिक धंधे सरकार की चुप्पी के साथ वर्षों से फलते फूलते आए हैं। यह सबकी मिलीभगत और भ्रष्टाचार को उजागर करता है।
इस लेख की सच्चाई को गिरफ्तारी के कारणों से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता। जिस मामले में गिरफ्तारी हुई है, वह अक्टूबर 2021 का मामला है जबकि गिरफ्तारी 17 जुलाई, 2022 को हुई। एक बड़ी सच्चाई अपनी रिपोर्टिंग से उभारने के बाद।
इस गिरफ्तारी के बाद रूपेश कुमार सिंह को झारखंड के और दो दो मामलों में भी अभियुक्त बना दिया गया, जिसमें से एक तो 2018 का है और दूसरा जून 2022 का। फिलहाल इन दो केसों में जमानत मिल चुकी है। इन तीनों- चारों केसों में एफआईआर नक्सली घटना को अंजाम देने के मामले पर पुलिस द्वारा नक्सल नेता बताए जाने वाले लोगों पर हुआ है, उसी एफआईआर पर रूपेश कुमार सिंह का भी केस में नाम जोड़ दिया गया है, जो धाराएं उन पर लगाई गई हैं उसी की कॉपी पेस्ट रूपेश जी के लिए भी कर दी गई है, जिस कारण एक तरफ जाने माने पत्रकार होने वाले शख्स दूसरी तरफ माओवादी के बड़े लीडरों के रूप में चिन्हित लोगों के लिस्ट में डाल दिये गए हैं। इस तरह कागजों पर पत्रकार की छवि पर दूसरी पहचान की ओवरलैपिंग कर दी गई है।
केसों की श्रृंखला
17 जुलाई, 2022 के पहले का भी एक केस है, 2019 का बिहार के शेरघाटी के डोभी थाना क्षेत्र का। उस वक्त 9 जून 2017 को जो एक डोली मजदूर मोती लाल बास्के की हत्या ईनामी नक्सली कहकर कर दी गई थी उस पर रूपेश ने वृहद रिपोर्टिंग की थी और उसके बाद फिर न्याय दिलाने का कैंपेन चल पड़ा। चुनावी पार्टी झामुमो सहित मजदूर संगठनों ने मोतीलाल बास्के को न्याय दिलाने के लिए आंदोलन किया। काफी बड़े तौर पर इस हत्या से सत्ता पर सवाल खड़े हो गए थे परिणामस्वरूप कुछ दिनों बाद आवाज उठाने वाले मजदूर संगठन, मजदूर संगठन समिति को बैन कर दिया गया था, जिस बैन पर भी रूपेश ने लेख वगैरह लिखे थे, हालांकि बाद में झारखण्ड हाईकोर्ट द्वारा इस बैन को हटा दिया गया। पर इस जुझारू लेखन के परिणाम के रूप में जून 2019 में उनकी गिरफ्तारी कर दी गई। पर उस वक्त कुछ बेहतर बातें यह थीं कि जिस बनावटी आरोप के तहत उन्हें गिरफ्तार किया गया था, उसकी चार्जशीट छ: महीने में भी दाखिल नहीं की गई थी। डिफोल्ट बेल पर वे रिहा हुए थे। साथ ही वह पहला केस था जो उन पर थोपा गया था। इस तरह कोई आपराधिक इतिहास भी तैयार नहीं किया गया था, रूपेश छ: महीने में बाहर आए और पुनः लेखन शुरू कर दिए।
पर 2022 की गिरफ्तारी के लिए वह केस जिस पर डिफोल्ट बेल पर रिहाई हुई थी, आपराधिक इतिहास की नींव बन गई। और इस बार मामला गंभीर है क्योंकि अब तो पहले से ही इन पर एक केस दर्ज है, जाहिर सी बात है इसके बाद जितने केस लगाए जाएंगे, चाहे वे कितने ही बनावटी क्यों न हो, पर आपराधिक इतिहास की एक श्रृंखला तैयार करेंगे, और इस तरह एक ईमानदार, जनपक्षीय, जमीनी रिपोर्टिंग करने वाला पत्रकार के व्यक्तित्व को आपराधिक इतिहास से अलंकृत करेंगे। फिलहाल सब मिलाकर पांच केसों से अलंकृत किया जा चुका है।
गंभीर आरोप, यूएपीए के तहत गिरफ्तारी
चूंकि रूपेश पर वे सारी धाराएं ही लगाई गई हैं जो कि उस केस के प्राथमिक अभियुक्तों पर लगाया गया है, जिसमें यूएपीए की धाराएं भी शामिल हैं जो खुद में गंभीर हैं जिसका मतलब ही है निर्दोष होने की हालत में भी कम से कम 3- 5 वर्ष जेल जीवन। यह बात अलग है कि हमारे सुप्रीम कोर्ट ने यूएपीए में भी जमानत नियम और जेल को अपवाद माना है।
पर व्यवहार में यूएपीए के आधार पर जमानत बिना वर्षों गुजरे नहीं मिलती, और केस भी इतना जल्दी खत्म होता नहीं कि न्याय जल्द हो सके। यूएपीए के तहत लोग 5 वर्षों, 10 वर्षों तक कैद की सजा काट लेते हैं। ऐसे भी उदाहरण हैं जो 14 वर्षों बाद बाइज्जत बरी हुए हैं, पर वह बीते वर्षों का हिसाब किसी को नहीं मिलता। ना ही ऐसी कोई प्रक्रिया विकसित की गई है जो कि इससे सबक लेकर बाकी वर्तमान में कैद लोगों के भविष्य को बचा सके।
यहां न्याय की लम्बी न्यायिक प्रक्रिया में एक युवा अपनी उम्र का अहम् हिस्सा खो देने के लिए मजबूर है, जबकि न ही उसने कोई घोटाला किया, भ्रष्टाचार की, लूट पाट किया, अवैध अथाह धन कमाया, न ही रंगदारी कर लोगों को डरा धमका कर पैसा कमाए, उसने किया बस इतना ही कि भ्रष्ट सिस्टम से त्रस्त लोगों का पक्ष देखा, उनकी स्थिति को अपनी रचना के जरिये स्थान दिया। इस कारण वे सच्ची कहानियाँ जो उन गाँव देहातों में हर रोज दबकर वहीं खत्म हो जाती थीं, इन रचनाओं के जरिये सभी की नजरों के सामने आयीं। उसने अपनी ईमानदारी, स्वाभिमान, संवेदनशीलता की कीमत, दूसरे शब्दों में कहें तो न्याय का सच्चा मित्र बनने की कीमत, चुकाया है अपनी जिंदगी के युवा दिनों के ढाई साल खोकर, आगे भी यह प्रक्रिया जारी है।
एक लेखक की कलम उसकी जिंदगी होती है, पर अभी वह महरूम है अपनी कलम से, अपनी रचना से, कल्पना कीजिये कितनी नीरसता भरी होगी उस जिंदगी में जहाँ जिंदगी में रंग लाने वाली आपकी कला ही आपके साथ न हो। जेलें आज ऐसे कलाकारों को यातना देने के लिए धड़ल्ले से इस्तेमाल की जा रही हैं।
बेटे की उम्मीद, पापा कब आएंगे
इन सब राजनीति के बीच एक मासूम बच्चा अपना बचपन काट रहा है। साढ़े सात वर्ष का बच्चा ढाई वर्षों से जेल को समझने की कोशिश कर रहा है। उसकी नजर में दुनिया वैसी नहीं रहेगी जैसे बाकी बच्चों की होती है।
वह पांच वर्ष का था जब पिता की गिरफ्तारी हुई थी, जब उसके पिता गिरफ्तार कर ले जाए जा रहे थे, तब वह मासूम सारी परिस्थितियों से अनभिज्ञ गहरी नींद में सो रहा था और जब जागा तो पापा ले जाए जा चुके थे। आज वह सात साल का हो गया है हर वर्ष दिल में यह उम्मीद लिए वह अपने जन्मदिन का इंतजार करता है कि शायद इस जन्मदिन में पापा आ जाए, क्योंकि उन्होंने कहा था तुम्हारे जन्मदिन पर आएंगे। उसे कोर्स की कविताएँ याद रहे या नहीं, पर पापा की कविता उसे हमेशा याद रहती है, उसने पांच साल की उम्र में ही उसे याद कर लिया था। और अपने पापा के लिए एक कविता भी कह डाली थी, उसने जब लिखना सीखा तो ब्लैक बोर्ड्स पर अक्सर लिखता रहता -” मेरे पापा कब आएंगे। “
” मेरे पापा मेरे जन्मदिन में आएंगे। “
जन्मदिन पर पापा ने पूछ लिया था कि गिफ्ट में तुम्हें क्या चाहिए, उसने पूरी समझदारी से जवाब दिया ” जो चाहिए तुम्हारे पास है नहीं।”
” पापा के कहने पर कि मेरे पास देने के लिए सब कुछ है मांगो।
तो उसने मांगा-” तुम्हारा बेल! ”
हम छ: वर्ष में नहीं समझते थे कि बेल क्या होती है पर परिस्थितियों ने उसे सब कुछ समझा दिया है, और उसका बचपन पापा के साथ का इंतजार करता हुआ ढाई वर्ष आगे बढ़ चुका है, वह बचपन जो लौट कर कभी नहीं आता। एक जीवनसाथी केस मुकदमेबाजी से पैदा हुई सारी आर्थिक- सामाजिक मुश्किलें झेलती हुई, माँ और पापा दोनों बनने की कोशिश कर रही है, इस उम्मीद में कि जल्द इस निर्वासन का अंत होगा।
यूएपीए की धाराएं और एफआईआर
यूएपीए की धाराएं गंभीर हैं जिसके कारण जमानत तो नहीं मिलती, पर क्या इसका कोई सख्त नियम है कि इसे किसी पर लगाने से पहले उन मानदंडों को पूरा किया जाए जिससे बनावटी आरोप से बचा जा सके? नहीं। आरोप लगाने वाले की मर्जी पर हम निर्भर है कि हम पर कितनी, कौन-कौन सी गंभीर, संगीन धाराएं लगेंगी जिसके आधार पर हमारा जेल जीवन निर्धारित होगा। आज देश-भर में इसका मनमाना दुरूपयोग हो रहा है एक व्यक्ति पर चाहे जितना मन हो यूएपीए के तहत आरोप लगाए जा सकते हैं और जिस पर आरोप लगे उसे अपने बचाव के लिए सालों साल लग जाएंगे क्योंकि उनका केस सालों बाद ही उस स्टेज पर पहुँच पाएगा जहाँ बनावटी आरोप से बचाव की उम्मीद की जा सकती है।
जरूरत है इस दुरूपयोग को रोकने की। वर्तमान में जो लोग भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, लोगों की जिंदगी से खेल रहे हैं, कार्रवाई उन पर न होकर उनपर हो रही है जो इस भ्रष्टाचार को उजागर कर रहे हैं। पर आंखें बंद करने से सच्चाई नहीं बदलती। हम एक ऐसी दुनिया बना रहे हैं जो भावी पीढ़ी के लिए बेहद उलझी और नीरस होगी। हम रोबोट नहीं हैं जो दुनिया के बिगड़े चेहरे को चुपचाप देखते रहें।
जरूरत है इसे बदलने की ताकि भावी पीढ़ियों के लिए हम ऐसी दुनिया छोड़ सकें, जो ऊब और उदासी भरी न हो। ऐसी दुनिया जहां सच्चे लेखन की कद्र हो, जहां स्वच्छ वातावरण में हमारे बच्चे सांस ले सकें, कोई बच्चा अपने मां-पिता के प्यार से महरूम न किया जाए।
(इलिका प्रिय लेखिका हैं।)
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