Saturday, April 20, 2024

सुप्रीम कोर्ट के ही हितों के खिलाफ खड़ा हो गया है उसका मौजूदा नेतृत्व

प्रशांत भूषण के ट्वीट को पढ़िए तो उसमें न्यायपालिका से एक शिकायत का भाव है, और वह भाव इसलिए है कि न्यायपालिका, आज जब सारी संवैधानिक संस्थाओं का क्षरण होता दिख रहा है और वे सत्ता के अहंकारी, ढीठ, उद्दंड और उन्मत्त सागर में डूबती उतराती हुई प्रतीत हो रही है तो सुप्रीम कोर्ट का भव्य गुम्बद एक प्रकाश स्तंभ की तरह, हज़ार उम्मीदें जगा जाता है। लॉक डाउन के काल में जनता के मौलिक अधिकारों से जुड़े कितने महत्वपूर्ण मामलों का निस्तारण हुआ है, और उनमें सुप्रीम कोर्ट ने जनता को क्या राहत दी है यह तो सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर उपलब्ध है, इसे आप देख सकते हैं।

पर यह शिकायत अदालत की मानहानि मान ली गई और अब यह अंतिम फैसला है। इस पर अकादमिक बहस भले हो, पर किसी,  न्यायिक बहस का औचित्य नहीं है। पर इससें गंभीर शिकायतें और आरोप तो सुप्रीम कोर्ट के ही चार जजों ने, दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर के खुद ही लगाए थे। सुप्रीम कोर्ट की सत्यनिष्ठा पर भी संदेह उठाया था। तत्कालीन सीजेआई को भी लपेटे में ले लिया था कि सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। पर तब तो किसी न्यायमूर्ति के खिलाफ कोई कार्रवाई भी नहीं की गई।

अब उस प्रेस कांफ्रेंस के बारे में कुछ पढ़िए, जब सुप्रीम कोर्ट के चार जजों, जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस मदन बी लोकुर ने, 12 जनवरी, 2018 को, आयोजित करके, सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई और कार्यप्रणाली पर खुल कर सवाल उठाए थे। तब क्या, यह सुप्रीम कोर्ट की अवमानना नहीं थी?

पर तब तो किसी भी जज ने आपत्ति नहीं की और न ही कोई याचिका दायर हुई कि, उन जजों के इस कृत्य को न्यायालय की अवमानना मानी जाए। उक्त जजों ने तो यह भी सवाल उठाया था कि, ‘राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामले क्यों एक ही बेंच को सौंपे जाते हैं?’ जज लोया की संदिग्ध मृत्यु की भी चर्चा उठी थी।

उन्हीं चार जजों में से एक जस्टिस रंजन गोगोई भी थे, जो बाद में देश के सीजेआई बने। यह अलग बात है कि सीजेआई बनने के बाद वे एक यौन उत्पीड़न के आरोपों से घिरे, और उसे लेकर खूब चर्चा हुई तथा विवाद भी हुआ। वे ब्लैकमेल किए गए या उन्हें ब्लैकमेल करने की कोशिश की गई, इसकी फुसफुसाहट एक खुले रहस्य के रूप में आज भी न्यायपालिका के कॉरिडोर में व्याप्त है।

इस बाद का उल्लेख, प्रशांत भूषण के मामले में, पैरवी करते समय सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट, दुष्यंत दवे ने अदालत में भी उठाया था। वही रंजन गोगोई, आज राजकृपा से सांसद हैं, जिन्हें एक दिन सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ ठीक नहीं है, लग रहा था! 

प्रशांत भूषण।

यहां यह भी याद रखना ज़रूरी होगा कि जनवरी, 2018 में शायद आज़ादी के बाद यह पहला मौक़ा था, जब सुप्रीम कोर्ट के ही चार सिटिंग मुख्य न्यायधीशों ने प्रेस कॉन्फ्रेन्स कर कहा था कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट को बचाया जाना ज़रूरी है और उन्होंने एक तरह से तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश के ख़िलाफ़ बग़ावत की थी और उनके कामकाज पर सवाल उठाए थे।

जस्टिस जे चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ ने इस साझे प्रेस कांफ्रेंस में कहा था,
“सुप्रीम कोर्ट को नहीं बचाया गया तो लोकतंत्र नाकाम हो जाएगा।”

उन्होंने ‘चयनात्मक तरीके से’ मामलों के आवंटन और कुछ न्यायिक आदेशों पर सवाल उठाए। इन न्यायाधीशों ने कहा,
“ये समस्याएं देश की सर्वोच्च न्यायपालिका को नुकसान पहुंचा रही हैं और ये भारतीय लोकतंत्र को नष्ट कर सकती हैं।”

चयनात्मक तरीके यानी सेलेक्टिव, यह अपने आप में एक बड़ा आरोप है कि न्याय कानून के अनुरूप नहीं, चेहरे के अनुरूप दिया जाता है। अंग्रेजी की एक बेहद लोकप्रिय कहावत कि ‘शो मी योर फेस, आई विल शो यू द रूल’, अक्सर नौकरशाही का एक मजाकिया मुहावरा है।

न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने ख़ुद भी इस प्रेस कॉन्फ्रेंस को ‘अभूतपूर्व घटना’ बताया और कहा,
“कभी-कभी उच्चतम न्यायालय का प्रशासन सही नहीं होता है और पिछले कुछ महीनों में ऐसी अनेक बातें हुई हैं जो अपेक्षा से कहीं नीचे हैं।”

उन्होंने कहा,
“संरक्षण के बग़ैर इस देश में ‘लोकतंत्र नहीं बचेगा।”

यह स्वतंत्र भारत के इतिहास में अपनी तरह की पहली घटना थी।

उन्होंने कहा,
“इस तरह से प्रेस कॉन्फ्रेंस करना ‘बहुत ही कष्टप्रद है, और हम चारों को ही यह यकीन हो गया है कि लोकतंत्र दांव पर है और हाल के दिनों में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनसे हमें यह आभास हो रहा है।”

इन मुद्दों के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा,
“इनमें प्रधान न्यायाधीश द्वारा मुक़दमों का आवंटन भी शामिल है।”

उनकी यह टिप्पणी इसलिए भी महत्वपूर्ण थी कि सुप्रीम कोर्ट के समक्ष शुक्रवार 12 जनवरी को ही संवेदनशील सोहराबुद्दीन शेख़ मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे सीबीआई के विशेष जज बीएच लोया की रहस्यमय परिस्थितयों में मृत्यु की स्वतंत्र जांच के लिए दायर याचिकाएं सूचीबद्ध थीं। सुप्रीम कोर्ट ने, आगे चलकर, सुनवाई के बाद, जज लोया के मृत्यु की जांच करने से मना कर दिया था।

जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा,
“संस्थान और राष्ट्र के प्रति हमारी ज़िम्मेदारी है। संस्थान को बचाने के लिए क़दम उठाने हेतु प्रधान न्यायाधीश को समझाने के हमारे प्रयास विफल हो गए।”

चार जज अपनी असहायता को सार्वजनिक रूप से खुलकर प्रेस वार्ता में कह रहे हैं, क्या इससे न्यायपालिका की गरिमा पर आघात नहीं हो रहा है?

वे आगे कहते हैं,
“यह किसी भी राष्ट्र, विशेषकर इस देश के इतिहास में असाधारण घटना है और न्यायपालिका की संस्था में भी असाधारण घटना है। यह कोई प्रसन्नता की बात नहीं है कि हम प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के लिए बाध्य हुए, लेकिन कुछ समय से उच्चतम न्यायालय का प्रशासन ठीक नहीं है और पिछले कुछ महीने में ऐसी अनेक बातें हुई हैं जो अपेक्षा से कम थीं।”

चारों न्यायाधीशों ने प्रधान न्यायाधीश को लिखा अपना सात पेज का पत्र भी प्रेस को उपलब्ध कराया। उन्होंने इसमें कहा है,
“इस देश के न्यायशास्त्र में यह अच्छी तरह से प्रतिपादित है कि प्रधान न्यायाधीश हम सभी में प्रथम हैं… न तो अधिक और न ही कम।”

प्रेस कॉन्फ्रेंस में सभी न्यायाधीशों ने इन सवालों को बकवास बताया कि उन्होंने अनुशासन भंग किया है और कहा कि वे वह करना शुरू कर देंगे जो वे करते हैं।

जस्टिस जे चेलमेश्‍वर ने कहा,
“हम चारों मीडिया का शुक्रिया अदा करना चाहते हैं। यह किसी भी देश के इतिहास में अभूतपूर्व घटना है, क्‍योंकि हमें यह ब्रीफिंग करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। हमने ये प्रेस कॉन्‍फ्रेंस इसलिए की ताकि हमें कोई ये न कहे हमने अपनी आत्मा बेच दी।”

न्यायमूर्ति गोगोई ने जो कहा था, उसे भी पढ़िए,
“कोई भी अनुशासन भंग नहीं कर रहा है, और यह जो हमने किया है वह तो राष्ट्र का क़र्ज़ उतारना है।”

जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा,
“सुप्रीम कोर्ट में बहुत कुछ ऐसा हुआ, जो नहीं होना चाहिए था। हमें लगा, हमारी देश के प्रति जवाबदेही है और हमने मुख्य न्यायाधीश को मनाने की कोशिश की, लेकिन हमारे प्रयास नाकाम रहे अगर संस्थान को नहीं बचाया गया, लोकतंत्र नाकाम हो जाएगा।’

इसका सीधा मतलब यह है कि सुप्रीम कोर्ट से असहमति रखी जा सकती है, और सुप्रीम कोर्ट को उसके दायित्व और कर्तव्यों को याद दिलाया जा सकता है। न्यायपालिका के न्यायिक आदेशों की अवहेलना, अवज्ञा और कोर्ट रूप में किए गए कदाचरण के अतिरिक्त अन्य कुछ भी अवमानना के रूप में लेना, असहमति, न्यायिक बहस, और स्वस्थ विचार विमर्श को हतोत्साहित करना है। संसार में कुछ भी पूर्ण नहीं है। न व्यक्ति, न संस्था, न विचार।

न्यायपालिका को चाहिए कि वह आलोचनाओं का स्वागत करें और जो आलोचनाएं उसे रचनात्मक लगें उसका उपयोग करे और जो अनुचित हो उसे नज़रअंदाज़ कर दे, लेकिन किसी भी आलोचना में चाहे वह व्यक्ति की हो या संस्था की, शाब्दिक मर्यादाओं का पालन अनिवार्य है।

उधर, बिहार के लोकतान्त्रिक जन पहल संगठन ने प्रशांत भूषण को अवमानना मामले में सुप्रीम कॉर्ट से दोषी करार दिए जाने को अन्यायपूर्ण फैसला बताया है। संगठन ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने जनवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चार वरिष्ठ जजों की ऐतिहासिक प्रेस कॉन्फ्रेंस की याद ताजा कर दी, जिसमें उन्होंने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के अंदर की कार्यशैली में ऐसे तत्व हावी हो रहे हैं जिस पर समय रहते रोक नहीं लगाई गई तो देश के लोकतंत्र पर खतरा पैदा हो जाएगा।

संगठन ने कहा कि पटना हाईकोर्ट के भी एक वरिष्ठ जज ने अगस्त 2019 में न्यायपालिका के अंदर पल रहे भ्रष्टाचार को उजागर करते हुए जांच के आदेश दिए थे। हालांकि उनके आदेश को तत्काल जजों की बड़ी पीठ ने स्थगित कर दिया और माननीय जज साहब का स्थानान्तरण कर दिया गया।  न्यायपालिका का संकट कितना गहरा है, यह बात अब छुपी नहीं है।

प्रशांत भूषण के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने न केवल हमारे संवैधानिक और लोकतान्त्रिक मूल्यों को नज़रंदाज़ किया है बल्कि यह न्यायपालिका को भी न्याय की कसौटी पर कटघरे में खड़ा करता है।

संगठन ने कहा कि जहां तक न्यायालय की अवमानना का सवाल है,  तो सुप्रीम कोर्ट को बताना चाहिए कि उक्त जजों के मामले में सुप्रीम कोर्ट चुप क्यों रहा? क्या यह कानून के समक्ष बराबरी के अधिकार का उल्लंघन नहीं है?

संगठन से जारी बयान में कहा गया है कि लोकतंत्र में संप्रभुता आम लोगों में निहित होती है। न्यायालय की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि कोर्ट किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। लोकतंत्र में न्यायालय जनता के प्रति जवाबदेह है। जनता के प्रति जवाबदेह होने का मतलब है संविधान के मूलभूत मूल्यों की कसौटी पर खरा उतरना है।

संगठन का कहना है कि अभी देश की परिस्थिति कोरोना संकट के चलते सामान्य नहीं है। सुप्रीम कोर्ट सहित सभी न्यायालयों में काम बंद है, केवल अतिआवश्यक और इमरजेंसी मामलों के लिए ऑनलाइन मोड में कोर्ट ने काम करना तय किया है। प्रशांत भूषण का मामला इस कैटेगरी में कैसे आ गया? यह अतिआवश्यक और अर्जेंट कैसे है, यह सुप्रीम कोर्ट को बताना चाहिए।

दूसरी बात है कि फिजिकल सुनवाई और ऑनलाइन सुनवाई की प्रक्रिया में जमीन-आसमान- जमीन का अंतर है। इस समय संक्षिप्त प्रक्रिया चलती है। जाहिर है कि फिजिकल कोर्ट में आरोपित व्यक्ति को अपने बचाव का जो अवसर मिलता है, उससे प्रशांत भूषण को वंचित रखा गया। क्या यह अपने बचाव के लिए समुचित अवसर दिए जाने के उनके अधिकार का उल्लंघन नहीं है?

हमारे देश की न्याय व्यवस्था में सुप्रीम कोर्ट सर्वोच्च संस्था है। इसके फैसले को चुनौती अन्य कहीं नहीं दी जा सकती है। ऐसी स्थिति में जजों का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। आज की परिस्थिति में जब सत्ताधारी मोदी सरकार के द्वारा अघोषित आपातकाल का आतंक जारी है। मतभेद के हर मामलों को हिंन्दु-मुस्लिम के आवेगों का रंग देने और विरोधियों को देशद्रोही करार देने का षड्यंत्र जारी है, न्यायपालिका के बारे में यह मानना कि वह सामाजिक-राजनीतिक प्रभावों से मुक्त है, सही नहीं है।

प्रशांत भूषण नागरिक स्वतंत्रता और गरीबों के हकों के लिए न्यायिक संघर्ष करने वाले अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वकील हैं। उनके विचारों से किसी को मतभेद हो सकता है लेकिन यह कहना कि उन्होंने न्यायपालिका को नीचा दिखाने की कोशिश की है, सरासर निराधार और नाइंसाफी है।

हमारे देश के न्यायपालिका में औपनिवेशिक संस्कृति और सामाजिक भेदभाव अब भी हावी है। न्यायिक फैसले के मामले में ज्यादातर लोगों की धारणा है कि उस पर सवाल उठाना सही नहीं है। जब भी कोर्ट के मामले में पारदर्शिता का मुद्दा उठा है, न्यायालय का रवैया अधिकतर मामलों में सकारात्मक नहीं रहा है। न्यायालय को लेकर आम लोगों में विरोधाभासी मानसिकता व्याप्त है। सार्वजनिक तौर पर हम आलोचना से बचते हैं, क्योंकि एक प्रकार का भय व्याप्त रहता है, लेकिन निजी स्तर पर हम ऐसे जजों के पक्ष में होते हैं जो न्यायालय की खामियों को उजागर करते हैं।

हमारा मानना है कि अवमानना कानूनों का लोकतंत्र में कोई औचित्य नहीं है। यह कानून शासक वर्गों के औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाता है। कोर्ट की अवमानना का कानून 1971, मूलतः जनविरोधी और असंवैधानिक कानून है। यह न्यायपालिका को जनता के प्रति गैरजबाबदेह बनाती है। हमारी मांग है कि इसे शीघ्र खत्म किया जाए।

अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कोर्ट की गरिमा, राष्ट्र के सम्मान की रक्षा करने, न्यायपालिका के प्रति लोगों के विश्वास को कायम रखने और लोकतंत्र को अस्थिर न होने देने की बात कही है। लोकतंत्र में न्यायालय आलोचना और विरोध के परे नहीं हो सकता। इसे पवित्र संस्था मानना या बनाने की कोशिश करना जनहित के खिलाफ है। न्यायालय की गरिमा की रक्षा न्याय की कसौटी पर खरा उतरने वाले उसके फ़ैसलों और जजों के मर्यादित व्यवहार तथा गरीबों की न्याय तक पहुंच बनाने से होगी न कि जनविरोधी अवमानना कानून की आड़ में नागरिकों के लोकतान्त्रिक अधिकारों को दबाने से।

संगठन से जारी बयान के आखिर में कहा गया है कि ईसा से लेकर गांधी, भगत सिंह, अशफाकउल्लाह खां, पीर अली, मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला तक आजादी और मानवीय मूल्यों तथा वैज्ञानिक खोजों के लिए आवाज उठाने वाले क्रांतिकारियों, मनीषियों और वैज्ञानिकों को व्यवस्था ने दंडित किया है, लेकिन दंड देने वालों को समय और इतिहास ने गलत साबित किया है, उससे सीख लेने की जरूरत है।

बयान पर कंचन बाला, सुधा वर्गीज, लीमा रोज, डोरोथी, अफ़ज़ल हुसैन, जोस के, फ्लोरिन, शुभमूर्तिजी,  शैलेन्द्र प्रताप एडवोकेट, अशोक कुमार एडवोकेट, मणि लाल एडवोकेट, अनुपम प्रियदर्शी, तबस्सुम अली, ऋषि आनंद, सुनीता कुमारी सिन्हा, अशर्फी सदा, रंजीव, विनोद रंजन, अभिनव आलोक एडवोकेट, प्रवीण कुमार मधु, सरफराज, शम्स खान, अशोक वर्मा (अरवल), अजीत कुमार वर्मा (जहानाबाद), मिथिलेश कुमार दीपक (औरंगाबाद), शशिभूषण (आरा), कृष्ण मुरारी, मनहर कृष्ण अतुल और संस्था के संयोजक सत्य नारायण मदन के हस्ताक्षर हैं।

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