ये खुद भी घिनौने हैं। और पूरे देश और समाज को अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उसी घिनौने परनाले में ले जाकर गिरा देना चाहते हैं। इन्हें न संस्कृति की समझ है न राष्ट्र की। और धर्म के नाम पर इनके पास सिर्फ पोंगापंथ और दंगा है। लिहाजा ये किसी सांस्कृतिक नहीं, दंगाई राष्ट्रवाद के समर्थक हैं। और उसके आधार पर देश और समाज में नफरत और घृणा का जहर फैलाकर स्थायी तौर पर देश की सत्ता में बने रहना चाहते हैं। इस समय गुजरात का चुनाव जब चल रहा है और पहली बार वहां जनता के मुद्दे सामने आ रहे हैं। लोग अपने जीवन और रोजी-रोटी के सवालों पर बात करना शुरू कर दिए हैं।
25 सालों से सांप्रदायिकता के नफरत की अफीम चटाकर बेसुध किए लोगों के एकाएक जग जाने से इनके तोते उड़ने लगे हैं। लिहाजा इन्होंने अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नफरती झंडा फिर से आगे कर दिया है। गरबा के मौसम में होने वाले कार्यक्रमों में मुसलमानों को बजरंग दल के संघी गुंडे खोज-खोज मार रहे हैं और इतना ही नहीं पीट-पीट कर उन्हें लहूलुहान कर अस्पताल तक भेज दे रहे हैं। और इस काम में गुजरात पुलिस न केवल मूकदर्शक है बल्कि उनके साथ पूरी तरह से खड़ी है। तर्क क्या कि ये हिंदुओं का त्योहार है। अरे मूर्ख गरबा या कोई डांस भी किसी धर्म का होता है।
वह तो संस्कृति होती है। और संस्कृति वहां की बोलचाल, रहन-सहन, भौतिक परिस्थितियों, जलवायु, खान-पान समेत ऐसी हजारों चीजों से मिलकर बनती है जिसका शायद हम आप यहां बयान भी नहीं कर सकें। लेकिन संघ की सांस्कृतिक समझ धर्म की बौनी परिभाषा से आगे बढ़ ही नहीं सकी। अक्ल के इन अंधों से यह पूछना चाहिए कि अगर धर्म के आधार पर संस्कृति बनती तो देश के हर सूबे की संस्कृति बिल्कुल एक जैसी होती। थोड़ा कम बेसी सब कुछ एक जैसा होता। लेकिन क्या ऐसा हुआ है? बिल्कुल नहीं। गुजराती संस्कृति, मराठी संस्कृति से अलग है। बंगाली संस्कृति पूर्वांचल के हिंदी पट्टी से अलग है। अवधी और भोजपुरी तक में अपने त्योहारों को लेकर विभिन्नता है। और उत्तर और दक्षिण के बीच की तो बात ही छोड़ दीजिए। दक्षिण भारत में सभी नीचे लुंगी पहनते हैं।
पूर्व उपराष्ट्रपति वेंकैया और कांग्रेस नेता चिदंबरम समेत दक्षिण का कोई नेता भी लुंगी पहनकर संसद के अंदर बैठता है। लेकिन क्या उत्तर भारत का भी कोई नेता ऐसा करता है। लेकिन तुम इस विविधता को नहीं समझते हो। तुम्हें संस्कृति की बुनियादी समझ ही नहीं है। क्योंकि तुम धर्म के अंधे चश्मे से सब कुछ देखना चाहते हो जिससे कुछ नहीं दिखेगा। क्योंकि तुमने उसे भी उधार लिया हुआ है पश्चिम से और उनके भी सबसे ज्यादा पतित और गालियों में तब्दील हो चुके इतिहास के सबसे गलीज लोगों हिटलर और मुसोलिनी से। मैं उसके विस्तार में नहीं जाना चाहता। बार-बार बताया जा चुका है। करते हो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति की बात और पहनते हो हाफ पैंट अब तो वैसे शर्म वश फुल कर दिए हो और लगाते हो बेल्ट। अलग-अलग टोपियों के लिए जाने-जाने वाले अपने किसी सूबे की टोपी तुमको पसंद नहीं आयी। उसके लिए भी तुम्हें पश्चिम का मुंह देखना पड़ा और तुमने तुमने मुसोलिनी से उधार ली।
गुजरात में इस समय जब हवा का रुख खिलाफ जाता दिख रहा है। तो तुमने फिर वही अपने पुराने हथियार हिंदू-मुस्लिम मारकाट और दंगे का सहारा लेना शुरू कर दिया है। गरबे में मुस्लिम नहीं मिल रहे हैं तो सुरक्षा में तैनात बाउंसरों में मुसलमान ढूंढने लगे हो। और जब उसमें भी नहीं मिलेंगे तो मैं जानता हूं अपने ही किसी स्वयंसेवक को मुस्लिम बनाकर उसकी पिटाई का नाटक शुरू कर दोगे। क्योंकि अब पूरा देश इस बात को जान गया है कि मंदिरों में गाय का मांस और मस्जिदों में सुअरों के लोथड़े फिकवाने में तुम कैसे अपने स्वयंसेवकों का इस्तेमाल करते रहे हो। पोरबंदर के पास सुने है तुमने दंगे का भी आगाज करा दिया है।
और यह सब हिंदू-मुस्लिम करते-करते तुमने गुजरात को कहीं का नहीं छोड़ा। बिल्कुल खोखला कर दिया। 10-15 हजार रुपये पर जहां पुलिसकर्मी ठेके पर भर्ती किये जा रहे हों। और दसियों-बीसियों साल तक उनका जीवन नियमितीकरण के सपने पर बीत जाए। यही हाल शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक के कर्मचारियों का है। शिक्षा को तो बिल्कुल खत्म ही कर दिया गया है। गुजरात में अगर कोई नई सरकार बनती है तो उसे फिर से न केवल क, ख, ग की पढ़ाई शुरू करनी होगी बल्कि उसके असली मायने भी उसे समझाने होंगे। क्योंकि इन्होंने उसकी पूरी तासीर ही बदल दी है। इन्होंने क कबूतर नहीं क ले कत्ल सिखाया है। ख से खरगोश नहीं ख से खतना बताया है। और ग से गधा बताकर सारे नागरिकों को उन्हीं की श्रेणी का समझ लिया है।
अनायास नहीं किसी मौलवी का नहीं बल्कि मुरारी बापू जैसे लोगों तक के सब्र का बांध टूट गया है। उनको अपने एक वायरल वीडियो में यह कहते सुना जा सकता है कि प्रवचन के दौरान कोई शेर कहो या फिर गजल सुना दो और उसमें कोई उर्दू शब्द आ जाए तो हंगामा खड़ा कर देते हैं। अब जब उनके चीफ मस्जिद और मदरसे घूम रहे हैं तो सबकी बोलती बंद हो गयी है। उनका इशारा आरएसएस चीफ मोहन भागवत के पिछले दिनों दिल्ली की एक मस्जिद और मदरसे की यात्रा की तरफ था।
दस साल की एक बच्ची जो पिछले पांच सालों गरबा में भाग ले रही थी इस बार तुमने उसे उसमें हिस्सा लेने से रोक दिया। क्योंकि वह मुस्लिम है। उस मासूम बच्ची के दिल और दिमाग पर इसका क्या असर पड़ा होगा? अरे नाशुकरों ये बताओ संस्कृति बांटती है या कि वह जोड़ने का काम करती है? पहली बात तो अगर कोई संस्कृति बांटने का काम करती है तो वह संस्कृति ही नहीं कहलाएगी। उसे संस्कृति नहीं कुसंस्कृति कहेंगे और लोग खुद ही उसका बहिष्कार करना शुरू कर देंगे क्योंकि वह कोई विस्तार ही नहीं पा सकती है।
और एक दिन वह खुद ही अपनी मौत मर जाएगी। इसलिए बहिष्करण नहीं समावेशीकरण संस्कृति के विस्तार की पहली शर्त है। हिंदू धर्म और उसकी संस्कृति की तो यह बुनियादी पहचान रही है वह बाहर से आए शक, हूण, कुषाण, मुस्लिम से लेकर न जाने कितनों को अपने भीतर समाहित करती चली गयी और सबके साथ एक सहजीवन की नई महायात्रा का निर्माण किया। जिस पर आज पूरा भारत खड़ा है। लेकिन तुम तो हिंदू धर्म के उन बुनियादी उसूलों और तत्वों के भी खिलाफ हो।
और आज जब विजय दशमी का त्योहार है। असत्य पर सत्य की विजय का दिन है। तो जरूरत अपने भीतर के इन ‘रावणों’ को मारने की है। उनकी नफरत और घृणा से भरी सोच को अग्नि में स्वाहा करने की है। झूठ और फरेब पर खड़े सत्ता के उनके पूरे महल को ध्वस्त करने की। न कि रावण के पुतलों को जलाकर हिंदू कर्मकांड के एक और काम की इतिश्री समझ लेने की।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)