यह संयोग नहीं, प्रयोग है कि बिहार विधानसभा के आगामी चुनावों के लिये असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) ने करीब डेढ़ दशक तक लोकसभा सदस्य और एचडी देवगौड़ा तथा आईके गुजराल सरकार में मंत्री रहे देवेन्द्र प्रसाद यादव के समाजवादी जनता दल (डेमोक्रेटिक) के साथ गठबंधन किया है। प्रयोग पुराना है। पिछली बार भी ओवैसी की पार्टी ने विधानसभा चुनावों में छह प्रत्याशी खड़े किये थे और सबके सब अल्पसंख्यक बहुल सीमांचल क्षेत्र में।
लेकिन तब लालू प्रसाद यादव का राष्ट्रीय जनता दल और नीतीश कुमार का जनता दल (यू) महा गठबंधन बनाकर मैदान में उतरे थे और ओवैसी के पांच उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा सके थे। उन लोगों ने कुल 80,248 वोट हासिल किये थे, जो इन 6 विधानसभा क्षेत्रों में कुल मतदान का 8.04 प्रतिशत था। दिलचस्प यह है कि रानीगंज को छोड़ शेष पांचों क्षेत्र में उसके प्रत्याशी मुस्लिम थे, लेकिन सभी छह सीटें महागठबंधन की पार्टियों ने जीत ली और कहीं भी एआईएमआईएम प्रत्याशियों की मौजूदगी का भाजपा को कोई फायदा नहीं मिल सका था।
संभव है, ओवैसी के ‘एम’ के साथ देवेन्दर प्रसाद के ‘वाई’ के इस नये प्रयोग का कारण वह पिछला अनुभव ही हो। संभव है कि इसका कारण पिछले साल मई के लोकसभा चुनावों और केवल चार महीने बाद हुए विधानसभा चुनावों में महाराष्ट्र का तजुर्बा भी हो। आजमाया हुआ और बहुत हद तक सफल तजुर्बा। वहां एआईएमआईएम और बाबा साहब के पौत्र प्रकाश अम्बेडकर की बहुजन विकास अघाड़ी (वीबीए) के गठबंधन ने सीट तो केवल औरंगाबाद की जीती थी, जो कि शायद मकसद भी नहीं था, लेकिन सात सीटों पर कांग्रेस-एनसीपी गठजोड़ को हराने और भाजपा-शिवसेना की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
समाज के वंचित तबकों और अल्पसंख्यकों को साथ लाने के इस प्रयोग में नांदेड़ सहित मराठवाड़ा की दो, पश्चिमी महाराष्ट्र की तीन और विदर्भ की दो सीटों पर अम्बेडकर-ओवैसी के प्रत्याशियों को मिले वोट, भाजपा-शिवसेना के विजयी उम्मीदवारों और कांग्रेस-एनसीपी के पराजित प्रत्याशियों के वोटों के अंतर से अधिक थे। इसी तरह राज्य विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन अपने विधायकों की संख्या में 15 का इजाफा करने में ज़रूर कामयाब रहा, लेकिन कम से कम 35 ऐसी सीटें थीं, जहां कांग्रेस-एनसीपी के प्रत्याशी एआईएमआईएम-वीबीए गठजोड़ के उम्मीदवारों को हासिल वोटों से कम के अंतर से हारे। दोनों ने मिल-जुलकर 6 प्रतिशत वोट हासिल किए, केवल 8 सीटों पर यह गठजोड़ दूसरे स्थान पर पहुंच सका और जीत तो उन्हें एक भी सीट पर नहीं मिली।
सच है कि देवेन्दर प्रसाद यादव, प्रकाश अम्बेडकर नहीं हैं और याद रखना चाहिये कि 1989, 1991 और 1996 में जनता दल, 1999 में जद (यू) और 2004 में राजद के टिकट पर झंझारपुर से लोकसभा पहुंचे देवेन्दर प्रसाद एसजेडी (डेमोक्रेटिक) बनाकर इसी क्षेत्र से पहली बार 2019 में संसदीय मुकाबले में उतरे तो केवल 25,630 वोट लेकर चौथे स्थान पर लुढ़क गये थे। लेकिन उनकी कर्मभूमि मिथिलांचल है और बिहार की आबादी में जो 16 प्रतिशत मुसलमान हैं, उनका संकेन्द्रण इसी सीमांचल और मिथिलांचल क्षेत्र में है। इन दो क्षेत्रों में 50 के करीब ऐसी सीटें हैं, जहां अल्पसंख्यक मतों का रुझान निर्णायक होता है और इनमें कुछ विधानसभा क्षेत्रों में तो मतदाताओं में आधे से अधिक अल्पसंख्यक हैं।
तो प्रयोग अपने असर में आ सकने वाले धर्मांध और कट्टर मुस्लिम मतदाताओं के साथ पिछड़े और वंचित तबकों और जातियों को जोड़कर वोटकटवा की अपनी स्थिति मजबूत करने की है। अपने भाई अकबरुद्दीन ओवैसी की तुलना में असदुद्दीन महीन कताई वाले राजनेता हैं, पढ़े-लिखे और अनुभवी भी पर मैसेजिंग में वह अकबरुद्दीन से बहुत अलग नहीं हैं और असर में तो संभवतः उनसे बीस ही। और यह दुहराने की ज़रूरत नहीं है कि एक धार्मिक मतावलंबी की असहिष्णुता और आक्रामकता, दूसरे धर्म के कट्टर तत्वों के लिये खाद-पानी जुटाती है। कोशिश तो जीतन राम मांझी के हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा को भी गठबंधन में शामिल कर बिहार में महाराष्ट्र दुहराने की थी, पर उन्होंने आखिरकार सीधे भाजपा के कुनबे में शामिल होना श्रेयस्कर समझा।
एसजेडी (डेमोक्रेटिक) – एआईएमआईएम ने मिलकर जो नया ‘यूनाइटेड डेमोक्रेटिक सेक्युलर एलायंस’ बनाया है और दोनों नेता जिसमें और भी दलों के जुड़ने की उम्मीदें जता रहे हैं, उसका निशाना तो राजद का ‘माय’ समीकरण ही है। वही मुस्लिम-यादव समीकरण जो किसी भी चुनाव में राजद का वोट प्रतिशत एक स्तर से नीचे नहीं जाने देता और चारा घोटाले के भारी शोर और लम्बे कारावास के बावजूद उसके शीर्ष नेता लालू प्रसाद को कम से कम बिहार की राजनीति में प्रासंगिक बनाये रखता है। इत्तफाक देखिये कि नये एलायंस के संयोजक देवेन्दर प्रसाद का जो ‘वाई’ है और सह-संयोजक अख्तरुल ईमान का जो ‘एम’ है – दोनों-राजद से आए हैं। अख्तरुल एआईएमआईएम के प्रदेश अध्यक्ष हैं और 2005 और 2010 में- दो बार – राष्ट्रीय जनता दल के ही टिकट पर कोचाधामन से बिहार विधानसभा में भी पहुंचे थे।
यद्यपि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन कर मैदान में उतरे नीतीश कुमार के जद (यू) के प्रत्याशी के तौर पर 67 प्रतिशत मुस्लिम वोटर वाली किशनगंज सीट से भाग्य आजमाते हुये भी उन्होंने करीब तीन लाख वोट हासिल किये थे और इस चुनाव में कांग्रेस के एमएलए मोहम्मद जावेद की जीत के कारण खाली हुई किशनगंज विधानसभा सीट के उपचुनाव में तो एआईएमआईएम के कमरुल हुदा ने कांग्रेस को तीसरे स्थान पर धकेलते हुये जीत तक दर्ज की थी।
प्रयोग यह भी है कि 50 सीटों पर लड़ने के इरादे के साथ ओवैसी पहली खेप में जिन 32 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की घोषणा कर चुके हैं, उनमें मतदाताओं की कुल संख्या में 40 से 70 प्रतिशत तक मुस्लिम हैं और केवल 7 सीटें भाजपा और उसकी सहयोगी जद (यू) के कब्जे में हैं। प्रयोग यह कि मुसलमानों के अधिकतम संभव मतदाताओं को राजद, कांग्रेस और भाजपा- जद (यू) विरोधी अन्य प्रत्याशियों के करीब जाने से रोका जाये, ताकि मोदी-नीतीश के हाथ मजबूत हों।
ओवैसी यह बात छिपा भी नहीं रहे। अभी इसी महीने उन्होंने मुसलमान मतदाताओं से मजलिस के हाथ मजबूत करने की अपील करते हुए ट्वीट भी किया था कि ‘सेक्युलरिज्म के नाम पर आप अब तक जिन-जिन को वोट करते रहे, वे अब मोदी के साथ हैं। लिहाजा अब आप ऐसी ताकतों के झांसे में न आयें।’ यह और बात है कि यह ट्वीट उन्होंने देवेन्दर प्रसाद की पार्टी का साथ मिलकर नया एलायंस बनाने से पहले किया था।
यह प्रयोग ओवैसी के अपने तेलंगाना में ही नहीं, महाराष्ट्र में और बिहार में भी पहले सफलतापूर्वक आजमाया जा चुका है। मानना चाहिये कि प्रयोग के प्रयोजन से ओवैसी वाकिफ भी हैं। तेलंगाना में तो 2014 के चुनाव में उनकी पार्टी ने अपने 21 घोषित उम्मीदवारों में से बाद में 13 के नाम वापस ले लिया था। पार्टी ने 2009 से ही अपने खाते में आती रही चारमीनार, याकूतपुरा, चंद्रायनगट्टा, कारवां, नामपल्ली, बहादुरपुरा और मलकपेट के अलावा केवल एक और सीट राजेन्दर नगर से चुनाव लड़ने का फैसला किया था और फैसले की जानकारी देते हुये पार्टी एआईएमआईएम के एक नेता ने ‘लाइव मिंट’ से कहा भी था कि ‘हमने अधिक प्रत्याशी उतारे तो मुस्लिमों के वोट बटेंगे।’ एआईएमआईएम को अगर तेलंगाना में यह पता था तो महाराष्ट्र में, बिहार में वह इससे गाफिल कैसे हो सकती है!
(राजेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और न्यूज़ एजेंसी यूएनआई में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं।)
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