टीवी चैनल और अखबार भले ही बिक गए हों लेकिन पत्रकारिता अभी जिंदा है!

सोशल मीडिया पर तीन दिन से छाए राष्ट्रीय शोक और लिखे जा रहे स्मृतिलेखों का कुल मिलाकर सार यही है कि एनडीटीवी देश में लोकतंत्र का एकमात्र पहरुआ था और अब औपचारिक रूप से उसके बिक जाने से भारत में अब पत्रकारिता की मृत्यु हो गई है। यह स्थिति बताती है हिंदी पट्टी के समाज की दिमागी दरिद्रता की सूचना देते हुए बताती है कि या तो लोगों में पढ़ने की आदत अब लगभग खत्म हो चुकी है या फिर वे सिर्फ टेलीविजन की पत्रकारिता को ही पत्रकारिता समझते हैं जो कि एकता कपूरी टीवी सीरियलों की तर्ज पर होती है। ऐसे सभी समझदारों की सेवा में निवेदन है कि भारत में टीवी की पत्रकारिता शुरू होने से पहले भी पत्रकारिता हो रही थी और सेटेलाइट चैनलों की शुरुआत के बाद भी वास्तविक पत्रकारिता अखबारों के जरिए ही होती रही है।

आज जब लगभग सभी बड़े अखबार सत्ता के ढिंढोरची बन चुके हैं, तब भी पत्रकारिता हो रही है। न्यूजक्लिक, सत्य हिंदी, जनचौक, द वायर, जनज्वार आदि कई बेहतरीन समाचार पोर्टल और यूट्यूब चैनल चल रहे हैं, जो हर तरह की जोखिम उठा कर सत्ता की समाजद्रोही कारगुजारियों को मुखरता के साथ उजागर कर रहे हैं। छोटे शहरों और कस्बों से सीमित संसाधनों के सहारे निकलने वाले छोटे समाचार पत्र-पत्रिकाएं भी अपने स्तर पर यही काम कर रहे हैं और उसकी कीमत भी चुका रहे हैं। सोशल मीडिया में भी कई लोग सत्ताधारी पार्टी की ट्रोल आर्मी की भद्दी गालियों और धमकियों का सामना करते हुए शोधपरक रिपोर्टों, वैचारिक टिप्पणियों, विश्लेषणों और कार्टूनों के माध्यम से जो कुछ कर रहे हैं, उसका शतांश भी किसी टीवी चैनल और अखबार में नहीं हो रहा है।

गुजरात के नरसंहार पर राना अयूब ने कई तरह के खतरे उठाते हुए जो काम किया है क्या उसका मुकाबला कोई टीवी पत्रकार कर सकता है? बहुचर्चित सोहराबुद्दीन फर्जी एनकाउंटर मामले की सुनवाई करने वाले जज बीएच लोया की मौत को लेकर महेंद्र मिश्र, उपेंद्र चौधरी और प्रदीप सिंह ने अपनी जान जोखिम में डाल कर जिन तथ्यों को अपनी पुस्तक में उजागर किया, क्या ऐसी हिम्मत टीवी के किसी ‘क्रांतिकारी’ पत्रकार ने दिखाई? याद नहीं आता कि दूसरे चैनल तो क्या एनडीटीवी ने भी कभी राना अयूब और महेंद्र मिश्र व उनके साथियों के काम का जिक्र किया हो। स्मृतिशेष विनोद दुआ को आखिर किस बात के लिए देशद्रोह के फर्जी मुकदमे का सामना करना पड़ा था? केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को किस अपराध में दो साल तक जेल में रहना पड़ा?

ये चंद नाम तो महज बानगी हैं। ऐसे और भी कई पत्रकार हैं जो फर्जी मुकदमों का सामना कर रहे हैं, कई पत्रकारों की हत्या हो चुकी है, कई पर जानलेवा हमले होते रहते हैं और कई पुलिस प्रताड़ना के शिकार हो रहे हैं। दिल्ली से संचालित प्रतिष्ठित न्यूज पोर्टलों न्यूजक्लिक और द वायर के संचालकों और संपादकों के यहां ईडी, आयकर और सीबीआई की छापेमारी हुई है और उनके खिलाफ झूठे मुकदमे दर्ज हुए हैं, इसके बावजूद वे अपना काम पूरी मुश्तैदी से प्रतिबद्धता से कर रहे हैं। इसलिए निश्चिंत रहिए पत्रकारिता हो रही है और होती रहेगी।

रही बात टीवी पत्रकारिता की तो उसकी मौत कोई आज या कल में नहीं हुई है। उसकी मौत तो एक दशक पहले ही हो चुकी है जब देश के कॉरपोरेट घरानों ने संघ संप्रदाय की मदद से अण्णा हजारे नामक एक अनपढ़ बूढ़े को अपनी कठपुतली बना कर दिल्ली के जंतर-मंतर पर बैठाया था। भ्रष्ट और बेईमान सीएजी की रिपोर्ट का सहारा लेकर काल्पनिक घोटालों के खिलाफ अरविंद केजरीवाल एंड कंपनी और उसके एनजीओ के बैनर तले जमे उस मजमे का सारे टीवी चैनल 24 घंटे सीधा प्रसारण कर रहे थे। एनडीटीवी भी अपवाद नहीं था।

टीवी चैनलों के कई क्रांतिकारी संपादक पत्रकार भी अण्णा हजारे की पालकी के कहार बन कर उन्हें दूसरा गांधी और जयप्रकाश बता रहे थे। केजरीवाल में भी उन्हें चे ग्वारा के दर्शन हो रहे थे। बाद में जब केजरीवाल ने अण्णा हजारे से अलग होकर राजनीतिक पार्टी बनाई तो टेलीविजन के इन क्रांतिकारी पत्रकारों ने केजरीवाल की पालकी भी ढोयी और उन्हें मसीहा के रूप में पेश किया। ऐसा करने वालों में रवीश कुमार भी शामिल थे। हालांकि कुछ ही समय बाद रवीश कुमार सहित इन सभी का अलग-अलग वजहों के चलते केजरीवाल से मोहभंग हुआ, जो कि होना ही था। सभी को अहसास हो गया कि केजरीवाल के खून में भी व्यापार है। दिल्ली की राज्यसभा की सीटें उसी व्यापार की भेंट चढ़ी थीं।

तो टीवी की पत्रकारिता तो 2012 में ही दम तोड़ चुकी थी। फिर 2014 में हुए सत्ता परिवर्तन के साथ ही पोर्न पत्रकारिता के रूप में उसका पुनर्जन्म हुआ। राष्ट्रवाद और धर्म के नाम पर उसने समाज में नफरत का जहर फैलाने के काम में अपने को समर्पित कर दिया। सत्ता के इशारे पर नंगई प्रदर्शित करने के नित-नए कीर्तिमान रचने शुरू किए। अभी कहा जा रहा है कि बाकी चैनल चाहे जैसे भी हों लेकिन एनडीटीवी तो प्रतिरोध की आवाज था। ऐसा कहने और मानने वालों की जानकारी और समझ पर तरस ही खाया जा सकता है।

हकीकत यह है कि एनडीटीवी का 95 फीसदी दरबारीकरण तो छह साल पहले 2016 में ही हो चुका था जब सरकार ने उसे एक दिन के लिए ऑफ एयर यानी प्रतिबंधित करने का आदेश दिया था। हालांकि वह आदेश एनडीटीवी के मालिक प्रणय रॉय और तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के बीच हुई बैठक के बाद स्थगित कर दिया गया था और तब से आज तक स्थगित ही है। प्रणय रॉय और जेटली की उस मुलाकात के बाद ही एनडीटीवी भक्ति मार्ग पर चल पड़ा था। प्रणय रॉय और राधिका रॉय के यहां आयकर और ईडी के छापे पड़ना भी बंद हो गए थे और उसके बाद उनकी विदेश यात्राओं पर भी कभी रोक नहीं लगी।

प्रणय रॉय से जेटली की मुलाकात के बाद ही इस चैनल में बड़े पैमाने पर छंटनी हुई थी, कई लोग नौकरी से निकाले गए थे और उनके स्थान पर जेटली की सिफारिश पर उनके वफादार कई लोगों की भर्ती हुई थी। जेटली की सिफारिश पर ही उनके जो वफादार पहले से एनडीटीवी में काम कर रहे थे उनका प्रमोशन हुआ था। ये सारे लोग रोजाना कैमरे के सामने वही करते थे जो आजतक, एबीपी, जीन्यूज, इंडिया टीवी, न्यूज18 आदि तमाम चैनलों उनके क्रूर, मूर्ख और वाचाल एंकर रिपोर्टर करते हैं। पूरे 24 घंटे में एकाध घंटे सरकार की आलोचना वाले एक-दो कार्यक्रम होते थे तो वे भी सरकार की सहमति से ही होते थे, बतौर सेफ्टी वॉल्व।

इससे ज्यादा उनका कोई मतलब नहीं था। रवीश कुमार भी इस बात को अच्छी तरह जानते-समझते थे और इसीलिए वे टीवी में रहते हुए भी लोगों से अपील करते रहे कि वे टीवी चैनलों को देखना बंद कर दें। लेकिन उनकी यह अपील उनके मुरीदों पर भी बेअसर रही और रहना ही थी, क्योंकि हिंदी समाज की पढ़ने की आदत छूट गई है। वह टीवी पर सुबह से लेकर रात तक कुकुर भौं को ही पत्रकारिता समझता है और अपने घर में सोफे पर पसर कर या बिस्तर पर लेट कर टीवी में खोया रहता है। इसीलिए एक टीवी चैनल के बिकने और उसके एक एंकर के इस्तीफे पर वह इस कदर शोकमग्न है मानो एनडीटीवी बस क्रांति करने ही वाला था और उसके बिकने से क्रांति रूक गई है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

अनिल जैन
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