Thursday, April 18, 2024

जस्टिस अरुण मिश्रा को मिल गयी सरकार और कॉरपोरेट के सेवा की मलाई

उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश, जस्टिस अरुण कुमार मिश्रा ने बुधवार को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के अध्यक्ष के रूप में पदभार संभाला। जस्टिस मिश्रा पिछले साल सितंबर में सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुए थे। आयोग के अध्यक्ष का पद भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति एच एल दत्तू के दिसंबर 2020 में अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद से खाली पड़ा हुआ था। इस पद पर जस्टिस अरुण कुमार मिश्रा की नियुक्ति को लेकर भारी विवाद उत्पन्न हो गया है और यहाँ तक सोशल मीडिया पर कहा जा रहा है कि देश में मानवाधिकार के हक में लड़ने वालों को फिलहाल 2024 तक उम्मीद छोड़ देनी चाहिए, आज मानवाधिकार आयोग के चेयरमैन पद पर सिस्टम के एक टूल रिटायर्ड जस्टिस अरुण मिश्रा बैठ चुके हैं। 

पीएम मोदी की अध्यक्षता वाली कमेटी में जस्टिस अरुण मिश्रा को राष्ट्रीय मानवाधिकार परिषद का अध्यक्ष चुना गया।मोदी के अलावा इस कमेटी में गृह मंत्री अमित शाह, राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश, लोकसभा स्पीकर ओम बिरला और राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे थे। मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस फैसले से असहमति जताई।

जस्टिस अरुण मिश्रा ने रिटायरमेंट के ठीक पहले अडानी राजस्थान पावर लिमिटेड को बड़ी राहत देते हुए राजस्थान की बिजली वितरण कंपनियों के समूह की उस याचिका को खारिज किया कर दिया था, जिसमें एआरपीएल को कंपनसेटरी टेरिफ देने की बात कही गई थी। जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस विनीत शरण और जस्टिस एम आर शाह की पीठ ने राजस्थान विद्युत नियामक आयोग और विद्युत अपीलीय पंचायट के उस फैसले को सही ठहराया है जिसमें इसके खिलाफ अपील की गई थी। इस फैसले से राजस्थान में सार्वजनिक बिजली वितरण संस्थाओं और उपभोक्ताओं को लगभग 5,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ । यानी सीधा 5 हजार करोड़ का प्रॉफिट अडानी समूह को। दरअसल 2019 के बाद से जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली पीठ ने सात फ़ैसले अडानी ग्रुप के पक्ष में दिए हैं। जिससे भारत के दूसरे सबसे अमीर आदमी की अगुवाई वाले कॉरपोरेट समूह को हजारों करोड़ रुपए से ज़्यादा की बड़ी राशि का फ़ायदा पहुंचा है।

दरअसल जस्टिस मिश्रा शायद ही कभी विवाद में नहीं रहे हों। उन्होंने अक्टूबर,1999 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के तौर पर अपना करियर शुरू किया था और जुलाई, 2014 में उच्चतम न्यायालय के उच्च पद पर आसीन हुए थे, इसके तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए गठबंधन की सरकार सत्ता में आयी थी। कुछ लोगों की तरफ़ से उनके बारे में कहा गया था कि वे सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वैचारिक मूल संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समान विचार रखते हैं, इसलिए जस्टिस मिश्रा के बारे में बताया जाता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के शासन के दौरान मई 2014 से पहले तीन बार सुप्रीम कोर्ट में उनके पदोन्नयन को खारिज कर दिया गया था।

जस्टिस मिश्रा के बारे में यह धारणा इसलिए बनी थी, क्योंकि सत्तारूढ़ दल के सदस्यों के साथ जस्टिस मिश्रा की कथित निकटता कम से कम दो बार जगज़ाहिर हुई है। दिसंबर,2016 में उन्होंने ग्वालियर और नई दिल्ली में अपने भतीजे की शादी समारोहों का आयोजन किया था, जिनमें भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने भाग लिया था। इन नेताओं में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री, शिवराज सिंह चौहान भी थे, जो ग्वालियर के शादी समारोह में शामिल हुए थे। नई दिल्ली में आयोजित शादी के स्वागत समारोह में राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के अलावा केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह और (दिवंगत) अरुण जेटली भी  शामिल हुए थे। फ़रवरी, 2020 में जस्टिस मिश्रा ने एक अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन में की गयी अपनी टिप्पणियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सार्वजनिक रूप से प्रशंसा करते हुए उन्हें बहुमुखी प्रतिभा वाले व्यक्ति और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित दूरदर्शी शख़्स के तौर पर तारीफ़ की थी।

न्यूज़क्लिक की रिपोर्ट के अनुसार 2015 में जस्टिस मिश्रा भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, एच.एल.दत्तू के साथ भी उस पीठ में थे, जिसने भारतीय पुलिस सेवा के एक पूर्व अधिकारी, संजीव भट्ट की उस याचिका को खारिज कर दिया था, जिसमें 2002 में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हुए गुजरात दंगों की जांच को फिर से खोले जाने के लिए अदालत के निर्देश की मांग की गयी थी। उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी थे। भट्ट ने उस याचिका में दावा किया था कि वह पुलिस के शीर्ष अधिकारियों की उस बैठक में ख़ुद मौजूद थे, जहां मोदी ने उस बैठक में मौजूद अफ़सरों को कथित रूप से दूसरी तरह से निपटने के निर्देश दिये थे, जबकि तीन दिन तक दंगे और आगज़नी होती रही थी।

जस्टिस मिश्रा ने 2017 में उन दो सदस्यीय पीठ का नेतृत्व किया था, जिसने सहारा-बिड़ला पत्रों  की जांच की याचिका को खारिज कर दिया था। उस मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो के अधिकारियों द्वारा मारे गये छापे के दौरान आदित्य बिड़ला समूह के कार्यालयों से बरामद दस्तावेज़ सामने आये थे। इन दस्तावेज़ों से पता चला था कि बड़ी मात्रा में विभिन्न लोक सेवकों और राज नेताओं को अलग-अलग समय पर रक़म का भुगतान किया गया था। इनमें प्रधानमंत्री, मोदी भी शामिल थे, जिन्होंने सहारा समूह के एक वरिष्ठ कार्यकारी के कंप्यूटर से ज़ब्त किये गये दस्तावेज़ की एक प्रविष्टि में कथित रूप से 25 करोड़ रुपये का भुगतान तब प्राप्त किया था, जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे।

जस्टिस मिश्रा उस पीठ में भी थे, जिसने मेडिकल कॉलेज रिश्वत घोटाले से जुड़े मामले पर फ़ैसला दिया था। यह मामला उस आरोप से पैदा हुआ था कि मेडिकल कॉलेज चलाने वाली प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट नामक एक संस्था ने चिकित्सा पाठ्यक्रम के सिलसिले में अपने लाइसेंस को लेकर उच्चतम न्यायालय में चल रहे एक मामले में अनुकूल फ़ैसला पाने के लिए वरिष्ठ सम्बद्ध लोक पदाधिकारियों को रिश्वत दी थी। इस मामले ने कुछ भागीदारों और भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा का भी नाम आया था।  

जस्टिस मिश्रा दो-न्यायाधीशों की उस पीठ का एक हिस्सा थे, जो कि कथित न्यायाधीश लोया मामलों की सुनवाई के लिए शुरू में गठित की गयी थी। न्यायाधीश बृजगोपाल हरकिशन लोया की मौत के आसपास की असामान्य परिस्थितियों पर 2017 में मीडिया में सनसनीखेज खुलासे ने उस समय देश में काफी हंगामा मचा था। अपनी मृत्यु के समय जज लोया एक ऐसे मामले की सुनवाई कर रहे थे, जो गुजरात पुलिस द्वारा सोहराबुद्दीन शेख नामक एक कथित जबरन वसूली करने वाले शख़्स, और उनके एक ज्ञात सहयोगी की हत्या के साथ साथ-साथ उसकी पत्नी,कौसर बी के बलात्कार और हत्या की कथित न्यायेत्तर हत्याओं से जुड़ा हुआ था। गुजरात पुलिस के ख़िलाफ़ इस मामले में मौजूदा केंद्रीय गृह मंत्री,अमित शाह के फंसने की संभावना भी थी, जो कथित हत्याओं के समय गुजरात के गृह मंत्री थे।

 जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा अडानी समूह के पक्ष में फ़ैसला दिया जायेगा।29 जनवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार के ख़िलाफ़ एक मामले में अडानी गैस लिमिटेड के पक्ष में फैसला दिया था। प्राकृतिक गैस वितरण नेटवर्क परियोजनाओं से जुड़ा हुआ यह वह मामला था, जिसे कंपनी उदयपुर और जयपुर में चला रही थी। राजस्थान सरकार द्वारा दिया गया अनापत्ति प्रमाणपत्र वापस ले लिया गया था और राज्य सरकार द्वारा अडानी गैस के एक आवेदन को नामंज़ूर कर दिया गया था।लेकिन, जो पहले से ही अडानी गैस द्वारा अपेक्षित अनुमति के बिना कार्यों के साथ आगे बढ़ने में खर्च किये जा चुके थे, उन लागतों को ध्यान में रखते हुए उच्चतम न्यायालय ने इन दोनों फ़ैसलों को पलट दिया था।

2 मई, 2019 को जब जस्टिस  अरुण मिश्रा और अब्दुल नज़ीर की एक पीठ ने टाटा पॉवर कंपनी लिमिटेड के ख़िलाफ़ एक मामले में अडानी इलेक्ट्रिसिटी मुंबई लिमिटेड के पक्ष में फ़ैसला दिया था।अडानी इलेक्ट्रीसिटी मुंबई, जो उस आदेश के समय अडानी इलेक्ट्रिसिटी मुंबई, रिलायंस एडीएजी (अनिल धीरूभाई अंबानी समूह) से मुंबई में बिजली वितरण कारोबार का अधिग्रहण करने की प्रक्रिया में थी, उस आदेश का लाभार्थी थी, जिसने मांग के आरोपों को लेकर अपने और रिलायंस एडीएडजी के बीच लंबे समय से चल रहे विवाद में टाटा पॉवर के तर्कों को खारिज कर दिया था।इसी पीठ ने 16 जुलाई, 2019 को टाटा पॉवर द्वारा इसके पहले के फ़ैसले के ख़िलाफ़ दायर पुनर्विचार याचिका को खारिज कर दिया।

7 मई, 2019 को जस्टिस  मिश्रा और न्यायमूर्ति शाह की पीठ ने राजस्थान सरकार के स्वामित्व वाले बिजली उत्पादन फर्म, जिसे यह कोयले की आपूर्ति करती है, उसके ख़िलाफ़ एक मामले में उत्तरी छत्तीसगढ़ में परसा ईस्ट कांटा बसन कोयला ब्लॉक से खनन कोयले में काम करने वाली एक अडानी समूह की कंपनी, पारसा कांटा कोलियरीज लिमिटेड के पक्ष में फ़ैसला सुनाया।इस मामले में भी दवे ने कहा कि इस मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन और इंदु मल्होत्रा की खंडपीठ द्वारा की जा रही थी, लेकिन न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता वाली ग्रीष्मकालीन अवकाश पीठ के सामने इस मामले को बिना किसी आदेश के सूचीबद्ध कर दिया गया।इस मामले में एक मध्यस्थ फ़ैसला शामिल था,जो परसा कांटा के पक्ष में था, और जिसे राजस्थान उच्च न्यायालय ने ख़ारिज कर दिया था। इस फैसले में उच्चतम  न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को पलट दिया था और मध्यस्थ फ़ैसले को आंशिक रूप से बरक़रार रखा था।

इसके बाद, अडानी पॉवर मुंद्रा लिमिटेड और गुजरात इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेटरी कमीशन के बीच एक मामले में सुनवाई की मांग करते हुए 23 मई, 2019 को जस्टिस मिश्रा और शाह की उसी अवकाश पीठ के सामने एक प्रारंभिक सुनवाई की अर्जी दी गयी। इस मामले की सुनवाई अगले दिन जस्टिस मिश्रा, भूषण गवई और सूर्यकांत की खंडपीठ ने की और एक ही सुनवाई के बाद फ़ैसले को सुरक्षित रख लिया गया।2 जुलाई, 2019 को सुनाये गये अपने आदेश में इस पीठ ने अडानी को गुजरात सरकार की वितरण संस्था को बिजली बेचने के लिए प्रतिस्पर्धात्मक बोली के ज़रिये हासिल किये गये अनुबंध को रद्द करने की अनुमति इस आधार पर दी थी कि सरकारी स्वामित्व वाली कोयला खनन कंपनी अडानी पावर मुंद्रा को कोयला आपूर्ति प्रदान करने में विफल रही थी।

22 जुलाई, 2020 को जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली उस पीठ ने इस मामले में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी, पॉवर कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड के ख़िलाफ़ कोरबा वेस्ट पॉवर कंपनी लिमिटेड के पक्ष में फैसला सुनाया, जिसमें न्यायमूर्ति भूषण गवई और कृष्ण मुरारी भी शामिल थे।कोरबा वेस्ट पॉवर प्लांट छत्तीसगढ़ में स्थित है और जिसे अप्रैल 2019 में अडानी समूह द्वारा अधिग्रहित किया गया था।

31 अगस्त को जस्टिस अरुण मिश्रा के नेतृत्व वाली पीठ ने बिजली नियंत्रकों द्वारा अडानी पावर को 8000 करोड़ रुपये के टैरिफ़ मुआवज़ा दिए जाने के फ़ैसले पर मुहर लगा दी। अडानी पावर द्वारा इस बिजली का उत्पादन राजस्थान में किया गया है। 2 सितंबर को जस्टिस मिश्रा के रिटायर होने से ठीक पहले आया यह फ़ैसला, 2019 की शुरूआत से सातवां ऐसा फ़ैसला है, जिसमें जस्टिस मिश्रा के नेतृत्व वाली बेंच का फ़ैसला अडानी समूह की कंपनियों के पक्ष में आया है।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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