जस्टिस अरुण मिश्रा! न्यायाधीश सरकार का लठैत नहीं होता

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सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत दवे को जब जस्टिस अरुण मिश्रा के फेयरवेल में नहीं बोलने दिया गया तो उन्होंने वह वक्तव्य सार्वजनिक कर दिया जिसे वह उस आयोजन में रखने वाले थे। इस वक्तव्य में उन्होंने जस्टिस मिश्रा को अपने भीतर झांकने की सलाह दी है। वैसे तो यह बयान दवे और बार की तरफ से था, लेकिन जस्टिस मिश्रा के पूरे कार्यकाल को देखने के बाद यह देश के हर सचेत नागरिक की तरफ से हो गया है। और खास कर अपने कार्यकाल के आखिरी सप्ताह में उन्होंने जो फैसले दिए हैं, उससे जस्टिस मिश्रा के लिए दवे की दूसरी सलाह भी बिल्कुल फिट बैठती है, जिसमें उन्होंने ईश्वर से उनकी चेतना को जगाने की प्रार्थना की है और आखिरी दिन आए उनके फैसले के बाद यह बात स्पष्ट तरीके से समझी जा सकती थी कि आखिर दवे ने ऐसी जरूरत क्यों महसूस की। दरअसल आखिरी दिन दिया जाने वाला फैसला कोई जज तो क्या मानवता में न्यूनतम विश्वास करने वाला शख्स भी नहीं देगा।

उन्होंने दिल्ली में रेलवे की पटरियों के किनारे 70 किमी के दायरे में बनी झुग्गी-झोपड़ियों को उजाड़ने का आदेश दिया और इसके साथ ही उन्होंने निर्देशित किया कि किसी भी तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप या फिर स्टे उस पर लागू नहीं होगा। इसके साथ ही बदले में किसी मुआवजे तक का भी जिक्र नहीं किया। 

एक ऐसे दौर में जबकि पूरा देश महामारी की तबाही का सामना कर रहा है। गरीब तो क्या मध्यवर्ग तक के सामने भोजन का संकट खड़ा हो गया है। रोजगार केवल जा रहा है, नौकरियां केवल छीनी जा रही हैं, वेतन कटौती आम है। फैक्टरियां बंद हैं, नया काम नहीं है। सरकार तक उनको एक पाई देने के लिए तैयार नहीं हुई। कोरोना काल में और उसके बाद गरीबों समेत सभी जरूरतमंदों के जीवन की गाड़ी कैसे आगे बढ़े इसको देखने की जिम्मेदारी सरकार की थी और अगर वह अपनी जिम्मेदारी पर खरी नहीं उतरी तो उसको याद दिलाना न्यायालय का काम था। या दूसरे रूपों में जस्टिस मिश्रा का काम था कि झुग्गियां उजाड़ने की जगह मारे-मारे फिर रहे लोगों को बसाने और उनके दरवाजे पर जाकर भोजन मुहैया कराने और उनके हाथों में कुछ नकद पैसा देने के लिए वह सरकार को निर्देशित करते, लेकिन यहां तो सुप्रीम कोर्ट ने यमुना की धारा ही उलट दी।

सहायता करने की बात तो दूर वह सीधे उनके घरों से उजाड़कर उन्हें बंगाल की खाड़ी में फेंक देना चाहता है। जस्टिस मिश्रा जब यह फैसला लिख रहे थे तो उन्हें उसी कलम से दिए गए अपने पिछले फैसले की याद भी नहीं आई, जिसमें उन्होंने राजस्थान बिजली विभाग के मामले में अडानी को 5000 करोड़ रुपये का फायदा पहुंचाया था। ये कैसी अदालतें हैं? और कैसी है इनकी न्याय व्यवस्था और यह कैसा कल्याणकारी राज्य है जिसमें एक जज गरीब से उसका घर छीन ले रहा है और अमीर को उसी कलम से मालामाल कर दे रहा है।

चलिए जज साहब मैं आप से अडानी को 5000 करोड़ रुपये का फायदा पहुंचाने के बारे में नहीं पूछूंगा, लेकिन आपकी कलम उस समय क्यों नहीं चलती जब एक रुपये की लीज पर हजारों हजार एकड़ जमीन इन कॉरपोरेट घरानों के नाम कर दिया जाता है। आदिवासियों को उनके स्थानों से उजाड़कर खनन और खदानों के आवंटन के नाम पर हजारों हजार एकड़ जमीनें किसी अडानी और किसी अंबानी को दे दी जाती हैं। यह सब तो जनता की संपत्ति है और लेकिन उसे पूरे गाजे-बाजे के साथ इन पूंजीपतियों के हवाले किया जाता है। शहर में निजी अस्पतालों के निर्माण का मामला हो या फिर स्कूलों की पंच सितारा इमारतों का बनना हो, इनके मालिकों को मिली एक रुपये की लीज वाली जमीनों पर आप ने कभी एतराज जाहिर नहीं किया। 

दरअसल यह गरीब विरोधी आपकी मानसिकता है जो आप से यह सब कुछ करवाती है। वरना आप तो न्याय की कुर्सी पर बैठते हैं। आप के लिए क्या गरीब, क्या अमीर और क्या कोई दूसरा। सब बराबर हैं, क्योंकि न्याय के देवी की आंखें तो बंद होती हैं वह सबके साथ एक जैसा व्यवहार करती है। इस धरती पर पैदा होने वाले हर शख्स का बराबर का हक है। यानी जितनी धरती एक अमीर की है उतनी ही गरीब की। कम से कम यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर तो यह बात 100 फीसदी लागू होती है। फिर आप किसी गरीब को कैसे एक झुग्गी में भी नहीं रहने देंगे, लेकिन किसी अडानी और रामदेव को हजारों-हजार एकड़ जमीनें मुफ्त में सरकार को देने देंगे। यह जो रामदेव और अंबानियों-अडानियों को जमीनें दी जाती हैं भला वो किसकी जमीनें होती हैं। क्या उन जमीनों में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले इन गरीबों की हिस्सेदारी नहीं है? 

अगर प्राकृतिक संसाधन आम जनता के हैं तो इस तर्क से उनमें किसी अडानी से बड़ा हिस्सा गरीबों का हो जाता है, लेकिन कौन कहे अडानी से उनका हिस्सा दिलवाने के आप खुद गरीबों को ही उनके घरों से उजाड़ दे रहे हैं और यह कोई एक फैसला नहीं है। इसके पहले आप इसी तरह के लगातार फैसले दिए जा रहे थे और अब तो उनकी सूची भी सार्वजनिक हो गई है। न्यूजक्लिक ने इस पर विस्तार से रिपोर्टिंग की है। आपने ऐसे आठ फैसले किए हैं, जिनमें अडानी को लाभ हुआ है और जाते-जाते आपने जीओ को अभयदान देकर अंबानी के टेलीकाम सेक्टर में एकछत्र राज करने की व्यवस्था भी कर दी। इसके तहत आप ने वोडाफोन और आइडिया को अतिरिक्त और इतना पैसा जमा करने का निर्देश दे दिया है, जिसमें उसके लिए अपनी कंपनी चलाने की जगह व्यवसाय छोड़कर बाहर जाना ही फायदेमंद रहेगा।

दरअसल अपने झुग्गी संबंधी इस फैसले के जरिये जस्टिस मिश्रा कॉरपोरेट की ही सेवा करना चाहते हैं। हम सब को पता है कि रेलवे का बड़े स्तर पर निजीकरण होने जा रहा है और उसमें सबसे बड़ी बोली और सबसे ज्यादा मांग मेट्रो शहरों में स्थित रेलवे की जमीनों की होगी। लिहाजा जमीन लेने के बाद उसके रास्ते में झुग्गी सरीखी इस तरह का कोई बाधा न हो उसको कारपोरेट सरकार से सुनिश्चित करवा लेना चाहता था और दिल्ली के संबंध में दिया गया यह फैसला भी किसी कॉरपोरेट घराने की सरकार के साथ मिलीभगत के बाद आया हो तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। 

ऊपर से आप अपने को भगवान का भक्त भी कहते हैं। कौन ऐसा भगवान होगा जो इतना अन्याय करता होगा। या फिर कौन ऐसा भक्त होगा जो इतने अन्याय को माफ करने का बोझ अपने भगवान पर डालेगा। चलिए आपको संविधान की बात समझ में नहीं आती है। आप अंतरात्मा और भगवान को ही जानते हैं। और अपने आखिरी फैसले में उज्जैन के महाबलेश्वर की भी आपने रक्षा की व्यवस्था कर दी। आप भक्त हैं या नहीं? मैं नहीं जानता, लेकिन आप न्यायाधीश नहीं थे।

मैं आपको न्यायाधीश मानने से इंकार करता हूं। हां, आप स्वयंसेवक जरूर थे। और इस दौर में और इसके पहले भी जितनी सेवा की जरूरत संघ को थी आप ने उसको पूरा किया और अंत में आपने संविधान को भी ताक पर रख दिया जैसा कि संघ चाहता है। और सरकार ‘एक्ट ऑफ गॉड’ से चल रही थी और आप ने अपने हिस्से की न्यायपालिका भगवान और अंतरात्मा के सहारे चलाई। आपने इस बात को सुनिश्चित किया कि कैसे लोग संविधान को भूल जाएं और न्याय के लिए कभी कोर्ट का रुख न करें।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

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