Wednesday, April 24, 2024

कबिरा खड़ा बज़ार (जेल) में!

भगत सिंह को सही अर्थों में वही लोग याद कर रहे हैं, जो उनके दर्शाए रास्ते पर चलकर संघर्ष कर रहे हैं। भगत सिंह ने दलितों को कहा था, “तुम असली श्रमजीवी हो!” हमारे देश में संघर्ष करने वाले दलितों और दमितों ने महात्मा बुद्ध, भगत कबीर, भगत रविदास, भगत नामदेव, ज्योतिबा फूले, बीआर आंबेडकर, भगत सिंह, कार्ल मार्क्स और अन्य क्रांतिकारियों की विचारधारा को अपनी सोच में पिरो कर राजकीय अत्याचार और सामाजिक दमन के विरुद्ध लड़ने के लिए नए बौद्धिक हथियार बनाए हैं। कबीर कला मंच, जिसके कलाकारों को अभी-अभी भीमा-कोरेगांव (यलगार परिषद) केस में गिरफ़्तार किया गया है, ऐसी ही टोलियों/ग्रुपों में से एक है। कबीर कला मंच का गीत है “ऐ भगत सिंह तू ज़िंदा है, हर एक लहू के कतरे में।“

हिंदी साहित्यकार भीष्म साहनी के नाटक ‘कबिरा खड़ा बज़ार में’ में भगत कबीर का सामना हिंदुस्तान के तत्कालीन बादशाह सिकंदर लोधी से होता है तो कबीर पूछते हैं कि बादशाह ने अमीर ख़ुसरो का नाम तो ज़रूर सुना होगा। बादशाह ‘हाँ’ में उत्तर देता है तो कबीर कहते हैं, “अपने बादशाह के गले में मोतियों का हार देखकर उन्होंने (अमीर ख़ुसरो) फ़रमाया था कि ग़रीबों के आँसू मोती बनके बादशाह के गले की ज़ेबाइश (श्रृंगार) बने हैं।” सिकंदर लोधी बताता कि वह बिहार जीत के आया है और पूछता है, “क्या यह कौम की ख़िदमत नहीं?” कबीर कहते हैं, “नहीं यह ख़िदमत नहीं। यह दीन की, ख़ुदा की तौहीन है।” कबीर यह भी कहते हैं, “जंग इबादत नहीं है। इंसान की ख़िदमत करना, उन्हें सुखी रखना इबादत है।” 

सिकंदर लोधी कहता है, “तू पहला इंसान है जो मेरे सामने इस तरह बोलने की जुर्रत कर रहा है।” ऐसे थे कबीर जिन्होंने ब्राह्मण को यह कहकर ललकारा ” जो तू बामन – बामनी जाया, तो आन बाट तू क्यों नहीं आया।” और लोगों को ललकारा “सूरा सो पहचानिए, जो लरै दीन के हेत॥ पुरजा-पुरजा कटि मरै, कबहुँ ना छाड़े खेत॥ 

हां, यह थे/हैं कबीर; जब ब्राह्मणवाद ने बहुत सारे संतों और भक्तों की वाणी को अपने कलेवर में लेकर किसी ना किसी तरह उनको किसी श्रेणीकरण/संस्थापन में घेर लिया है, वहां कबीर के बोल आज भी विद्रोह के बोल बनकर जगह-जगह पर जातिवादी ताकतों, पूंजीवादी वर्ग और सत्ताधारी शक्तियों के विरुद्ध लड़ने के हथियार बनकर लोगों के दिलों में धड़क रहे हैं। उन्होंने लोगों के दिलों में जिन्होंने सदियों से हो रहे अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध झंडे बुलंद किए हैं।  

ऐसे लोगों में पुणे के कुछ नौजवानों के द्वारा स्थापित किया गया कबीर कला मंच भी है जिसके कलाकारों सागर गोरखे, रमेश गायचोर और ज्योति जगताप को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी – एनआईए) ने 2018 के भीमा कोरेगांव (यलगार परिषद) केस में गिरफ्तार किया है। गिरफ्तार होने के कुछ दिन पहले सागर गोरखे और रमेश गायचोर ने आरोप लगाया था कि एनआईए उनके ऊपर देश में पहले से गिरफ्तार किए गए चिंतकों, कलाकारों, विद्वानों, वकीलों और जम्हूरी अधिकारों के कार्यकर्ताओं (तेलुगू कवि वरवर राव, जम्हूरी अधिकारों की कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज, आनंद तेलतुंबड़े, गौतम नवलखा, अरुण फरेरा और वरनॉन गोन्ज़ाल्विस, सुधीर धवले, महेश रावत, सुरेंद्र गाडलिंग, रोना विल्सन सोमा सेन आदि) के माओवादियों के साथ संबंध होने के बारे में बयान देने के लिए दबाव डाल रही है। 

यह कबीर कला मंच क्या है? इस मंच के कलाकार कई दशकों से महाराष्ट्र के दलितों, दमितों और हाशिये पर धकेल दिये गए लोगों की आवाज बने हुए हैं। इसके सदस्य जनकवि हैं, गायक और कलाकार हैं। इस मंच का नेतृत्व करने वालों में जिनमें सचिन माली, शीतल साठे, रमेश गायचोर, सागर गोरखे, ज्योति जगताप, रूपाली यादव और अन्य कई लोग शामिल थे, को पहले ही जेलों में बंद कर दिया गया था; उनके ऊपर गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम एक्ट (Unlawful Activities Prevention Act –UAPA) के अधीन केस दर्ज किए गए थे।  

यह जनकवि और कलाकार गीतों और नाटकों के माध्यम से दमन और अत्याचार का विरोध करने वाले हैं। यह लोग अपने आप को इस तरह परिभाषित करते हैं: 

हम मेहनतकश मजदूर 

सृष्टि के असली करतार 

हम कारीगर, काश्तकार 

इस दुनिया के शिल्पकार 

यह कायनात हमारे काम करने से बनी है 

यह संसार हमारी मेहनत पर कायम है 

धरती के सिरजनहार हैं हम 

जब-जब मुफ़्तखोरों ने, हमसे 

हमारी ही रोटी छीन ली 

तो हम पूरी ताकत से लड़े 

हमारी मुट्ठियाँ तन गईं 

(सागर गोरखे)

इन शब्दों की ताकत मराठी और इनके गायन में अनुभव की जा सकती है। इन गीतों में तथाकथित साहित्यिक उत्कृष्टता पर यह कलाकार डफ़लियों की ताल और हारमोनियम के सुरों पर शब्दों को दोहराते हुए अजब तरीके का समां बांधते हैं जिसमें अत्याचार का शिकार हुए लोगों को ऊर्जा और संघर्ष करने की ताकत मिलती है। यह कलाकार विभिन्न जगहों पर हुए संघर्षों में शामिल हुए। दिल्ली और अन्य जगहों पर हुए नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध हुए संघर्षों में भी। जामिया मिलिया इस्लामिया और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को भी निशाना बनाया गया। कई जगहों पर विद्यार्थियों पर लाठियां बरसा रही पुलिस को गुलाब के फूल दिये। कलाकार शीतल साठे कुछ यूँ गाती हैं: 

अंग्रेजों से लड़े थे हम 

कौन यह देसी साहब है 

आजादी हमारा ख्वाब है 

यह गुलाब नहीं, इन्क़लाब है 

कबीर कला मंच 2002 के आसपास ज्यादा उभर कर सामने आया। महाराष्ट्र में दलित-विद्रोह की लंबी परंपरा है। ज्योतिबा फुले, सावित्री फुले और बीआर आंबेडकर से होती हुई यह महाराष्ट्र के दलित पैंथर कवियों और कारकुनों से होती हुई कबीर कला मंच धारावी की स्लम में पैदा हुई विद्रोही चलवल (आंदोलन), चंद्रपुर के देशभक्ति युवा मंच (2007 में अरुण फ़रेरा के साथ सक्रिय होने के कारण क़ैद किया गया था) रिपब्लिकन पैंथर जाती अंताची (अंतिम) चलवल (RP) (जिसके संस्थापक सुधीर धवले माओवादियों के साथ संबंध होने के दोष लगने के कारण जेल गए), समता कला मंच और नया कई ग्रुप महाराष्ट्र में सरगर्म हैं। 

कई टोलियों में फूट पड़ गई, मतभेद उभरे, कई सदस्य साथ छोड़ गए, अलग टोलियाँ बनीं। यह सब आंदोलनों में होता है पर इन पर इन आंदोलनों और टोलियों में लोक-मन धड़कता है यह लोक-मन दूसरे धर्मों, जातियों, प्रांतों, देशों के लोगों के साथ मित्रता चाहता है। डफ़ली बजाती शीतल साठे गाती हैं: 

ऐ भगत सिंह तू ज़िंदा है 

हर एक लहू के क़तरे में 

हर एक लहू के क़तरे में 

इन्क़लाब के नारे में 

शब्द पीछे रह जाते हैं, संगीत और लय लोगों का दिल मोह लेते हैं; “ऐ भगत सिंह तू ज़िंदा है” यह पंक्ति सामाजिक अन्याय के विरुद्ध विद्रोह का प्रतीक बनकर लोगों के लहू में घुल जाती है।यह वह ज़मीन है जहाँ ज्योतिबा फूले, बीआर आंबेडकर, भगत सिंह, कार्ल मार्क्स और अन्य अन्य क्रांतिकारी इकट्ठा होते हैं।

सागर गोरखे, रमेश गायचोर, दीपक डोंगले, सिद्धार्थ भोंसले, सचिन माली और अन्य कई लोगों ने कई साल जेल में गुजारे हैं। सागर और रमेश जेल के बारे में बताते हैं: “जेल की लाइब्रेरी में ज्यादा किताबें धार्मिक विषयों से संबंधित हैं। बीआर आंबेडकर की लिखी हुई एक भी किताब नहीं है; संविधान की एक भी कॉपी नहीं है (यह उन्होंने जावेद इकबाल को दिए हुए साक्षात्कार में बताया)।” उन्होंने जेल में हड़ताल की। जय भीम का नारा बुलंद किया। इसी साक्षात्कार में सागर गोरखे, रमेश गायचोर और अन्य ने बताया, “हम अपने आप को बहुजन कहलाना चाहेंगे, हम कई जातियों के हैं, आदिवासी, दलित, पिछड़ी जातियों वाले …..हमने एक दलित औरत को अपनी टोली का अगुआ बनाया है।”

वरिष्ठ फिल्मसाज़ आनंद पटवर्धन की फिल्म ‘जय भीम कामरेड’ का एक हिस्सा कबीर कला मंच पर केंद्रित है। आनंद पटवर्धन ने 2012 में इस कमेटी में शामिल होकर इस मंच के सदस्यों को न्याय दिलवाने का बीड़ा भी उठाया। इस इस डिफेंस कमेटी में बाबा साहेब आंबेडकर के पौत्र और वंचित बहुजन आघाड़ी के प्रमुख प्रकाश आंबेडकर और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के प्रकाश रेड्डी और भालचरण काँगो भी शामिल हैं। आनंद पटवर्धन बताते हैं कि जैसे-जैसे दलितों पर  अत्याचार बढ़े कबीर कला मंच की सरगर्मियां भी बढ़ीं।

इस ग्रुप ने नरेंद्र दाभोलकर और गोबिन्द पानसरे, जिनका कट्टरपंथियों ने कत्ल कर दिया था, के बारे में गीत लिखे और गाए। महाराष्ट्र के भांदरा जिले के खैरलांजी गांव की 2006 की घटना है, जिसमें दलित औरतों (मां और बेटी) को नंगा करके जुलूस निकालने और बलात्कार करने के बाद (उस माँ और उसके दो बेटों समेत) मार दिया गया था, के बाद कबीर कला मंच ने जातिवादी भेदभाव और हिंसा की ओर विशेष ध्यान दिया और जातिवाद-विरोधी विषयों पर गीत लिखे और गाए। 

सागर गोरखे और रमेश गायचोर 2014 से 2017 तक जेल में रहे थे। अब उन्हें फ़िर गिरफ्तार किया गया है। जब वह पिछली बार जेल में थे तो क़ैदी उन्हें गीत सुनाने के लिए कहते थे। आंदोलन से संबंधित उनके गीत सुनकर क़ैदी कहते कि भाई यह तो बहुत भारी (यानि गंभीर) हैं; फिर भी वह गीत सुनते। यह लोग अब भी गा रहे होंगे। जेल में कबीर वाणी गूंज रही होगी। कबीर का नाम लेने वाले जेल में हैं। कबीर की आत्मा बंदीखाने में है, जहाँ से यह आवाज आ रही है जहाँ से यह आवाज आ रही है:

गगन दमामा बाजिओ 

परिओ नीसानै घाउ ॥ 

खेत जु माण्डेओ सूरमा 

अब जूझन को दाँव॥ 

(युद्ध-नगाड़ा जब मन के आकाश पर गूँजता है, तो लक्ष्य बींध कर घाव कर जाता है, जो योद्धा हैं जंग के मैदान में उतर आते हैं, यहीं जूझ मरने का समय है।)

(स्वराजबीर पंजाबी कवि, नाटककार और पंजाबी ट्रिब्यून के संपादक हैं।) 

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