Friday, March 29, 2024

कर्नाटक चुनाव परिणामः धर्म की तुलना में भारी हैं, सोशल वेलफेयर के वादे

प्रधानमंत्री मोदी ने एक शब्द खोजा है, ‘रेवड़ी कल्चर’। उनका पसंदीदा मीडिया एंकर इसे राजनीति के लिए बेहद खतरनाक मानता है; क्योंकि उसकी नजर में यह जनता को लोभी, लालची और पतित बनाता है। जब मोदी प्रधानमंत्री नहीं थे, तब वह मनरेगा जैसी व्यवस्था को भी इसी नजरिये से देख रहे थे और इसके लिए उन्होंने तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मजाक बनाते हुए कहा था, इसे इतिहास की नुमाईश की तरह सजा कर रखा जायेगा।

वह ‘गुजरात माॅडल’ लेकर आ रहे थे जिसमें नीति-निर्माता और पूंजी के बीच किसी तरह की खाली जगह नहीं होनी थी। इसमें मजदूरों और किसानों के हक इनकी इच्छाओं पर निर्भर होने थे। 2021 से हम नीति-निर्माता और पूंजी के बीच की खाली जगह इतनी भर चुकी थी कि संसद में 2022-23 में मोदी-अडानी भाई-भाई के नारे लगने लगे। दूसरी ओर दिल्ली की केंद्र सरकार के ठीक नीचे सोशल वेलफेयर के वादे लेकर आने वाली आप पार्टी राष्ट्रीय पार्टी की श्रेणी में शामिल हो गई। कर्नाटक चुनाव का परिणाम यह दिखा रहा है कि तथाकथित रेवड़ी कल्चर चुनाव जीतने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

कर्नाटक की आर्थिक अवस्थिति को देखते हैं। 2011 के जनगणना सांख्यिकी के आधार पर भारत की औसत शहरीकरण की दर 31 प्रतिशत है। कर्नाटक में यह दर 38 प्रतिशत है। इसमें भी बेंगलुरु सबसे तेजी से बढ़ता शहर है जिसमें कर्नाटक की कुल शहरी आबादी का लगभग 37 प्रतिशत हिस्सा रहता है। धारवाड़ और मैसूर भी तेजी से बढ़ रहे हैं। लेकिन, शहरीकरण का मुख्य क्षेत्र कॉरिडोर आधारित विकास माॅाडल में है। इसकी सकल घरेलू उत्पाद की दर 2022-23 के लिए 7.9 प्रतिशत अनुमानित किया गया है। कुछ अन्य अनुमान 8.1 और 9.5 प्रतिशत भी हैं। 2021-22 में यह 11 प्रतिशत था।

जाहिर है विकास की दर को पिछले दर से कम आंका गया। लेकिन, भारत की कुल औसत में और अन्य राज्यों की तुलना में विकास की सीढ़ी पर कर्नाटक काफी आगे है। यहां यह ध्यान देने की बात है कि औद्योगिक विकास दर से दुगुनी गति से सेवा क्षेत्र विकसित हो रहा है। खेती की विकास की दर 15.1 प्रतिशत है। लेकिन, अर्थव्यवस्था में कुल मूल्य योगदान की दृष्टि से इसमें गिरावट दिख रही है। 2019-20 में खेती का कुल मूल्य योगदान 12 प्रतिशत था, जबकि कुल रोजगार में हिस्सेदारी 46 प्रतिशत थी। सेवा क्षेत्र की मूल्य में हिस्सेदारी तो 66 प्रतिशत है लेकिन रोजगार महज 33 प्रतिशत ही है। उद्योग 21 प्रतिशत मूल्य योगदान करके 19 प्रतिशत रोजगार उपलब्ध करा रहा था। स्पष्ट है बेरोजगारी और अर्ध-बेरोजगारी की विकट स्थिति देश के अन्य राज्यों की तरह कर्नाटक में भी कम खतरनाक स्थिति में नहीं है।

कर्नाटक की कुल जनसंख्या का 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सा गांव में रहता है। लेकिन, प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष आय के मद्देनजर यह भारत की औसत 1.71 लाख रूपये से कहीं बहुत ज्यादा 3.32 लाख रूपया है। निश्चित ही आय में गहरा भेदभाव भी है। कर्नाटक के चार बड़े शहरों में इस औसत से ज्यादा प्रति व्यक्ति आय है तो बाकी 24 जिलों में इस औसत से कम आय है। महज 902 रूपये प्रति माह गांव और 1,098 रूपये शहर पर कर्नाटक की कुल आबादी का 13.2 प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रहे थे, जो दक्षिण भारत के राज्यों के हिसाब से बहुत ज्यादा है। यह संख्या लगभग 1 करोड़ 30 लाख थी। यहां जन्मना बच्चों की मौत की दर भी 20 प्रतिशत है, जो दक्षिण के अन्य राज्यों की तुलना में कहीं ज्यादा है। अनुपयुक्त पोषण का शिकार लोगों का प्रतिशत 34 है। मानव विकास सूचकांक में राज्य के भीतर ही जिला स्तर पर बड़े पैमाने पर असमानता दिखती है। अखिल भारतीय स्तर के सूंचकांक की तुलना कर्नाटक की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, खासकर दक्षिण भारत के राज्य की तुलना में।

कर्नाटक के शहरों का आबादी घनत्व 2011 में लगभग साढे चार हजार प्रति किमी था। इन दस सालों में बंगलौर की आबादी में 30 लाख लोगों की बढ़ोत्तरी हुई। बढ़ती आबादी को सिर्फ रोजगार ही नहीं, उसे मकान, भोजन, दवा, परिवहन, पीने का पानी, बिजली आदि की जरूरत होती है। बंगलौर राज्य की कुल सकल घरेलू उत्पाद में 36 प्रतिशत की अकेले हिस्सेदारी करता है। इस तुलना में अन्य शहरों की भागीदारी बेहद कम है। यह स्थिति देश की आर्थिक राजधानी मुंम्बई की भी नहीं है, जिसकी राज्य में कुल भागीदारी 19 प्रतिशत की है। बेंगलुरु मुंबई के बाद दूसरा सबसे बड़ा अप्रवासी लोगों से बसा हुआ शहर है। यह कुल आबादी का 42.12 प्रतिशत है। इसके बाद मैसूर, मंगलौर और धारवाड़ आते हैं। इसने शहरों के मिजाज को बदलने में अपना योगदान दिया है। खासकर, धार्मिक और सांस्कृतिक विभाजन और झड़पों में इसकी अभिव्यक्ति को देखा जा सकता है।

कर्नाटक में साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के दूसरे दौर के शहरीकरण के समय में भूमिहीन, गरीब किसानों में असुरक्षा की स्थितियां तेजी से बढ़ रही थीं। वे रोजगार के लिए शहरों में जा रहे थे। गांव में सस्ते श्रम की कमी और बढ़ती लागत की वजह से मध्यम और धनी किसानों के सामने लाभ को बनाये रखने की समस्या थी। जनता दल इसका हिमायती बनकर आया। भाजपा जो खुद तकनीक और वित्त आधारित विकास नीति की पोषक थी, गांव की पारम्परिक रीति-रिवाजों के साथ खुद को जोड़कर जनता दल की आधार भूमि पर वोट बनाने का खूब प्रयास किया। वहीं शहर में, अप्रवासी मजदूरों, टैक्नोक्रेटों में उनकी असुरक्षा की भावना को धर्म और राष्ट्र की अवधारणा से अपने पक्ष में करने के लिए खूब प्रयास किया।

हालांकि उनका वोट प्रतिशत 1999 से 37 प्रतिशत का आंकड़ा पार नहीं कर पाया। 2018 के चुनाव में, जिसके परिणाम से कांग्रेस ने सरकार बनाई थी और बाद में भाजपा ने कांग्रेस और जनता दल को तोड़कर अपनी सरकार बना ली, भी भाजपा से अधिक 38 प्रतिशत वोट हासिल किया था। कांग्रेस ने इस बार सर्वाधिक लगभग 43 प्रतिशत वोट हासिल किया। अनुसूचित जाति आरक्षित कुल 36 में से 21 सीटें और अनुसूचित जनजाति की कुल 15 से 14 सीटें हासिल करना सामाजिक तनाव के साथ साथ उसकी आर्थिक स्थितियों को बयां करती है। यहां याद रखने की जरूरत है कि भाजपा ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण को 15 प्रतिशत से बढ़ाकर 17 प्रतिशत कर दिया लेकिन इसके भीतर ही 6 प्रतिशत का आंतरिक आरक्षण की व्यवस्था किया जो ‘स्पर्शनीय’ और राईट ग्रुप के नाम पर विभाजन किया गया, जिसका बंजारा समुदाय ने तीखा विरोध प्रदर्शन किया था। कर्नाटक की कुल आबादी का 12.92 प्रतिशत मुसलमान और 1.87 प्रतिशत ईसाई हैं। भाजपा ने इन समुदाय से एक भी प्रतिनिधी को चुनाव में नहीं उतारा और, चुनाव के दौरान खुलेआम खुद प्रधानमंत्री ने जय बजरंग बली का नारा दिया।

कर्नाटक में कुल हिंदी भाषी 1.43 प्रतिशत हैं, जबकि उर्दू भाषा का इस्तेमाल करने वाले 10.83 प्रतिशत। कन्नड़ भाषी 66.46 प्रतिशत हैं। गृहमंत्री अमित शाह ने जब हिंदी का राग अलापना शुरू किया उसका सीधा असर दक्षिण भारत के राज्यों पर पड़ा। कर्नाटक इससे अछूता नहीं था। इस तरह, हम चुनाव में इतिहास, भाषा, संस्कृति, धर्म, पंथ जैसे मुद्दों पर विभाजन की खिंचती रेखाओं को देख रहे थे। इसे सोनिया गांधी ने सीधे कन्नड़ राष्ट्रीयता से जोड़कर भाजपा की पैन-हिंदुइज्म की अवधारणा पर गहरी चोट की। लेकिन, इसके नीचे गुजरात की खेती आधारित कोऑपरेटिव उत्पाद, नंदिनी को कांग्रेस ने एक प्रतीक बनाकर कोऑपरेटिव से जुड़े किसानों और धनी उद्यमियों के लिए एक उम्मीद जगा दिया। यदि हम कांग्रेस की कुल वोट प्रतिशत की तुलना में देखें, तब ग्रामीण और अर्धग्रामीण क्षेत्र में वोट के प्रतिशत की बढ़त 6.5 फीसदी की दिखती है। इन इलाकों में कांग्रेस को 92 सीटें हासिल हुईं। भाजपा को सिर्फ 30 सीटें हासिल हुई हैं। बड़े शहरों में यह 4.5 प्रतिशत है, जबकि छोटे शहरों में यह 1.7 प्रतिशत ही है।

भाजपा को बड़े शहरों में दो सीट की बढ़त मिली, जो कुल 17 सीटों में परिवर्तित हुई। कांग्रेस की सीटें पिछले के मुकाबले 16 पर स्थिर रहीं। लेकिन, छोटे शहरों में कांग्रेस को 11 सीट की बढ़त मिली और यह 28 हो गया जबकि भाजपा को 4 सीट का नुकसान हुआ, और वह 17 सीट ही हासिल कर पाया। सबसे बड़ा नुकसान भाजापा को ग्रामीण क्षेत्र से हुआ है। जिन लोगों को खेती का संकट सिर्फ पंजाब तक दिखता है और दिल्ली में हुए धरने से ही कृषि संकट का पूरा ब्यौरा दे देते हैं, उन्हें दक्षिण भारत के राज्यों, जिसमें महाराष्ट्र को भी शामिल करना चाहिए, का दौरा करना चाहिए। इन राज्यों के किसान सैकड़ों किमी पैदल मार्च करते हुए वहां की राजधानियों में अपना प्रदर्शन कर रहे हैं। कृषि संकट में एक बड़ा संकट कर्ज और लागत की है। भाजपा पिछले कुछ सालों से चल रही कोऑपरेटिव पर ही हमला करने में लगी हुई है।

भाजपा खुलेआम कारपोरेट खेती की बात कर रही है, लेकिन उसमें लगी 60 प्रतिशत आबादी के सामने रोजगार का क्या विकल्प होगा, इसे वह पेश नहीं करती है। कांग्रेस भी इसका कोई विकल्प पेश नहीं कर रही है, लेकिन उन्हें ‘रेवड़ी’ देने का वादा जरूर कर रही है। उसने आंगनबाड़ी वर्कर्स के वेतन को 15000 करने का वादा किया है। पुरानी पेंशन योजना की बहाली एक बड़ा वादा है। खेती में 3 लाख तक का ऋण 3 प्रतिशत ब्याज पर उपलब्ध कराना भी एक वादा है। शक्ति योजना के तहत केएसआरटीसी और बीएमटीसी की बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा, 200 यूनिट बिजली मुफ्त, 10 किग्रा चावल की गारंटी, परिवार की प्रत्येक महिला मुखिया को 2000 रूपये प्रति महीना, बेरोजगार स्नातक को 3000 और डिप्लोमा धारक को 1500 रूपये प्रति माह दो साल तक देने का वादा, गाय का गोबर 3 रूपया प्रति किग्रा से खरीद जैसे वायदे ग्रामीण, अर्धग्रामीण और छोटे और बड़े शहर के गरीब और मध्यम लोगों के लिए राहत से कम नहीं है।

पिछले दस सालों में भाजपा की कथित सोशल इंजिनियरिंग के सामने जाति की लोहियावादी राजनीति और कांशीराम की सामाजिक गणित के किले ध्वस्त होते हुए दिख रहे थे। चुनाव में लगे मार्क्सवादी धर्म के खेल के सामने खुद को बेबस महसूस कर रहे थे। ऐसे में कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणाम ने अचानक ही एक ऐसा उत्साह पैदा कर दिया, कि लोग इसमें फासीवाद के खिलाफ एक नये अध्याय की शुरूआत देखने लगे। इस संदर्भ में, कर्नाटक चुनाव परिणाम के काफी पहले पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने एक साक्षात्कार में कही एक महत्वपूर्ण बात को याद कर लेना चाहिए। उनके अनुसार, किसान कुछ दिनों के लिए हिंदू होता है, बाकी समय में वह किसान ही होता है।

वह धर्म और अर्थव्यवस्था के बीच के रिश्ते को काफी अच्छे से अभिव्यक्त कर रहे थे। धर्म और जाति एक ऐतिहासिक संदर्भ है, उपनिवेशिक आर्थिक संरचनाएं इस संदर्भ को आधुनिक दौर तक ले आईं और इन्हें प्रतिनिधित्व की आधुनिक राजनीतिक संरचना में ढालकर उन्होंने भारत की एक आधुनिक राजनति व्यवस्था को बनाया। इसे हम ढो रहे हैं। अब तक का भारत की विधानसभा या लोकसभा चुनाव धर्म और जाति के प्रयोग से अलग नहीं रहा है। दलित और आदिवासी समुदाय का इन चुनावों में हिस्सेदारी और इन समुदायों का विधानसभा, विधायिका और सरकर में हिस्सेदारी का अनुपात जब बढ़ा तब इसे ‘साइलेंट रिवोल्यूशन’ नाम दिया गया।

ऐसी ही व्याख्या मध्यम जातियों की बढ़ती भागीदारी के संदर्भ में प्रो. रजनी कोठारी और अन्य अध्येताओं ने दिया। इन प्रविधियों का प्रयोग कर 2010 के बाद के चुनाव नतीजों का विश्लेषण हमें किसी उपयुक्त निष्कर्ष तक नहीं पहुंचायेगा। हमें भारत की आर्थिक संरचना में धर्म और जाति की उपयोगिता तलाशती कारपोरेट जगत की प्रबंधन व्यवस्था को सामने लाना होगा, तभी हम कथित सोशल इंजिनियरिंग की समझ विकसित कर पायेंगे और भारतीय राजनीति में एकाधिकारवादी फासिस्ट राजनीति की बढ़त को रोक पायेंगे।

कर्नाटक विधानसभा के चुनाव नतीजे से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। बहरहाल, ‘रेवड़ी कल्चर’, जिसे गाली की तरह प्रयोग किया गया है, भारत के संविधान के नीति-निर्देशक हिस्से में खूब अच्छे से वर्णित है। कोई भी सरकार और पार्टी का यह नैतिक दायित्व है कि इसके प्रावधानों को लागू करे। फिलहाल, कांग्रेस के सामने रेवड़ी बांटने से अधिक का विकल्प है नहीं। जो लोग कांग्रेस में भाजपा का विकल्प ढूंढ़ रहे हैं, इस मसले पर खुद को जरूर स्पष्ट रखें। मजदूर, किसान और मध्यवर्ग के लिए यदि आप रेवड़ी से अधिक की मांग कर रहे हैं।

( अंजनी कुमार टिप्पणीकार हैं।)

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