कर्नाटक में सभी सूत्र अब कांग्रेस की भारी जीत की भविष्यवाणी कर रहे हैं। सी वोटर के यशवंत देशमुख, जो मोदी-शाह के तमाम नैतिक-अनैतिक चुनावी दांव-पेंचों के पंचमुख प्रशंसक रहे हैं, और राजनीति की अपनी खास समझ के अनुसार इन सारी करतूतों को ही राजनीति माने हुए हैं, वे भी, मन मार के ही क्यों न हो, कर्नाटक में कांग्रेस को उसकी बढ़त की स्थिति से हटा नहीं पा रहे हैं।
फिर भी, अपने पर क़ाबू रखते हुए इतना ज़रूर कर रहे हैं कि किसी न किसी बहाने यह मानने से इंकार करते हैं कि कांग्रेस की बढ़त हर बीतते दिन के साथ बढ़ रही है। वहां बीजेपी लगभग पूरी तरह से बिखर चुकी है, उसके पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार के स्तर के परंपरागत रूप से आरएसएस से जुड़े व्यक्ति तक बीजेपी को छोड़ कर कांग्रेस के पाले में चले गए हैं।
उप मुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी पहले ही कांग्रेस का झंडा उठाए घूम रहे हैं। और कई विधायक तथा भारी संख्या में बीजेपी के कार्यकर्ता उसे छोड़ चुके हैं। कर्नाटक में बीजेपी के नाम पर अभी सिर्फ पैसा फेंक कर थोथे दिखावे का खेल बच गया है। मोदी तिरछी टोपी लगा कर भाड़े की भीड़ के सामने हाथ हिलाते हुए घूम रहे हैं और अपने पर फूलों की बारिस कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि उसकी दशा जेडीएस से भी कमजोर हो चुकी है। जेडीएस के पास अपना एक खास वोट बैंक हैं, पर बीजेपी के पास थोथे अहंकार के अलावा कुछ नहीं है।
फिर भी सी वोटर के यशवंत देशमुख यही कह रहे हैं कि अभी यह कहना मुश्किल है कि ‘कांग्रेस की स्थिति में कोई गिरावट आई है’। अर्थात् बीजेपी की अगाध शक्ति के प्रति आज भी उनकी आस्था इतनी प्रबल है कि वे कांग्रेस की स्थिति में तेज वृद्धि की बात को खुल कर नहीं स्वीकार सकते हैं।
कुछ यही स्थिति देशमुख के सैद्धांतिक जोड़ीदार, कम्युनिस्टों के वर्गवादी मानदंडों की तर्ज पर भारतीय समाज के सभी लक्षणों के जातिवादी निदान के अमोघ शस्त्र के धारक अभय दूबे की भी है। वे भी बीजेपी और खास तौर पर मोदी की ईश्वरीय शक्ति के प्रति अगाध आस्था रखते हैं।
दरअसल, यह मामला मोदी की शक्ति का नहीं, मूलतः हर दबंग सत्ताधारी के प्रति पूजा भाव का वह खास मामला है जो गोदी मीडिया का तो एक मात्र भाव होने के साथ ही गोदी मीडिया की ओर रुझान रखने वाले कई दूसरे मीडियाकर्मियों और टिप्पणीकारों का भी स्थायी भाव हुआ करता है।
हमें हमेशा यह सोच कर आश्चर्य होता है कि ऐसे विश्लेषक कैसे आपातकाल की तरह के काल के अंत में जो व्यापक जन-प्रतिरोध उभर कर सामने आया था वे तब उसकी कैसे कोई व्याख्या करते होंगे! ऐसे किसी भी काल में जब मनुष्य एक झटके में अपने अंतर की सभी अन्य पहचान-मूलक बाधाओं को तोड़ कर अपनी मानवीय प्राणीसत्ता का परिचय देता हुआ स्वातंत्र्य के मूल मंत्र से चालित होने लगता है और बड़ी से बड़ी आततायी शक्ति के शासन को तहस-नहस कर देता है; संक्रमण के जिस बिंदु पर जो दृश्य के बाहर होता है, वही चमत्कार की तरह यकबयक पूरे दृश्यपट पर छाने लगता है-तब ‘स्थिर जातिवादी-वर्गवादी पहचान के सिद्धांतों से चिपके रहने वाले व्याख्याकार कितने बौने हो जाते हैं, लगता है भारतीय राजनीति में फिर से एक बार इन दृश्यों को देखने का समय आ गया है। कर्नाटक में हमारी राजनीति का एक ऐसा ही संक्रमण बिंदु आभासित होने लगा है।
बहरहाल, हम इतना जरूर कहेंगे कि कर्नाटक में जो हो रहा है या होने जा रहा है, वह सिर्फ कांग्रेस की जीत नहीं, मोदी-शाह के भ्रष्ट और अपराधी शासन के प्रति भारत के लोगों का ज़बर्दस्त अस्वीकार है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के ज़रिए कांग्रेस के तार को सीधे तौर पर भारत के आम लोगों के साथ जोड़ दिए हैं। अब वह अपने पुराने भ्रष्ट नेताओं के बजाये क्रमशः जन-आकांक्षाओं से चालित हो रही है, जन-भावनाओं के मंच के रूप में सामने आने लगी है। कांग्रेस की जन-कल्याणकारी प्रतिश्रुतियों के अलावा जाति-गणना की तरह की युगांतकारी सामाजिक न्याय की मांगों का आज एक राष्ट्रीय मंच कांग्रेस बन रही है।
इसमें कोई शक नहीं है कि राहुल गांधी ने कांग्रेस को फिर एक बार वह आंतरिक विचारधारात्मक संहति प्रदान की है जो कांग्रेस को उसके परंपरागत दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समूहों से जोड़ती है, उसके अंदर की पुरानी परिवर्तनकारी गतिशीलता को पुनर्जीवित करती है। आज कांग्रेस का आम कार्यकर्ता पहले के किसी भी समय से ज्यादा उत्साहित और एकजुट है और कांग्रेस भारत में विपक्ष की राजनीति की धुरी बन चुकी है।
आगे 2024 तक आते-आते, भारतीय राजनीति में बीजेपी और मोदी-शाह के धुर्रे कैसे उड़ेंगे, कर्नाटक से इसके सारे संकेत मिलने लगे हैं।
(अरुण माहेश्वरी स्तंभकार एवं लेखक हैं।)