केजरीवाल नहीं हो सकते मोदी का विकल्प

पांच राज्यों के हालिया विधानसभा चुनाव नतीजों से जो दो विजेता उभरे वे हैं बीजेपी और आप। इसके बाद यह धारणा और मजबूत हुई कि बीजेपी का विकल्प आम आदमी पार्टी ही हो सकती है। खुद आम आदमी पार्टी तो ऐसा दावा कर ही रही है, बीजेपी और संघ के कथित फासीवादी एजेंडे का मुखर विरोध कर रहे समझदार और परिपक्व बुद्धिजीवियों का भी एक हिस्सा इस धारणा को न केवल स्वीकार कर रहा है बल्कि उत्साहपूर्वक इसके प्रसार-प्रचार में भी लगा है।

संघ के विचारों से प्रेरित और बीजेपी की अगुआई वाली सत्तारूढ़ पार्टी जिस तरह का घोषित और अघोषित अभियान हमारे लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ चला रही है, हमारे समाज के सामूहिक विवेक पर, हमारी न्याय चेतना पर जिस तरह के हमले कर रही है उससे चिंतित होना स्वाभाविक है। इसी क्रम में सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्षी दल के तौर पर कांग्रेस के प्रदर्शन से निराशा भी समझी जा सकती है। मगर इन दोनों कारकों के प्रभाव में अगर हम गलत समझ को स्वीकार कर लेंगे तो उसका फल आगे चलकर बड़ी निराशा के रूप में भुगतना होगा।

इसलिए यही समय है। हमें आज ही इस धारणा पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि क्या आम आदमी पार्टी को बीजेपी का विकल्प माना जा सकता है? हां तो कैसे और नहीं तो क्यों नहीं?

यह सही है कि आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में कांग्रेस के साथ-साथ बीजेपी से भी लोहा लिया, चुनावी लड़ाई में उसे धूल चटाई। अपनी सरकार के प्रदर्शन को लेकर भी वह बार-बार दावा करती रही है कि वह न कांग्रेस की पिछली सरकारों के मुकाबले बल्कि तमाम बीजेपी सरकारों से भी बेहतर साबित हुई है। यह दावा पूरी तरह गलत भी नहीं। कुछ मामलों में आम आदमी पार्टी की सरकार बीजेपी से बेहतर कही जा सकती है। इसने दिल्ली में कई अच्छे काम किए हैं। सिर्फ बिजली पानी की बात नहीं है, सरकारी स्कूलों की स्थिति बेहतर बनाने वाला इसका काम ऐसा है जो हर सरकार के लिए अनुकरणीय है।

मगर, कुछ काम कई सरकारें अच्छा करती हैं। नीतीश कुमार की सरकार ने भी बिहार में सड़कें बनवाईं, स्कूलों में टीचर्स की बड़े पैमाने पर भर्ती करवाई। शीला दीक्षित सरकार ने दिल्ली में इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट का ऐतिहासिक काम किया था। मनमोहन सिंह सरकार ने भी कई सारे अच्छे काम किए।

लोकतंत्र में किसी पार्टी या नेतृत्व की मुख्य कसौटी यह नहीं हो सकती कि उसने कुछ सुविधाएं या सहूलियतें लोगों को मुहैया कराईं। यह उसका काम है और उसे करना ही चाहिए। बतौर वोटर अगर हम इस पर धन्य महसूस करने लगेंगे कि फलां सरकार ने हमें कुछ सुविधाएं दीं तो उसका आकलन करने, उस पर लगातार नजर रखने का अपना दायित्व कैसे निभाएंगे? सरकार तो हम पर एहसान करने लगेगी और एहसान लादने लगेगी। हमें बताएगी कि हमने उसका नमक खाया है।

तो किसी पार्टी या नेतृत्व की मुख्य कसौटी क्या है? इस पर बात करने से पहले यह देखते हैं कि केजरीवाल मोदी का बदतर या बेहतर विकल्प क्यों नहीं हो सकते? सीधा सा जवाब है कि इसलिए क्योंकि वे विकल्प नहीं, प्रतिरूप हैं। जी हां, आल्टरनेटिव नहीं, सब्सटीट्यूट। कैसे? आइए एक-एक करके देखते हैं।

1) गौर कीजिए, दोनों का प्रस्थान बिंदु हमेशा एक ही होता है। दोनों शुरुआत ही इस सफेद झूठ से करते हैं कि पिछले सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ और यह कि वे जो कर रहे हैं वैसा आज तक कभी हुआ ही नहीं था। वैसे केजरीवाल के खाते में भी यह इकलौता झूठ नहीं है। उन्होंने अपनी पारी की शुरुआत ही इस झूठ से की कि वह राजनीति नहीं कर रहे। उनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। अन्ना आंदोलन के दौरान यह वाक्य उनका तकियाकलाम हुआ करता था। सभी जागरूक लोग समझते हैं कि चाहे वे हों या अन्ना या किरण बेदी या कोई और। जो कुछ वे सब मिलकर कर रहे थे वह विशुद्ध राजनीति थी। खुद को राजनीति से अलग बताने का पाखंड वे इसलिए कर रहे थे कि मिडिल क्लास को अपनी तरफ आकर्षित कर सकें।

2) पहली नजर में यह लग सकता है कि मोदी और केजरीवाल विचारधारा के मामले में एक-दूसरे से अलग हैं। मोदी खुद को खुलकर हिंदू राष्ट्रवादी बताते रहे हैं। केजरीवाल इस मामले में चुप्पी साधे रहते हैं। वह अपनी विचारधारा को छुपाए हुए हैं। इस मामले में वह मोदी से ज्यादा खतरनाक माने जा सकते हैं। क्योंकि मोदी की विचारधारा चाहे जितनी भी बुरी हो, सबके सामने है। हम उससे सहमत या असहमत हो सकते हैं, उसका समर्थन और विरोध भी कर सकते हैं।

पर केजरीवाल अपनी कोई विचारधारा नहीं बताते। सो, उस आधार पर उनका विरोध भी नहीं किया जा सकता। लेकिन तथ्य यह है कि वे भी अहम सवालों पर मोदी के साथ खड़े नजर आते हैं। जब दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान एक तरफ शाहीन बाग जैसा शांतिपूर्ण आंदोलन चल रहा था और दूसरी तरफ दिल्ली के कुछ हिस्से दंगों की आग में जल रहे थे, केजरीवाल ने दोनों पर चुप्पी बनाए रखी। बाद में धर्म आधारित राजनीति पर उनका स्टैंड बुजुर्गों को अयोध्या, आदि तीर्थस्थलों की मुफ्त यात्रा कराने और उत्तराखंड को हिंदुत्व की आध्यात्मिक राजधानी बनाने की उनकी घोषणाओं से जगजाहिर हो गया।

3) राष्ट्रवाद पर उनकी परीक्षा जेएनयू में 2016 में हुई कथित नारेबाजी वाले प्रकरण में हुई थी। एक तरफ बीजेपी समर्थकों का तांडव था कि यूनविर्सिटी में भारत तेरे टुकड़े होंगे… जैसे नारे लग कैसे सकते हैं। दूसरी तरफ इसके बरक्स दो बातें थीं। सबसे ऊपर तो यह सवाल था कि ऐसा कोई नारा लगा भी या नहीं। नारा अगर लगा तो किसने लगाया? आज तक उनमें से कोई पकड़ा नहीं गया। मगर इसी संदर्भ में यह बात कही जा रही थी कि मान लीजिए किसी ने गलती से नारा लगा भी दिया तो यह यूनिवर्सिटी है। यहां स्टूडेंट् हैं जो पढ़ रहे हैं। उनसे अगर कोई गलती हो जाती है तो आप उन्हें फांसी पर नहीं चढ़ाते, उन्हें समझाते-बुझाते हैं, उनकी सोच को दुरुस्त करते हैं।

यह काम विश्वविद्यालय में ही होता है। बीजेपी से इतर विपक्ष की तमाम पार्टियां अपने अपने ढंग से इस तर्क को रख रही थीं। लेकिन आम आदमी पार्टी के केजरीवाल की दलील उस समय यह थी कि आखिर केंद्र में मोदी सरकार के रहते हुए नारा लगाने वाले वे लोग भाग कैसे गए? उन्हें जल्द से जल्द गिरफ्तार क्यों नहीं किया जा रहा? सरकार इतनी नाकारा क्यों है? आप देख सकते हैं कि भले ऊपरी तौर पर उनकी बातें मोदी सरकार के खिलाफ जान पड़ रही हों, पर उनकी उग्र राष्ट्रवादी सोच की तर्क पद्धति के न सिर्फ अनुरूप थीं बल्कि उसे और मजबूती दे रही थीं।

4) दोनों में से किसी का भी लोकतंत्र में यकीन नहीं है। वे अपनी पार्टी के अंदर और बाहर जहां तक उनकी चल सकती है, अपने अलावा किसी की भी नहीं चलने देते, नहीं चलने देना चाहते। आलोचना को बर्दाश्त करना उनकी फितरत नहीं, मजबूरी होती है। मोदी को लेकर ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। पर केजरीवाल की सोच को स्पष्ट करने के लिए एक बार फिर अन्ना आंदोलन का उदाहरण काफी है। उनके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का निचोड़ यह था कि अगर जनलोकपाल बिल पास कर दिया जाए तो भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। अव्वल तो एक कानून से भ्रष्टाचार मिटाने का दावा अपने आप में हास्यास्पद था।

पर यह मूल रूप में सत्ता को विकेंद्रित करके आम लोगों को ताकत देने वाला तर्क नहीं था। यह तर्क अफसरशाही को मजबूत करने वाला था। जनलोकपाल के रूप में एक ऐसा अफसर हो जिसके पास पूरी ताकत हो। वह अफसर सब ठीक कर देगा। जाहिर है, ऐसी सोच लोकतांत्रिक तो नहीं हो सकती। इसके पीछे वह अफसरी नजरिया है जो केजरीवाल की अफसर वाली पृष्ठभूमि से उनके अंदर मजबूत हुआ है और पार्टी तथा सरकार चलाने के उनके तरीके में लगातार प्रकट होता है। उनके लिए लोकतंत्र सीएम प्रत्याशी चुनने के लिए फोन पर जनता से सर्वे कराने जैसी नौटंकी तक सीमित है।

5) मोदी हों या केजरीवाल इंसाफ दोनों में से किसी की प्रतिबद्धता नहीं है। इसीलिए धर्मनिरपेक्षता उनके लिए कोई मुद्दा नहीं। उन्हें अपने वोटर समुदाय को संतुष्ट करके उसका समर्थन हासिल करना है, उसके लिए चाहे जो भी कहना पड़ जाए कहेंगे, जिस बड़े से बड़े मसले को अनदेखा करना पड़े, करेंगे, उस पर मौन साधे रहेंगे।

ऐसा नेतृत्व और चाहे जो भी हो, नेतृत्व नहीं है। जो समाज को सही राह की ओर ले जाने की कूवत न रखता हो, वह देश और दुनिया को कठिन समय में नेतृत्व कैसे दे सकता है? जिसके लिए राष्ट्रीय विवेक मायने न रखता हो, जो तात्कालिक फायदों से ऊपर उठकर इंसाफ के तकाजों को पूरा न कर सकता हो वह राष्ट्रीय चेतना का वाहक नहीं हो सकता। और जो राष्ट्रीय चेतना का वाहक नहीं हो सकता, वह माफ कीजिए, अच्छा नेतृत्व नहीं दे सकता।

अब यह मत पूछिए कि आज की तारीख में कौन अच्छा नेतृत्व दे सकता है? आप खुद ढूंढिए, अगर स्थापित नेताओं में कोई नहीं मिले तो नया नेतृत्व सामने लाइए। और 130 करोड़ लोगों के देश में ऐसा नेतृत्व नहीं ढूंढ सकते तो चुल्लू भर पानी में डूब मरिए, पर यह मत कहिए कि मोदी, योगी, केजरीवाल या अलाने फलाने का कोई विकल्प नहीं है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि विकल्प न हो। हमने आपने आंखें बंद कर ली हों तो यह हमारी आपकी गलती है, विकल्प की नहीं।

(प्रणव एन लेखक और टिप्पणीकार हैं।)

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