कोविड-19 भी पूंजीवाद से पैदा होने वाला एक संकट

जितने लोग दूसरे विश्वयुद्ध में मारे गये थे, उससे कहीं ज़्यादा लोग ‘तीसरे विश्वयुद्ध’ में मारे गये। यह तीसरा विश्वयुद्ध नज़र नहीं आया, लेकिन यह चार दशकों तक चलता रहा। पूंजीवाद की यही सबसे बड़ी ख़ासियत है कि वह दिखता नहीं, मगर सोसाइटी और लोगों को अंदर से खोखला करता जाता है। इस तीसरे विश्वयुद्ध में हथियारों की होड़ अपने चरम पर रही और संसाधनों की लूट मची। संसाधनों की लूट की प्रोटोटाइप कहानी पेट्रोलियम के कारोबार की दिलचस्प, मगर क्रूर कहानी है। अजीब बात है कि इस तरह की कहानियों के बीच दुनिया के ज़्यादातर देश स्वतंत्र नज़र आ रहे थे, लेकिन हथियारों की होड़ और संसाधनों की लूट के निशाने पर भी वही ‘आज़ाद’ देश रहे हैं, जिसे दिखने वाले उपनिवेशवाद से कहीं ज़्यादा लूटा गया है।

हथियारों की होड़ ने आतंकवाद पैदा किये, स्टेट और नॉन-स्टेट एक्टर्स के बीच की एक नयी लड़ाई को जन्म दिया और  संसाधनों की लूट ने प्राकृतिक संतुलन में खलबली मचा दी। आज हम जिस किसी भी धर्म से आतंकवाद को जोड़ने के लिए मजबूर किये गये हैं, वह भी हथियारों की होड़ की एक कड़ी और रणनीति है, जिसमें मैन्यूफ़ैक्चर्ड इन्फ़ॉर्मेशन की पूंजीवादी वाली कुशल कारीगरी है और संसाधनों की लूट से असंतुलित हुई प्रकृति कहर बनकर टूटने लगी है।

ग़ौरतलब है कि दोनों से पश्चिमी देश भी आख़िरकार प्रभावित तो हुए हैं, लेकिन वहां स्थिरता बनी रही है, जबकि बाक़ी दुनिया पूरी तरह अस्त-व्यस्त रही है। दरअस्ल, चार दशकों तक चलने वाला यह तीसरा विश्वयुद्ध वह कोल्डवार है, जिसे पूंजीवाद ने दुनिया की क़ीमत पर सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने पक्ष में लड़ा है और दुनिया पर वह अपनी धारणा थोपने के लिहाज़ से पूरी तरह कामयाब भी रहा है। अगर, मौजूदा कोविड संकट की व्याख्या पूंजीवाद के शोषक चरित्र से किया जाये, तो आने वाले दिन और भी भयाभय होने वाले हैं।

यह महज़ संयोग नहीं है कि इस समय आप और हम अपने पड़ोसियों से भी बात नहीं कर पा रहे हैं, यह भी कोई संयोग नहीं है कि हम अपने पड़ोसी और रिश्तेदारों की बदहाली में साथ होने के बजाय, उसी समय हज़ारों रुपये के मोबाइल या गजट ख़रीदने की सोच रहे होते हैं। पूंजीवाद ने हमें वहां ला कर खड़ा कर दिया है, जहां आप व्यक्ति से कहीं ज़्यादा उपभोक्ता होते हैं, ऐसे में आप किसी व्यक्ति को एक सामाजिक प्राणी से कहीं ज़्यादा सेलर या परचेज़र या लाइज़नर की भूमिका में देखते हैं। आप उस मोड़ पर खड़े हैं, जहां पूंजीवाद ने आपको यह महसूस करा दिया है कि न्यूनतम संसाधनों में जीना या तो कंजूसी है या फिर बेवकूफ़ी है।

पूंजीवाद ने स्थायी मूल्यों की क़ीमत इतनी घटा दी है कि उन तात्कालिक मूल्यों की तरफ़ हम दौड़ने लगे हैं, जहां मूल्य रोज़ बदल दिये जा रहे हैं और उन मूल्यों को अपनाने की कसौटी पर ही अपने को अपडेट करने की दौड़ लगाने में हांफ़ने लगे हैं। हमें-आपको एक दिन इसी दौड़ के बीच हांफ़ते-हांफ़ते मर जाना है, कभी क़र्ज़ मारेगा, कभी मर्ज़ मारेगा और आपके-हमारे आस-पास शायद ही कोई हमदर्द हो। हमारे-आपके लाशों के पूर्व-चित्र सोशल मीडिया पर चस्पां होंगे, शब्दों के आंसू बहेंगे, मगर सन्नाटों के बीच हमारे-आपके बीवी या पति, बच्चे होंगे।

पूंजीवाद की आलोचना करने वाले जब आपको चिढ़ाने लगें, तो किताबों से हट कर फ़ुर्सत निकालकर कभी अपने आस-पास के लोगों,उ नके बदले हुए मिज़ाज और नये सामाजिक-सांस्कृतिक और सभ्यतागत संकट पर नज़र डालियेगा, आप स्वयं को कम्युनिस्ट की कैटेगरी में पायेंगे। आपको सरकार, प्रशासन और कथित समाजसेवी, यानी एनजीओ चलाने वाले, पंडित-मुल्ला-पादरी सबके सब इसी पूंजीवाद के एजेंट दिखेंगे। फिर आप स्वयं को कम्युनिस्ट होने से नहीं रोक पायेंगे। फिर तो आपके भीतर इन रावणों के ख़िलाफ़ एक राम की भूमिका कसमसाने लगेगी; कुरीतियों के ख़िलाफ़ एक पैग़म्बर का किरदार उफ़नने लगेगा और आप इस कथित आधुनिक कही जाने वाली दुनिया से विद्रोह कर थोड़े प्रकृति को बचाने की पुरातन शैली की तरफ़ लौटने की कोशिश करेंगे, जिसे पिछड़ापन नहीं, बल्कि प्रोग्रेसिव अप्रोच माना जायेगा।

यक़ीन है जब-तब इसकी झलक हम सबको मिल रही है और प्रोडक्टों की भीड़ से घिर हम सब थोड़ा-थोड़ा प्राकृतिक होने के लिए कसमसाने भी लगे हैं। यह कसमसाहट दुनिया को बचाने के लिए बेहद ज़रूरी है, यह कसमसाहट कोविड-19 जैसी बीमारियों की आहट को बंद करने के लिए भी उतनी ही ज़रूरी है। यह कसमसाहट महज़ मध्यवर्ग के व्यक्तिवाद, उनके ही घेरे में सजने वाली समानता, स्वतंत्रता और बंधुनत्व की कोख से पैदा होते उस उपभोक्तावाद के ख़िलाफ़ मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, जो पूंजीवाद को मनुष्य की क़ीमत पर क्रूर और बेलगाम बनाता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

उपेंद्र चौधरी
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