इस बार का श्रमिक दिवस आत्म चिंतन के लिए अनेक गहन और गंभीर प्रश्न हमारे सम्मुख उपस्थित कर रहा है। कोरोना के बाद की दुनिया में श्रम के स्वरूप और श्रमिकों की स्थिति को लेकर संशय व्याप्त है। प्रधानमंत्री जी ने कोरोना के बाद की दुनिया की कार्य संस्कृति के विषय में पिछले दिनों एक विस्तृत आलेख लिखा है। आलेख में व्यक्त उनके विचार विकसित देशों में इस विषय पर हो रहे अद्यतन शोधों के अब तक प्राप्त निष्कर्षों पर आधारित लगते हैं। कोरोना के बाद की दुनिया पहले जैसी नहीं रह जाएगी। दरअसल इस दुनिया को कोरोना के बाद की दुनिया भी कहना शत प्रतिशत सही नहीं है। एक आशंका यह भी है कि हमें कोरोना के साथ रहना होगा और इसके संक्रमण से बचने की युक्तियों का प्रयोग करते हुए अपने जीवन को पटरी पर लाना होगा।
कोरोना से बचाव की हमारी यह कोशिशें हमारी आर्थिक गतिविधियों के स्वरूप में व्यापक और कई क्षेत्रों में तो आमूलचूल परिवर्तन ला देंगी। यदि कार्यालयों की चर्चा करें तो वर्क फ्रॉम होम हमारी कार्य संस्कृति का एक भाग बन जाएगा। यदि बैंकों और बीमा कंपनियों तथा अन्य वित्तीय संस्थानों के भावी स्वरूप पर विचार करें तो हम डिजिटल व्यवस्था की ओर बढ़ते दिखते हैं जहां ह्यूमन इंटर फेज को न्यूनतम रखते हुए ऑन लाइन लेन देन को अनिवार्य बनाया जाएगा। आवश्यक वस्तुओं को आपके घर तक पहुंचाने वाले और तैयार व्यंजनों का स्वाद आपके दरवाजे तक लाने वाले सेवा प्रदाता आने वाले दिनों में अपने व्यवसाय में बड़ी वृद्धि की आशा संजोए हुए हैं। शिक्षा के क्षेत्र में ई लर्निंग और दूरवर्ती शिक्षा अब केंद्रीय भूमिका में आ जायेगी तथा ऑन लाइन कक्षाओं एवं ऑन लाइन परीक्षाओं का युग प्रारंभ होगा।
चिकित्सकीय क्षेत्र में टेलीमेडिसिन द्वारा डॉक्टरों से परामर्श लेना और ऑन लाइन आर्डर करके दवाइयों की डोर स्टेप डिलीवरी प्राप्त करना आने वाले समय में सामान्य व्यवहार बन जाएंगे। हैंड सैनिटाइजर, दस्ताने, सैनिटाइजिंग टनल आदि के निर्माताओं का व्यवसाय कल्पनातीत वृद्धि कर सकता है। प्रधानमंत्री जी के अनुसार लॉजिस्टिक्स व्यवसाय के लिए आवश्यक माने जाने वाला भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर अब धीरे धीरे अनिवार्य नहीं रह जाएगा और लोग घरों से ही यह व्यवसाय चला सकेंगे। प्रधानमंत्री जी ने नई कार्य संस्कृति में निर्धारित टास्क को पूरा करने की क्षमता और कार्यकुशलता को केन्द्र में रखा है। प्रधानमंत्री जी ने नई कार्य संस्कृति को दर्शाने वाली दो प्रचलित अभिव्यक्तियों का भी प्रयोग अपने आलेख में किया है-बीवायओडी(ब्रिंग योर ओन डिवाइस) और डब्लूएफएच (वर्क फ्रॉम होम)। उन्होंने टेक्नोलॉजी के महत्व को रेखांकित करते हुए बताया है कि इससे अफसरशाही और भ्रष्टाचार में कमी आई है और गरीबों तक आर्थिक मदद डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर योजनाओं के माध्यम से पहुंची है।
कोरोना मनुष्य से मनुष्य में फैलता है और जब एक स्थान पर मनुष्य अधिक संख्या में एकत्रित होंगे तो इसके प्रसार की आशंका अधिक होगी। यही कारण है कि नई कार्य संस्कृति तकनीकी के प्रयोग द्वारा एक ऐसी व्यवस्था बनाने की वकालत करती है जिसमें ह्यूमन इंटरफेज न्यूनतम हो। तकनीकी का प्रयोग धीरे धीरे मनुष्य की भूमिका को नगण्य और गौण बना देता है। इस बार भी ऐसा ही होने वाला है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स के विकास के साथ ही उत्पादन, निर्माण, ट्रांसपोर्ट, पैकेजिंग, चिकित्सा और सेवा के क्षेत्र में मनुष्य की उपस्थिति की अनिवार्यता कम हुई है। अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने कारखानों में पूर्ण स्वचलन को बढ़ावा दिया है और भारी पैमानों पर श्रमिकों की छंटनी भी हुई है।
कई बार उनके कार्य की प्रकृति बदली है और कार्य के घण्टे कम हुए हैं तदनुसार उनके वेतन में कटौती की गई है। उनकी नौकरी पर अनिश्चितता के बादल मंडराते रहे हैं और भविष्य की आशंकाएं उन्हें परेशान करती रही हैं। श्रमिकों को अब यह ध्यान रखना होगा कि कोरोना के आगमन के बाद बनने वाली कार्य संस्कृति में उनकी उपेक्षा न होने पाए। कॉर्पोरेट जगत और उससे मित्रता रखने वाली विभिन्न देशों की सरकारें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, रोबोटिक्स आदि के प्रयोग द्वारा अनेक क्षेत्रों में कम्पलीट ऑटोमेशन लाने का प्रयास कभी मजदूरों की सुरक्षा का बहाना बनाकर तो कभी गुणवत्ता में सुधार का तर्क देकर करती रही हैं और इसमें वे कामयाब भी हुई हैं यद्यपि मजदूरों द्वारा किया जाने वाला प्रतिरोध पूर्ण स्वचलन के मार्ग में बाधक बना है। अब कोरोना ने हमारे सम्मुख मनुष्य रहित उत्पादन प्रणाली की स्थापना के पक्ष में मानव जाति की रक्षा जैसा प्रबल तर्क प्रस्तुत किया है जिसका आश्रय लेकर कॉरपोरेट कंपनियां श्रमिकों की भूमिका में अनावश्यक और अतिरिक्त कटौती कर सकती हैं।
भारत जैसे देश में ई कॉमर्स, डिजिटल बैंकिंग, ई लर्निंग, टेलीमेडिसिन आदि जैसे जैसे अपनी जड़ें जमाते जाएंगे वैसे वैसे कर्मचारियों की छंटनी और उनके वेतन भत्तों में कटौती के अवसर भी उत्पन्न होंगे। बहुत से कर्मचारी तो नवीन तकनीकी में दक्षता अर्जित न कर पाने के कारण अप्रासंगिक हो जाएंगे। कुछ कर्मचारियों की भूमिका इतनी सीमित, अस्थायी और अल्पकालिक हो जाएगी कि उन्हें अधिक वेतन पर स्थायी रूप से काम देना संभव नहीं होगा और वे जरूरत पड़ने पर याद किए जाने वाले पार्ट टाइमर का रूप ले लेंगे। तकनीकी के महत्व के बढ़ने का एक परिणाम यह होगा कि तकनीकी में दक्ष श्रमिकों और गैर तकनीकी श्रमिकों के मध्य की विभाजन रेखा अब और गहरी तथा स्पष्ट हो जाएगी तथा उनके जीवन स्तर एवं भविष्य की संभावनाओं में भी बड़ा अंतर देखा जाने लगेगा।
तकनीकी रूप से कुशल श्रमिक बेहतर स्थिति में होते हुए भी निश्चिंत नहीं रह पाएंगे क्योंकि नए तकनीकी बदलावों के साथ अनुकूलन करने की शाश्वत चुनौती उनके सम्मुख बनी रहेगी। इन तकनीकी बदलावों से अनुकूलन करने में विफलता का अर्थ होगा – जॉब लॉस। जब श्रम शक्ति सीमित होगी और महत्वहीन भूमिकाओं का निर्वाह करेगी तब स्वाभाविक है कि अधिकारों की उसकी मांग की उपेक्षा करने की प्रवृत्ति भी बढ़ेगी। आने वाले लंबे समय तक श्रमिकों को कोरोना के कारण उत्पन्न हुए आर्थिक आपातकाल का हवाला देकर बहुत कम वेतन पर कार्य करने हेतु विवश किया जा सकता है। राष्ट्र हित के लिए पूंजीपति अपने मुनाफे के साथ कितना समझौता करेंगे यह कह पाना तो कठिन है किंतु यह अवश्य कहा जा सकता है कि राष्ट्र के पुनर्निर्माण हेतु श्रमिकों की कुर्बानी अवश्य मांगी जाएगी और इसके लिए उन पर भावनात्मक दबाव भी बनाया जाएगा।
कोरोना के कारण टूरिज्म, ट्रेवल और हॉस्पिटैलिटी सेक्टर बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। हमारे देश में इनमें कार्य करने वाले लोगों की अनुमानित संख्या 2 करोड़ है। विशेषज्ञों का आकलन है कि इनमें से करीब 50 प्रतिशत लोग अपनी नौकरियां गंवा देंगे। कोरोना की मार ऑटोमोबाइल, ऑटो कंपोनेंट, एमएसएमई, कंज़्यूमर ड्यूरेबल्स, केपिटल गुड्स और स्टार्टअपस पर सर्वाधिक पड़ी है। एविएशन और आईटी सेक्टर का हाल भी बुरा है। इनमें वित्तीय अनुशासन और खर्चों में मितव्ययिता के नाम पर मानव संसाधन में जो कटौती होगी उसका सबसे पहला प्रभाव कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स पर पड़ेगा। जिन सेक्टर्स की हम चर्चा कर रहे हैं उनमें कार्य करने वाले मजदूरों और कर्मचारियों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है।
चाहे कार्य के घंटों की बात हो, कार्य की दशाओं का पैमाना हो, आर्थिक सुरक्षा की कसौटी हो या स्थायित्व का प्रश्न हो इनकी स्थिति चिंताजनक रही है। ठेकेदारी प्रथा आदि के प्रयोग द्वारा श्रम कानूनों की परिधि से ये बहुत चतुराई पूर्वक बाहर रखे गए हैं। इनमें से बहुत लोगों के साथ तो किसी प्रकार का लिखित अनुबंध भी नहीं किया जाता। यदि किया भी जाता है तो उसका पालन नहीं किया जाता। इनका अपने मालिकों के साथ विवशता का संबंध होता है, इन्हें रोजगार चाहिए होता है और मालिकों को कम पैसे में अधिक कार्य करने वाले मजदूर। उदारवादी अर्थव्यवस्था की परिवर्तनशील रणनीतियों से हतप्रभ ट्रेड यूनियनें इनमें श्रमिक आंदोलन के संस्कार डालने में विफल रही हैं और वर्तमान मालिक के प्रति इनके असंतोष की अभिव्यक्ति चंद ज्यादा रुपए ऑफर करने वाले दूसरे मालिक की शरण में जाने की अवसरवादिता तक ही सीमित हो गई है।
कोरोना के बाद या उसके साथ चलने वाली आर्थिक दुनिया में कम से कम अभी तो इनकी कोई खास भूमिका नहीं दिखती। सरकारें इनसे कोई वास्ता नहीं रखना चाहतीं और यह मानती हैं कि इनकी समस्याओं का निपटारा करने में इनके मालिक सक्षम हैं। ट्रेड यूनियनें इन तक पहुंच पाने में नाकाम रही हैं। और यह स्वयं कॉरपोरेट संस्कृति की निर्मम स्वार्थपरता के इतने आदी हो गए हैं कि इनमें सामूहिक संघर्ष की प्रवृत्ति ही समाप्त हो गई है। यह डिमांड और सप्लाई के मंत्र को आधार मानने वाली आर्थिक व्यवस्था के नियमों पर इतना भरोसा करने लगे हैं कि इसमें निहित अमानवीयता और क्रूरता अब उन्हें खटकती नहीं।
कॉरपोरेट जगत हमेशा यह दम्भोक्ति करता रहा है कि हर संकट को वह अवसर में बदलने की कला में पारंगत है और कोरोना का उपयोग भी वह अपने फायदे के लिए अवश्य करेगा। कोरोना से बचाव के लिए आवश्यक सोशल डिस्टेन्सिंग को आधार बनाकर श्रमिकों की संख्या कम की जा सकती है। जब कंपनियों को सीमित कर्मचारियों से शतप्रतिशत आउट पुट प्राप्त करना होगा तो वे योग्यतम कर्मचारियों का चयन करेंगी। सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट के सिद्धांत के साथ उन लोगों विनाश अपरिहार्य रूप से जुड़ा होता है जो श्रेष्ठता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। कंपनियों द्वारा स्वास्थ्यगत कारणों से श्रमिकों को अयोग्य ठहराया जा सकता है।
शासन कोविड-19 से मजदूरों के बचाव का उत्तरदायित्व कॉरपोरेट मालिकों पर डालेगा। पूर्व में भी हमने कार्य स्थल पर औद्योगिक सुरक्षा नियमों की आपराधिक अनदेखी के उदाहरण देखे हैं और अब भी इस बात की पूरी आशंका बनी रहेगी कि कोविड-19 से बचाव की सावधानियों को दरकिनार करते हुए श्रमिकों और कर्मचारियों से अमानवीय परिस्थिति में कार्य लिया जाता रहेगा। यदि वे कोविड-19 से संक्रमित हो जाएंगे तो इसे उनकी लापरवाही का नतीजा बता दिया जाएगा।
वर्क फ्रॉम होम जैसे जैसे लोकप्रिय होता जाएगा कर्मचारियों के एक स्थान पर एकत्रीकरण के अवसर घटते जाएंगे। इससे ट्रेड यूनियनों की संगठन शक्ति प्रभावित होगी और उन्हें विरोध प्रदर्शन के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का सहारा लेना होगा। ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में ट्रेड यूनियन आंदोलन से जुड़े बुद्धिजीवी अब साइबर पिकेटिंग की कल्पना करने लगे हैं जब लोग किसी सामान या सेवा के लिए भारी संख्या में प्री आर्डर करेंगे और इसके बाद आखिर में भुगतान करने से इनकार कर देंगे। अथवा कंपनी की वेबसाइट को भारी संख्या में आर्डर और पूछताछ द्वारा अवरुद्ध कर देंगे। बहरहाल यह भी सच है कि वर्क फ्रॉम होम कर्मचारियों को परिवार के साथ समय व्यतीत करने का अवसर प्रदान करेगा। इससे उन्हें मानसिक परितुष्टि भी मिलेगी और गृह कार्यों के लिए समय भी उपलब्ध होगा। इस कारण वह कम वेतन में भी कार्य करने को सहमत हो सकते हैं।
कोरोना काल में अनेक सेवाओं का महत्व बढ़ा है और इनमें कार्यरत श्रमिक वर्ग और कर्मचारियों के प्रशस्ति गान में सरकारें और आम जन कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं। अस्पतालों में कार्य करने वाले सफाई कर्मचारी और सपोर्ट स्टॉफ, लैब टेस्टिंग से संबंधित कर्मचारी, स्वच्छता उत्पादों के निर्माण में जुड़े श्रमिक, जल-विद्युत-सफाई आदि आवश्यक सेवाओं के सुचारू संचालन में लगे कर्मचारी, निर्धनों तक अन्न पहुंचाने में लगी श्रम शक्ति, अन्न उत्पादन में जुटे किसान, धन हस्तांतरण योजनाओं का लाभ लाखों जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाते बैंक एम्प्लॉयी, वेयर हाउसिंग से जुड़े तथा ऑन लाइन खरीदे गए सामानों की होम डिलीवरी करने वाले कर्मचारी, फ़ूड रिटेलर्स, इंटरनेट और ब्रॉड बैंड सेवा प्रदाताओं के कर्मचारी – यह सब इस कोरोना काल में अपने प्राणों की बाजी लगाकर कार्य कर रहे हैं। किन्तु क्या यह अपने बढ़े हुए महत्व के साथ कोई जायज मांग रखने की स्थिति में हैं? दुर्भाग्यवश इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है।
यदि यह श्रमिक और कर्मचारी अपने स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त साधनों की मांग करें या कोविड-19 के कारण अपनी मृत्यु के बाद परिजनों के लिए विशेष आर्थिक सुरक्षा की अपेक्षा करें अथवा बढ़े हुए वेतन भत्तों की डिमांड करें तो अधिकांश बार सरकार उनकी आवाज़ को अनसुना कर देगी। उन्हें राष्ट्र के प्रति उनके कर्त्तव्य का स्मरण दिलाया जाएगा और यह बताया जाएगा कि उनका बलिदान देश के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित होगा। आम जनता का एक बड़ा वर्ग भी इन्हें स्वार्थी एवं अवसरवादी ठहरा सकता है। इन श्रमिकों के विषय में यह धारणा भी बन सकती है कि राष्ट्र हित इनके लिए कोई मायने नहीं रखता। यह भी संभव है कि आवश्यक सेवा संरक्षण अधिनियम का प्रयोग कर इनके विरोध प्रदर्शन और हड़ताल पर रोक लगा दी जाए।
कोरोना के प्रसार को रोकने के लिए किए गए लॉक डाउन के बाद महानगरों और अन्य प्रमुख शहरों में असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले प्रवासी मजदूरों के सम्मुख आजीविका का प्रश्न उपस्थित हुआ है। यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि कोरोना काल के इस भयानक अनुभव के बाद यह प्रवासी श्रमिक शहरों को छोड़कर अपने गृह ग्राम की ओर लौटेंगे। इस रिवर्स माइग्रेशन के कारण झारखंड जैसे लेबर सरप्लस स्टेट्स में ग्रामीण क्षेत्रों में श्रमिकों की अधिकता के कारण इन्हें काम मिलने में दिक्कत होगी और इनके ग्रामीण मालिक इस स्थिति का फायदा उठाकर इनसे कम मजदूरी पर काम लेंगे। इन श्रमिकों ने शहरों में जिन कार्यों में कुशलता अर्जित की है वे कार्य ग्रामों में उपलब्ध नहीं होंगे और इनकी स्थिति एक अकुशल श्रमिक की भांति हो जाएगी।
प्रधानमंत्री ने पंचायती राज दिवस पर सरपंचों से बात करते हुए कहा- “ कोरोना संकट ने हमें आत्मनिर्भर बनने का संदेश दिया है। —- गांव अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भर बने, जिला अपने स्तर पर, राज्य अपने स्तर पर, और इसी तरह पूरा देश कैसे आत्मनिर्भर बने, अब यह बहुत आवश्यक है।“ किन्तु जब सरकार खुद ही वालमार्ट, अमेज़न और फ्लिपकार्ट जैसी विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के स्वागत में पलक पाँवड़े बिछाने को तत्पर है तो ग्रामों की आत्मनिर्भरता की कल्पना फिर कैसे की जा सकती है?
ई कॉमर्स, ऑन लाइन मार्केटिंग और कैशलेस डिजिटल इकोनॉमी को कोरोना बाद की अर्थव्यवस्था की आधारभूत आवश्यकता बताया जा रहा है। इनके कृषि विरोधी और लघु व्यापार विनाशक स्वरूप से हम सभी अवगत हैं। कोरोना से उत्पन्न परिस्थितियों ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित कर इससे जुड़े श्रमिकों को आत्मनिर्भर बनाने का अवसर हमें दिया है। किंतु क्या हम गांधी जी के आर्थिक दर्शन का थोड़ा बहुत आश्रय लेने का साहस भी जुटा पाएंगे? आशंका तो इस बात की अधिक है कि गांव और मजदूरों का जिक्र केवल भाषणों में होता रहेगा और नवउदारवाद की राह पर हमारी अंधी दौड़ खुद के विनष्ट होने तक जारी रहेगी।
(डॉ. राजू पाण्डेय लेखक और चिंतक हैं आप आजकल छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में रहते हैं।)