Friday, March 29, 2024

भारत में प्रबोधन के महानायक पेरियार ललई सिंह

           उत्तर भारत के हिंदी क्षेत्र को लेकर यह धारणा बनी हुई है कि जहां हिंदी पट्टी ने स्वाधीनता आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई, वहीं सांस्कृतिक पुनर्जागरण में इसका अपेक्षित योगदान लगभग नगण्य रहा। कबीर और रविदास ने भक्ति-आंदोलन के दौरान श्रमशील समाज के जीवनानुभवों, संघर्षों, सहज ज्ञान व तर्क से जिस सामाजिक चेतना की आधारशिला रखी थी, उसे तुलसी की भक्तिमार्गी वर्णाश्रमी धारा ने अधिग्रहीत कर काफी कुछ निष्प्रभावी बना दिया था। उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में जोतिबा फुले, सावित्री फुले, पेरियार ई.वी. रामास्वामी और बाबा साहब डॉ. अंबेडकर के वैचारिक व सामाजिक हस्तक्षेप द्वारा गैर हिंदी क्षेत्रों के हाशिए के समाज की इस वैचारिकी को जो पुनर्जीवन मिला, उससे हिंदी भाषी क्षेत्र भी अछूते नहीं रहे। उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) में स्वामी अछूतानंद (1879-1933) और रामचरन (1888-1939) के ‘आदि हिंदू’ आंदोलन के माध्यम से हाशिए के मेहनतकश और निम्न कही जानी वाली जातियों में नई चेतना का संचार किया।

सामाजिक न्याय और समता के आदर्शों से प्रेरित इनकी वैचारिकी ब्राह्मणवादी शोषण की व्यवस्था के विरुद्ध सशक्त उद्घोष थी। इसी दौर में चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, संतराम बी.ए., रामस्वरूप वर्मा आदि के साथ पेरियार ललई सिंह एक प्रमुख नाम थे। इन सभी के मानवीय और समतामूलक राष्ट्र-निर्माण को हिंदी समाज की वर्चस्वशाली सामाजिक और सांस्कृतिक चिंतनधारा से सायास अनुपस्थित और अचर्चित रखा गया। ये सभी मूलत: शूद्र समुदाय से सम्बंधित और पहली शिक्षित पीढ़ी से थे। ललई सिंह (1911-1993) मुख्यत: पेरियार ई.वी. रामास्वामी की वैचारिकी से प्रेरित थे। वे मूलत: स्वाभिमानी और विद्रोही स्वभाव के थे, उनकी चेतना पेरियार के ‘आत्म-सम्मान’ (Self Respect) आंदोलन से निकली थी। वे ग्वालियर नेशनल आर्मी में हाई-कमांडर थे। सेवा में रहते हुए भी, उन्होंने ‘सिपाही की तबाही’ शीर्षक से प्रतिरोध को दर्ज कराती एकांकी लिखा, सिपाहियों को संगठित कर आंदोलन किया और जेल गए। जेल में भी उन्होंने ‘कैदी महासभा’ का गठन किया।

उन्होंने सन् 1946 में देश की आज़ादी के साथ देशी रियासतों की गुलामी से भी आज़ादी की मांग तेज की। उनका पूर्ण स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारी नारा था– ‘ब्रिटिश इम्पीरियलज्म डाउन डाउन! सिंधिया फ्लैग डाउन डाउन!!’ पेरियार ललई सिंह को अपने जमीनी अनुभवों के चलते इस बात का अहसास था कि देश की राजनीतिक आज़ादी तब तक पूर्ण नहीं होगी जब तक उसे सामाजिक और आर्थिक गुलामी से मुक्ति नहीं मिलेगी। पेरियार के नेतृत्व में दक्षिण भारत का ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ इस दिशा में उनकी मूल प्रेरणा बना। पेरियार के जन्मदिन (17 सितम्बर) के अवसर पर 1960 में उन्होंने ‘सस्ता प्रेस’ की शुरुआत की, जहां से उन्होंने छोटी-छोटी पुस्तिकाओं के माध्यम से दलित व पिछड़े समाजों के मेहनतकश वर्गों में ईश्वर, धर्म और हिंदू मिथकों, देवी-देवताओं की जकड़बंदी के विरुद्ध नवजागरण अभियान छेड़ा।

वे पेरियार को अपना गुरु मानते थे। इस जन-जागरण अभियान के अंतर्गत पेरियार ललई सिंह ने ‘वीर संत माया बलिदान’, ‘शम्बूकवध’, ‘एकलव्य’, ‘नाग यज्ञ’ और ‘अंगुलिमाल’ सरीखे नाटक लिखकर धर्म की वर्चस्वशाली परंपरा का प्रतिविमर्श रचकर बहुजन समाज को चेतना सम्पन्न बनाने की पहलकदमी की। इन नाटकों के लिखे जाने के मंतव्य का खुलासा करते हुए उन्होंने ‘शम्बूकवध’ नाटक की भूमिका में लिखा, “नाटक के छापे जाने की पहली मंशा है अधिकार वंचित शूद्र व महाशूद्र अपने अधिकार समझें। मांगें! छीनें! इसी स्थिति के कारण मैं बार-बार कहता हूं कि– ‘अधिकार माँगे नहीं, छीने जाते हैं।’ और ‘सामाजिक अपमान गरीबी से अधिक खटकता है।’ दूसरी मंशा, इस देश के सवर्ण हिंदू शूद्रों व महाशूद्रों को उनका मानवीय अधिकार सौंप दें। तीसरी मंशा, सरकार के लिए कड़ी चेतावनी है कि उसने यदि उन्हें प्रत्येक प्रकार के मानवीय अधिकार न दिलाए तो इस देश में गृह युद्ध का संकट सदैव बना रहेगा।”

पेरियार ललई सिंह की इस चेतावनी में बाबा साहब डॉ. अंबेडकर द्वारा संविधान सभा में 25 नवम्बर, 1949 को दिए गए उस भाषण की अनुगूंज थी जिसमें उन्होंने कहा था, “इस संविधान द्वारा आज हम एक व्यक्ति एक मत के सिद्धांत को स्वीकार कर राजनीतिक जनतंत्र में प्रवेश कर रहे हैं, लेकिन यदि यह राजनीतिक जनतंत्र सामाजिक जनतंत्र व आर्थिक जनतंत्र का रूप न ले सका तो राजनीतिक जनतंत्र भी खतरे में पड़ जाएगा।” इसी क्रम में पेरियार ललई सिंह ने ‘आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश’, ‘आदिवासियों की पहचान’, ‘सच्ची रामायण’, ‘सच्ची रामायण की चाभी’ सरीखी मौलिक और वैचारिक पुस्तकों की भी रचना की थी।

इन रचनाओं द्वारा वे उस जन-बुद्धिजीवी की भूमिका का निर्वहन कर रहे थे, जो तर्क, ज्ञान और वैज्ञानिक चेतना के माध्यम से अंधविश्वास, हिंदू मिथ्या धार्मिक चेतना और ब्राह्मणवादी कर्मकांड के विरुद्ध तर्कशील आधुनिक सोच को आंदोलन का रूप दे रहे थे। कहना न होगा कि पेरियार ललई सिंह भाषा और अभिव्यक्ति के स्तर पर किताबी बौद्धिक का मुहावरा न अपनाकर उस जमीनी श्रमशील समाज की भाषा में संवाद कर रहे थे, जो सर्वाधिक प्रभावी व कारगर था। वे सैद्धांतिक रूप से भी हिंदी के जनभाषी स्वरूप के ही पक्षधर थे, उसके संस्कृतनिष्ठ तत्समीकृत रूप के नहीं। ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ के नारे को नकारते हुए उन्होंने शासक वर्ग के उस सवर्ण पाखंड का खुलासा किया था, जिसमें वे अपनी संतानों को अंग्रेजी शिक्षा देते थे और मेहनतकश वर्गों को इससे वंचित रखना चाहते थे। देश के अन्य भूभाग के निम्न वर्गों (सबाल्टर्न) के जन-बुद्धिजीवियों की तरह वे सामाजिक न्याय व समता के आदर्शों से प्रेरित होकर वैदिक ब्राह्मणवाद की श्रेष्ठतावादी विभेदकारी वर्ण और जाति-संस्कृति के विरुद्ध जमीनी चेतना का प्रचार-प्रसार कर रहे थे।

वे वर्चस्ववादी सत्ता-संरचना को चुनौती देते हुए, आमूलचूल उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध बौद्धिक और आंदोलनकारी पहल कर रहे थे लेकिन समाज की मुख्यधारा में उनकी स्वीकृति इसलिए नहीं बन सकी क्योंकि उनके सुधारवादी मुहावरे में प्रभुत्ववादी संस्कृति के प्रति समन्वय का भाव न होकर स्पष्ट रूप से तार्किक, नकार व अधिकार की हुंकार थी। स्वाधीनता पूर्व और बाद के वर्षों में प्रभुत्वकारी राजनीतिक व सामाजिक दृष्टिकोण के समन्वयकारी रूप और जमीनी सामाजिक यथार्थ में रची बसी तार्किक सोच के बीच इस बिलगाव के चलते देशज आधुनिकता का विकास अवरुद्ध हुआ। यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि राजनीतिक स्वाधीनता और सामाजिक स्वाधीनता के सह-मेल के न हो पाने के चलते भारतीय राष्ट्र-राज्य को समतावादी आधुनिक जनतंत्र बनाने की परियोजना आधी-अधूरी रही। वर्णाश्रमी जाति-व्यवस्था की सोपानीकृत व्यवस्था में उच्च-पदस्थ लोगों द्वारा अपने विशेषाधिकारों से मुक्ति की उम्मीद वांछ्नीय तो थी, लेकिन व्यावहारिक नहीं!

ऐसे में पेरियार के आमूलचूल परिवर्तनकारी सामाजिक आंदोलन से ललई सिंह सरीखे सामाजिक कार्यकर्ताओं का प्रेरित होना स्वाभाविक था। उत्तर भारत की धर्मभीरु जनता को धर्म, अंधविश्वास,  पाखंड और परंपरा की जकड़न से मुक्ति के लिए जहां उन्होंने ‘आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश’ व ‘आदिनिवासियों की पहचान’ सरीखी पुस्तकें लिखकर आर्यों की आमद, प्रभुत्व व विस्तार का लोकग्राही वृतांत लिखा तो वहीं यहां के मूल-निवासियों की अस्मिता का अहसास कराया। यह सब उच्च सवर्ण चिंतन का प्रति-विमर्श होने के चलते ब्राह्मणवादी सवर्ण बौद्धिकों को तो अस्वीकार्य था ही, मुख्यधारा के ‘परिवर्तनकामी बौद्धिक’ भी धर्म और मिथक की इस जनोन्मुखी व्याख्या को लेकर सहज नहीं थे। यह अकारण नहीं है कि पेरियार ललई सिंह की वैचारिक व साहित्यिक पुस्तिकाओं की संस्तुति चंद्रिकाप्रसाद ‘जिज्ञासु’ व संतराम बी.ए. व छेदीलाल साथी, रामस्वरूप वर्मा सरीखे सहधर्मी सामाजिक आंदोलनकारियों ने तो की, लेकिन उच्च सवर्ण पृष्ठभूमि के बौद्धिकों ने नहीं। यह लक्षित किया जाना चाहिए कि प्रगतिशील मार्क्सवादी सांस्कृतिक आंदोलन में भी इन सबाल्टर्न बौद्धिकों का कोई उल्लेख नहीं हैl कारण यह कि सोवियत क्रांति के प्रभाव व प्रेरणा के चलते मार्क्सवादी आंदोलन समता, समानता के समाजवादी मूल्यों का तो पक्षधर होकर वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए प्रतिश्रुत था, लेकिन वर्णगत और जातिगत विभाजन के विरुद्ध प्रभावी संघर्ष उसके एजेंडे में शामिल नहीं था।

यही कारण था कि चंद्रिकाप्रसाद ‘जिज्ञासु’, पेरियार ललई सिंह, रामस्वरूप वर्मा आदि सरीखे सबाल्टर्न बौद्धिकों की वामपंथी आंदोलन से निकटता नहीं स्थापित हो पाई। हिंदी में साहित्यिक और वैचारिक लेखन के बावजूद ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ के पवित्र आंगन में तो इन निम्नवर्गीय (सबाल्टर्न) जन-बौद्धिकों का प्रवेश वर्ज्य था ही, स्वाधीन भारत में साहित्य अकादमी सरीखी स्वायत्त संस्थाओं द्वारा प्रकाशित ‘ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिट्रेचर’ में भी इन्हें दर्ज़ नहीं किया गयाl देश के विश्वविद्यालयों के शोध-प्रबंधों के दायरे से तो इन्हें पूर्णत: वंचित ही रहना था। पेरियार ललई सिंह के ही शब्दों में, “आज जितनी भी पुस्तकें स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं, सब आर्यों द्वारा आर्यों के वर्चस्व की मानसिकता से लिखी गई हैं… हमारे मूल-निवासी आदिनिवासियों का इतिहास किसी भी संस्था में नहीं दिया जाता है। न ही मूल-निवासियों की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से लिखी गई कोई पुस्तक कहीं भी पढ़ाई जाती है… हमारी सारी महान विभूतियों को निगल लिया ब्राह्मण-पुरोहितों की वर्चस्ववादी संस्कृति ने… इनकी पुस्तकों को खोज-खोज कर जलाया, नष्ट किया। इसे आप आदिनिवासियों और बौद्ध साहित्य, दर्शन को नष्ट किए जाने वाले आर्यों के अभियान से समझ सकते हैं।”

इस समूची प्रक्रिया और षड्यंत्र का पर्दाफाश पेरियार ललई सिंह ने अपनी पुस्तिकाओं ‘आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश’ और ‘आदिनिवासियों की पहचान’ में किया है। इन पुस्तकों के साथ-साथ उनके अन्य लेखन का प्रकाशन साहित्य व समाज-विज्ञान की बड़ी रिक्ति की बहुप्रतीक्षित भरपाई है। पेरियार ललई सिंह भारतीय समाज में वर्ण और जाति आधारित शोषण का निदान उत्पीड़क जातियों के विरुद्ध उत्पीड़ित जातियों की गोलबंदी तक सीमित न करके वर्ण-जाति-उन्मूलन के लक्ष्य में तलाशते थे। वे वर्ण जातिभेद को उच्च जातियों तक सीमित न करके निचले स्तर की जातियों में भी इसके दुष्प्रभावों की निशानदेही करते थे। उनका कहना था, “ब्राह्मणवादी ऊंच-नीच की भावना अछूतों में भी है– चमार, भंगी को नीच और अपने को ऊंच समझते हैं। अहीर चमार से अपने आपको ऊंचा समझते हैं। अत: अछूतों को चाहिए कि वे किसी को भी नीच-ऊंच न समझें।”

उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि स्कूलों, कॉलेजों की पाठ्य-पुस्तकों में जाति-पांति के विरुद्ध पाठ निर्धारित किए जाएं और भारत सरकार व राज्य सरकारें जाति-पांति के विरुद्ध छोटी-छोटी पुस्तिकाएं विभिन्न भाषाओं में लिखवा और छपवा कर बहुत बड़ी संख्या में मुफ्त बांटे। उनका सुझाव था कि ‘जाति तोड़कर विवाह करने वाले जोड़ों और उनकी संतान को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जाए। ऐसे विवाहों में एक वर्ग (अर्थात पुरुष या स्त्री) अछूत जरूर हो।’ उनका यह भी सुझाव था कि ‘जाति नामधारी शैक्षणिक संस्थाओं को न तो सरकारी अनुदान दिया जाए और न इनको शिक्षा विभाग स्वीकृति ही दे।’ और यह भी कि ‘अदालती कागजों और स्कूलों तथा कॉलेजों के रजिस्टरों से जाति का खाना निकाल दिया जाए और किसी से उसकी जाति पूछना, उसकी आमदनी पूछने की तरह खराब समझी जाए।’

यह जानना दिलचस्प और जरूरी है कि जिन पेरियार ई.वी. रामास्वामी के भौतिकतावादी तर्कशील चिंतन ने दक्षिण भारत की राजनीति व वैचारिकी को आमूलचूल परिवर्तनकारी दिशा प्रदान की, जिस पर आज भी दक्षिण भारत की राजनीति और समाज टिका हुआ है, चल रहा है, उसे ही जब ललई सिंह ने उत्तर भारत में प्रचारित-प्रसारित करने का संकल्प लिया तब उत्तर प्रदेश सरकार ने पूरी तरह अवरोध पैदा किए। ललई सिंह ने पेरियार द्वारा लिखित बहुचर्चित पुस्तक ‘दि रामायना: ए ट्रू रीडिंग’ का रामअधार कृत हिंदी अनुवाद ‘सच्ची रामायण’ का प्रकाशन वर्ष 1968 में झींझक, कानपुर के अपने ‘अशोक पुस्तकालय’ से प्रकाशित  और अपने ‘सस्ता प्रेस’ से मुद्रित किया। इसके पहले ही संस्करण की एक हजार प्रतियां छापी गईं l रामकथा के वर्णाश्रमी वर्चस्व के मूल्यों को चुनौती देने वाली इस पुस्तक की लोकप्रियता से सशंकित होकर उत्तर प्रदेश सरकार ने इस पर तत्काल प्रतिबंध लगा दिया। इस जब्ती को हाईकोर्ट में पेरियार ललई सिंह द्वारा चुनौती दिए जाने पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसे निरस्त कर दिया। उत्तर प्रदेश सरकार पर जुर्माना ठोक दिया। इसके खर्च आदि की भरपाई का आदेश भी दिया।

इसके विरुद्ध उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की, वहां भी प्रदेश सरकार की हार हुई और अंतत: 16 सितम्बर, 1976 को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पुस्तक पर प्रतिबंध हटा और कोर्ट ने जब्त प्रतियाँ पेरियार ललई सिंह को वापस करने का आदेश दिया। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश सरकार की वक्र दृष्टि पेरियार ललई सिंह के साहित्य और चिंतन पर बरकरार रही। इसी कारण उनकी अन्य लगभग सभी किताबों पर मुकदमे सरकार करती रही। एक किताब तो प्रतिबंधित ही करवा दी। इन बाधाओं के होते हुए भी सन् 1990 तक लगभग हर वर्ष इस पुस्तक के नए संस्करण प्रकाशित होते रहे और आगे लाखों प्रतियाँ छापी गयीं l साधारण जनता में मनुष्यत्व और समतामूलक चेतना निर्माण हेतु बाँटी गईंl बहुजन समाज के बीच इसे उपलब्ध करवाने के लिए मेलों, टेलों और विभिन्न सामाजिक अवसरों पर पेरियार ललई सिंह स्वयं इस पुस्तक को साईकिल पर रखकर बेचा करते थे। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि ‘सच्ची रामायण’ की बुक-स्टाल पर खुली बिक्री तभी सुनिश्चित हो सकी जब कांशीराम की पहलकदमी पर सन् 1995 में बहुजन समाज पार्टी की पहली बार सरकार बनी। पेरियार ललई सिंह के अथक प्रयासों और संघर्षों के परिणामस्वरूप हिंदी में ‘सच्ची रामायण’ की पहली बार उपलबद्धता तो सुनिश्चित हुई, लेकिन बसपा सरकार के प्रयासों के बावजूद पेरियार ई.वी. रामास्वामी की प्रतिमा लखनऊ के अंबेडकर स्मारक में या उत्तर प्रदेश में कहीं भी हिंदुत्ववादियों के मौन और उग्र-विरोध के चलते आज तक स्थापित नहीं हो सकी।

‘सच्ची रामायण’ के अतिरिक्त पेरियार ललई सिंह की जिन अन्य पुस्तकों को सरकारी कोपभाजन का समय-समय पर शिकार होना पड़ा, उनमें  ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित ‘सिपाही की तबाही’ के साथ-साथ आजादी के बाद प्रतिबंधित ‘ईश्वर, आत्मा एवं वेदों आदि में विश्वास अधर्म है’, ‘हिंदू संस्कृति में वर्ण-व्यवस्था और जातिभेद( पूर्ण: प्रतिबंधित)’, ‘जाति भेद का उच्छेद(डॉ अम्बेडकर)’, ‘आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश’, ‘सच्ची रामायण की चाभी’ आदि शामिल हैं। ये सभी पुस्तकें बहुसंख्यक समुदाय के मुखर वर्चस्वशाली वर्गों की भावनाओं के आहत होने के तर्क के आधार पर प्रतिबंधित की गई थीं। दरअसल आहत भावनाओं का यह तर्क भारतीय राष्ट्र-राज्य के वर्णवादी-ब्राह्मणवाद के प्रति सहृदयता का परिणाम अधिक था, आहत भावनाओं का काम, जो आजतक सतत जारी है। इन प्रतिबंधों से यह तथ्य भी सुस्पष्ट है कि भारतीय संविधान की वैज्ञानिक व तर्कवादी अवधारणा के बावजूद तर्क, ज्ञान व वैज्ञानिक दृष्टि के प्रचार-प्रसार में पेरियार ललई सिंह सरीखे जमीनी बौद्धिकों को कितना संघर्ष करना पड़ा था। सच तो यह है कि ललई सिंह हिंदी क्षेत्र में आजीवन पेरियार के विचारों के अकेले सेनानी रहे और सहज सरल भाषा में लिखित उनकी पुस्तकें तर्कशील वैज्ञानिक विचारों की वाहक रहीं लेकिन आमूलचूल परिवर्तनकामी सशक्त सामाजिक आंदोलन के अभाव में ये प्रयास दूरगामी लक्ष्यों को न प्राप्त कर सके। उनके जीवन और विचारों में कोई द्वैत नहीं था।

वे विचार और आचरण से पूरी तरह नास्तिक और स्पष्ट वक्ता थे। वे 14 अक्टूबर, 1956 को बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर के बौद्ध धम्म दीक्षा ग्रहण, नागपुर में जाकर बौद्ध धर्म ग्रहण करना चाहते थे किंतु क्षय रोग से उन्हें खून की उल्टी हो रही थी। इस कारण वे नहीं जा सके। 21 जुलाई, 1967 को उन्हीं महाथेरा ऊ चंद्रमणि स्थविर से, जिनसे बाबा साहब ने बौद्ध धम्म ग्रहण किया था, उन्होंने कुशीनगर में बौद्ध धर्म ग्रहण किया। वे बुद्ध के भौतिकतावादी सोच और सिद्धांत को मानते थे। इस दीक्षा ग्रहण के बाद उन्होंने अपने नाम से कुँवर, चौधरी, यादव हटा दिया और सिर्फ ललई सिंह लिखने लगे। उन्होंने यह स्पष्ट घोषणा की कि एक बौद्धिष्ट की वर्ण और जाति नहीं होती वो मनुष्य होता है। यदि वह वर्ण और जाति को मानता है तो वो वर्णाश्रमी हिंदू है। 12 अक्टूबर 1968 ई. को पेरियार को चंद्रिकाप्रसाद ‘जिज्ञासु’, ललई सिंह और छेदीलाल साथी ने ‘अल्प संख्यक एवं पिछड़े वर्ग के सम्मेलन’ लखनऊ में भाषण देने के लिए बुलाया था। इसके बाद ललई सिंह ने 14 अक्टूबर, 1968 को नानाराव पार्क, कानपुर में बौद्ध धम्म दीक्षा ग्रहण का आयोजन किया था। जिसमें हिंदू धर्म के वर्णवाद, श्रेष्ठता और नीचता की मानसिकता पर करारा प्रहार करते हुए, उन्होंने धज्जियाँ उड़ाईं।

सामने खड़ी दस हजार जनता से बौद्ध धर्म ग्रहण करने की सार्वजनिक गुहार के साथ उन्होंने  सबको बौद्ध धर्म ग्रहण करवाया। इस अवसर पर भिक्षु निर्गुणानंद ने कहा ललई सिंह तो हमारे ‘उत्तर भारत के पेरियार’ हैं। तब से इनके समर्थकों और सह -आंदोलनकारियों ने ‘पेरियार ललई सिंह’ संबोधन प्रारंभ कर दिया। उसके बाद ये अपना नाम ‘पेरियार ललई सिंह’ लिखने लगे। यह स्वीकार करना चाहिए कि हिंदी क्षेत्र में हिंदू मानस के मौजूदा वर्चस्व के पीछे उच्चवर्णी सेकुलर हिंदू बौद्धिकों का वह अवचेतन मन रहा है जो लम्बे समय तक धर्म व वर्ण-जाति के प्रश्नों को अनुपस्थित मानकर सर्वधर्म समभाव की कथित गंगा-जमुनी संस्कृति के भ्रमजाल का भेदन न कर सका। कोई आश्चर्य नहीं कि उस दौर में वर्ण-जातिभेद के मुद्दे को लेकर उच्च सवर्णों का यह अंधत्व वर्तमान समय में अल्पसंख्यक व दलित समुदायों के प्रति दुराव व भेदभाव का आग्रही नहीं तो उसके विरुद्ध उदासीन अवश्य है। अपने समय में पेरियार और अंबेडकर के चिंतन का अनुगमन करके पेरियार ललई सिंह ने अपनी आर्मी की और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पेंशन, इकहत्तर बीघा जमीन, बाग पुरखों की लघु-जमींदारी की विरासत आदि को बेचकर अपने सीमित सामर्थ्य में बहुजन वैचारिकी द्वारा इसका प्रतिविमर्श तो रचा, लेकिन वे इसे जनआंदोलन का स्वरूप न दे पाए। नब्बे के दशक में जब सामाजिक न्याय की शक्तियों का राजनीतिक उभार हुआ तब उनका दायित्व था कि सामाजिक न्याय की राजनीति का रिश्ता चंद्रिकाप्रसाद ‘जिज्ञासु’, पेरियार ललई सिंह और रामस्वरूप वर्मा सरीखे सबाल्टर्न बौद्धिकों की वैचारिकी के साथ जुड़ता, लेकिन आमूलचूल सामाजिक परिवर्तन की इच्छाशक्ति के अभाव और तात्कालिक राजनीतिक लाभ तक सीमित रहने के चलते यह सम्भव न हो सका| हिंदुत्ववादी उभार के इस समय में बहुजन समाज को इस वैचारिक रिक्ति की मंहगी कीमत चुकानी पड़ रही है। 

कहना न होगा कि धार्मिक कट्टरता, अंधविश्वास, नफरत के इस समय में तर्क, वैज्ञानिक सोच व मानवीय सद्भाव की बहुजन वैचारिकी के चिंतकों, विचारकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के अवदान को संजोने और पुनर्संदर्भित करने की जरूरत है। पेरियार ललई सिंह के चिंतन और साहित्य का ग्रंथावली रूप में प्रकाशन इस दिशा में एक स्वागत योग्य कदम है। दिल्ली विश्वविद्यालय के युवा अध्येता डॉ. धर्मवीर यादव गगन ने जिस लगन और समर्पण भाव से इसे सम्भव किया है, वह उनकी खोजी और अध्ययनशील वृत्ति के बिना संभव नहीं था। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक पेरियार ललई सिंह की बिखरी चिंतन सामग्री को जुटाकर संदर्भ प्रदान करना व ग्रंथावली का रूप देना एक दुष्कर व श्रमसाध्य कार्य था। इस दूरगामी महत्व के ऐतिहासिक कार्य के लिए उन्हें बधाई और साधुवाद! उम्मीद की जानी चाहिए कि बहुजन समाज के अन्य जन-बौद्धिकों के अवदान को संरक्षित व सुरक्षित करने के प्रयासों को भी इससे प्रेरणा मिलेगी।

(लेखक वीरेंद्र यादव साहित्यकार हैं और आजकल लखनऊ में रहते हैं।)

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