Saturday, April 20, 2024

समलैंगिक पार्टनर्स के बीच विवाह को मिले कानूनी मान्यता

हमारी परंपरा समलैंगिक विवाह के विरुद्ध कभी नहीं रही। जिस समय सबरीमला विवाद चल रहा था, सभी को पहली बार मालूम हुआ कि विवादित मंदिर अयप्पा नामक एक देवता का था। कौन थे दक्षिण भारत में पूजे जाने वाले अयप्पा देवता? मिथक के अनुसार अयप्पा का जन्म भगवान विष्णु और शिव के समलैंगिक संबंध के माध्यम से हुआ था।

पर आज, 21वीं सदी में भी समलैंगिक संबंधों में विवाह को मान्यता नहीं दी जा रही है। भारत सरकार के अपने तर्क हैं कि विवाह एक संस्था है, एक धार्मिक अनुष्ठान है जो केवल दो पृथक लिंग के व्यक्तियों के बीच संभव है।

वह समलैंगिक पार्टनर्स के बीच विवाह के बारे में यह चिंता जाहिर करती है कि इससे निजी कानूनों के बीच नाज़ुक संतुलन गड़बड़ा जाएगा; साथ ही सामाजिक परंपराओं को भी बड़ा धक्का लगेगा।

सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा मामला

अब समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता और संरक्षण का मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया है। कई वादियों ने एससी में दायर अपनी याचिकाओं में कहा है कि जब तक समलैंगिक संबंधों में विवाह को कानूनी हक के बतौर मान्यता नहीं मिलती, उन्हें अपने संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया जाता रहेगा, जो अनुचित है।

उनका कहना है कि संविधान और उसकी प्रस्तावना में अंकित जीवन के अधिकार और सम्मान के अधिकार सहित अनुच्छेद 14,19 और 21 के तहत उनके कानूनी हुकूक संरक्षित होने चाहिये, पर ऐसा नहीं हो रहा।

क्या कह रहे हैं याचिकाकर्ता

दरअसल काफी लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद ही समलैंगिक संबंधों को 2018 में कानूनी मान्यता प्राप्त हुई थी। इसकी वजह से एक बहुत बड़ा सामाजिक समुदाय भय और तिरस्कार के जीवन से अपने को मुक्त करा सका था। उनके बीच खुशी की एक लहर दौड़ गई थी, जो सड़कों पर उनके भारी सैलाब के द्वारा अभिव्यक्त हो रही थी। पहली बार समलैंगिक कपल्स सड़कों पर आलिंगन करते, चुम्बन देते, बाहों में बांह डालकर घूमते और सार्वजनिक तौर पर अपने रिश्तों को स्वीकृति दिलाते नज़र आ रहे थे। यह एक बहुत सकारात्मक और स्वागतयोग्य कदम था।

नतीजतन कई कपल्स ने निर्भीक होकर अपने संबंध घोषित करना, साथ रहना, घूमना और बच्चों को गोद लेना तक शुरू किया। पर इतना ही काफी नहीं है, क्योंकि भारतीय कानून उनको विवाहित कपल्स के बराबर हक नहीं देता। पृथक लिंग के दो व्यक्ति यदि ‘लिव टुगेदर’ में रहते हैं, उन्हें विवाहित जोड़ी के बराबर अधिकार मिल जाते हैं, पर समलैंगिक जोड़ी को नहीं।

सम्पत्ति के अधिकार, तलाक के अधिकार, बच्चे गोद लेने के अधिकार को निजी कानूनों के तहत रखा गया है और ये कानून हर धर्म के लिए अलग हैं। स्पेशल मैरेज ऐक्ट के तहत भी कुछ ऐसे मामलों में लागू होता है जहां दानों पार्टनर एक धर्म के नहीं होते या फिर जो किसी धर्म को नहीं मानते या जिनके धर्म का पता नहीं होता। पर कभी भी इस कानून के तहत समलैंगिक जोड़ियों को नहीं रखा गया। कपल के हक तो क्या उनके द्वारा पाले जा रहे बच्चों को भी उनके हक नहीं मिलते।

एक याचिकाकर्ता ने कोर्ट को बताया, ‘‘हमारे गोद-लिए बच्चे को कानून दोनों अभिभावकों का संरक्षण देने की जगह केवल एक का संरक्षण देता है।’’ इसके मायने हैं कि सभी कागज़ातों में अभिभावक की जगह एक व्यक्ति का नाम ही लिखा जाएगा-चाहे वह ऐडाॅप्शन के कागज़ात हों या फिर स्कूल में दाखिले के अथवा वसीयत। यदि पार्टनर अलग हो जाते हैं तो बच्चा दूसरे अभिभावक से मिल नहीं सकता, उसके साथ रह नहीं सकता और न ही उसकी किसी सम्पत्ति पर दावा कर सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय में बहस

13 मार्च को समलैंगिक पार्टनर्स के बीच विवाह के मामले पर सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिकाओं पर सुनवाई हो रही थी। सरकार की ओर से साॅलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि प्रेम करने का अधिकार विवाह करने के अधिकार के बराबर नहीं है। विवाह का अधिकार केवल जैविक रूप से दो अलग-अलग लागों को दिया गया हैं।

वादियों की ओर से दलील दी गई कि केवल इस कारण कि किन्हीं व्यक्तियों का सेक्सुअल ओरिएन्टेशन अलग है, उनसे विवाह का कानूनी हक कैसे छीना जा सकता है? उनके वकील ने कहा कि अनुच्छेद 377 के तहत एससी ने हर व्यक्ति को निजता और अपने ढंग से जीने के अधिकार को कानूनी सुरक्षा प्रदान की थी, यानि उनके बीच अनुमति के आधार पर यौन संबंध अपराध की श्रेणी में नहीं आता। तो इसके तहत लोगों को अपने ‘सेक्सुअल ओरिएन्टेशन’’ को अभिव्यक्त करने का अधिकार है।

फिर विवाह में क्या दिक्कत है जबकि स्पेशल मैरेज एक्ट में भी जो प्रावधान है वह ‘‘दो व्यक्तियों’’ न कि दो अलग लिंग के व्यक्तियों की बात करता है। केवल विवाह की उम्र-पुरुषों के लिए 21 वर्ष और महिलाओं के लिए 18 वर्ष का ध्यान रखना काफी है। ऐसा कानूनी हक प्रदान करना सरकार की जिम्मेदारी है और इसपर सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप गैर जरूरी था।

पर सरकार के अड़ियल, पितृसत्तात्मक व पुरातनपंथी रवैये ने वादियों को सुप्रीम कोर्ट तक जाने के लिए मजबूर किया है। अब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि यह मामला काफी महत्व का है और संवैधानिक मामलों से ताल्लुक रखता है, इसलिए इसे पूर्ण पीठ यानि 5-सदस्यीय संवैधानिक पीठ द्वारा सुना जाना चाहिये। सुनवाई की तारीख़ 13 अप्रैल रखी गई है।

समलैंगिक विवाह के पक्ष में तर्क

लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की प्रख्यात अधिवक्ता, इंदिरा जयसिंह ने महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं और यह अपेक्षा जाहिर की है कि एससी वादियों के हक में बेहतर फैसला सुनाएगी। वह कहतीं है कि कानून यह ज़रूर बताता है कि विवाह और विवाह-विच्छेद किन परिस्थितियों में हो सकता है पर यह नहीं बताता कि ‘विवाह’ कहते किसे हैं। तो अब हम को ही विवाह को परिभाषित करना होगा या उसके अनुसार चलना होगा।

इंदिरा जयसिंह कहती हैं कि ‘‘विवाह दो बराबर के वयस्कों के बीच एक ऐच्छिक बंधन है, जिसमें दोनों में से किसी पार्टनर की स्वायत्तता और व्यक्तित्व का खण्डन नहीं होना चाहिये। विवाह में दोनों पार्टियों की यौनिकता और जेंडर के प्रश्नों से इतर वे आपसी बंधन में बंधकर एक दूसरे को भावनात्मक, आर्थिक और यौन सहयोग प्रदान करते हैं। इस संदर्भ में उनकी यौनिकता या जेंडर क्या है यह महत्वहीन प्रश्न बन जाता है।’’

आधुनिक समय में, जब यूरोप और अमेरिका के 32 देशों में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिल चुकी है और एशिया में ताईवान भी उनका अनुसरण कर रहा है, भारत को यह साबित करना चाहिये कि वह विवाह को पुरातनपंथी, पितृसत्तावादी व रूढ़िवादी विचारों के आधार पर परिभाषित नहीं करता बल्कि बराबरी और स्वायतता के आधुनिक मूल्यों को प्रोत्साहित करता है।

आरएसएस के मोहन भागवत अगर समलैंगिक संबंधों को स्वीकार कर रहे हैं तो वे इस मसले को उसकी तार्किक परिणति तक जाने से निश्चित रूप से नहीं रोक सकते।

यदि नए कानून के तहत एलजीबीटीक्यू समुदाय को नए अधिकार मिलते हैं तो पुरुष-वर्चस्व वाले निजी कानूनों में भी आवश्यक परिवर्तन होंगे और उन्हें ‘जेंडर-जस्ट’ बनाने में मदद मिलेगी। यह काम काफी समय से लम्बित पड़ा हुआ है। अब समय आ गया है कि सरकार पीछे हटे।

(कुमुदिनी पति स्वतंत्र टिप्पणीकार और महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं, लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

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