मेडिकल क्षेत्र में लाइसेंस राज खत्म हो

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देश में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर बहस तेज हो गई है। इतनी विशाल जनसंख्या वाले देश में सिर्फ सरकारी व्यवस्था के भरोसे सबका इलाज संभव नहीं। निजी क्षेत्र के सकारात्मक योगदान से ही यह लक्ष्य पूरा होगा। लेकिन इसके लिए मेडिकल क्षेत्र को मौजूदा लाइसेंस राज से मुक्त करना होगा।

तीन-चार साल कठिन परिश्रम के बाद मेडिकल कॉलेज में प्रवेश पाने वाला मेधावी बच्चा यह सोचता है कि उसका संघर्ष खत्म हुआ। अब जीवन में आनंद होगा। लेकिन उसे मालूम नहीं कि असली संघर्ष तो अब शुरू होगा। साढ़े चार वर्ष बाद इंटर्नशिप में जाने पर उसका सामना लाइसेंस राज से होता है।

उसे मेडिकल काउंसिल में अपना प्रोविजिनल रजिस्ट्रेशन कराना है। पहले यह आसान था। लेकिन अब इसके लिए महीनों प्रतीक्षा करनी होती है। काउंसिल के चक्कर लगाने होते हैं। एक साल बाद प्रोविजिनल रजिस्ट्रेशन को परमानेंट में बदलवाना है।

इंटर्नशिप का स्टाइपेंड समय पर पाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। इसके बाद पीजी करना भी लंबी प्रक्रिया है। पीजी के बाद एडिशनल डिग्री के लिए भी काफी परेशानी उठानी पड़ती है। यदि आपको किसी वेकेंसी में अप्लाई करने की जल्दी है तो आप को मेडिकल काउंसिल की कृपा पर निर्भर होना पड़ेगा।

इसके बाद सरकारी नौकरी में अवसर मिला, तो डॉक्टर खुद इस सड़ चुके सिस्टम का हिस्सा बन जाते हैं। लेकिन यदि किसी ने निजी अस्पताल खोलने का फैसला लिया, तो पूरा जीवन लाइसेंस लेने और उन्हें रिन्यू करवाने की अंतहीन प्रक्रिया में ऐसे बीत जाएगा।

अस्पताल खोलने के लिए सबसे पहले आपको क्लिनिकल एस्टेब्लिशमेंट एक्ट ने रजिस्ट्रेशन कराना है। साथ ही, पॉल्यूशन बोर्ड में भी रजिस्ट्रेशन करवाना होगा। फायर सेफ्टी लाइसेंस लेना भी आसान नहीं। उसके बाद ही आप अस्पताल या क्लीनिक खोल पाएंगे।

इसके बाद आपको लगेगा कि आपने अस्पताल नहीं कोई लाइसेंस संग्रहण केंद्र खोला है। अस्पताल की हर सुविधा और मशीन के लिए अलग लाइसेंस लेने से पहले आपको ईएसआई, पीएफ, जीएसटी, फार्मेसी इत्यादि के लाइसेंस लेने होते हैं। उसके बाद आप एईआरबी, पीएनडीटी, एमटीपी, ब्लड बैंक इत्यादि के लाइसेंस बटोरेंगे।

हर महीने कचरा लेने वाली फर्म से एमओयू करना न भूलें। हर मशीन की वार्षिक मेंटेनेंस से लेकर एनएबीएच भी किसी लाइसेंस के समान हैं। इनके बिना आप आज अस्पताल संचालन के बारे में सोच भी नहीं सकते। स्वयं के लिए और अस्पताल के लिए अलग-अलग इंडेमनिटी इंश्योरेंस लेना भी जरूरी है ताकि कंज्यूमर केस होने पर बचाव हो सके।

इतनी जद्दोजहद के बाद जब तक आप आखिरी अनिवार्य लाइसेंस जुटाएंगे तब तक पहले वाले लाइसेंस का रिन्यूअल आ जाएगा। इस तरह जीवनपर्यंत अनवरत चलने वाली इस प्रक्रिया का आपका प्रथम चक्र पूरा होगा।

इन सबके बीच आपको मरीज को अस्पताल तक लाने के लिए तरह-तरह की सरकारी योजनाओं में भागीदारी के हेतु इनपैनलमेन्ट भी लेने होते हैं। किसी डॉक्टर के पास जिस तरह की विशेषज्ञता है, उस अनुरूप काम करने का अवसर पाने के लिये यह जरूरी है।

काम का अवसर मिलने के बाद समय पर राशि का भुगतान हासिल करने के लिए भी जद्दोजहद करनी होगी। इसमें कितनी राशि की कटौती हो जाएगी, यह कहना मुश्किल है।

अब निजी इंश्योरेंस कंपनीज में इनपैनलमेन्ट के लिए भी रिश्वत देनी पड़ सकती है। इन सबका नतीजा ये होगा कि प्रैक्टिस के कुछ वर्षों बाद आप उस दिन को भी कोसने लगेंगे जिस दिन आपने अस्पताल खोलने का निर्णय लिया होगा।

दुख का विषय है कि इस लाइसेंस राज के ही कारण आज भारत के अधिकांश छोटे मझोले अस्पताल मरणासन्न हैं। सरकारी योजनाओं पर निर्भरता काफी बढ़ चुकी है। जबकि इन योजनाओं से पहले इनकी स्थिति कहीं बेहतर थी। आजादी के बाद देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं अपने निम्नतम स्तर पर थी।

उस वक्त छोटे-मझोले अस्पतालों ने बड़ी राहत दी। लेकिन ऐसे अस्पताल आज अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। चिकित्सक पहले जॉब प्रोवाइडर हुआ करते थे। आज कई डॉक्टर खुद जॉब सीकर बन चुके हैं।

छोटे अस्पतालों की हालत दयनीय है। जनता इन्हें लूट के केंद्र समझती है। लेकिन सच्चाई यह है कि जोखिम उठा कर रात दिन मरीजों के इलाज से जो राशि मिलती है, उसका लगभग आधा हिस्सा सरकार को टैक्स अथवा लाइसेंस फीस के रूप में चला जाता है। बची हुई राशि से अस्पताल का संचालन होता है।

निजी अस्पतालों की मौजूदा दुर्दशा को ठीक करना होगा। ऐसे छोटे अस्पतालों की भूमिका अपने स्थानीय क्षेत्र के क्लीनिक जैसी है। बड़ी आबादी को अपने घरों के आसपास इलाज मिल जाता है।

इसके कारण सरकारी अस्पतालों का बोझ कम होता है। छोटे निजी अस्पताल न हों, तो सारा बोझ सरकारी अस्पतालों पर जाएगा। क्या सरकारी सिस्टम इस बोझ को उठाने में सक्षम है?

बेहतर होगा कि छोटे मझोले निजी अस्पतालों को लाइसेंस राज से मुक्ति दी जाए। कोई सिंगल विंडो हो, जहां आसानी से एक लाइसेंस मिले।

उसका समयबद्ध नवीकरण आसान हो। इसमें अस्पताल के संचालन के जनहित में जरूरी नियम स्पष्ट परिभाषित हों। अनावश्यक परेशानी नहीं होगी, तो हर अस्पताल उन नियमों का पालन करना चाहेगा।

(डॉ राज शेखर यादव वरिष्ठ फिजिशियन होने के साथ यूनाइटेड प्राइवेट क्लिनिक्स एंड हॉस्पिटल्स एसोसिएशन ऑफ राजस्थान के प्रदेश संयोजक हैं।)

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