पिछले सात साल से भारत में जो भी हुआ है या होता आ रहा है, वह पहली बार हो रहा है और ‘दुनिया में सबसे बड़ा’ हुआ है! यह बात कोई और नहीं बल्कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते रहे हैं। जैसे उन्होंने 16 जनवरी को ‘दुनिया के सबसे बड़े वैक्सीनेशन अभियान’ की शुरुआत की थी। उसी तरह उन्होंने पिछले साल 24 मार्च को रात आठ बजे ऐलान किया था कि घड़ी की सुई जब 12 बजे कैलेंडर मे तारीख बदलेगी वैसे ही संपूर्ण भारत में ‘दुनिया का सबसे बड़ा लॉकडाउन’ शुरू हो जाएगा। उन्होंने देश के लोगों को इस लॉकडाउन के लिए तैयारी करने के लिए महज चार घंटे का समय दिया था।
बहरहाल, देश के कई राज्य इस समय दुनिया के सबसे बड़े और सबसे सख्त लॉकडाउन को याद करते हुए एक बार फिर उसी साल भर पुराने त्रासद माहौल से रूबरू हो रहे हैं। एक साल पहले जब देश में कोरोना वायरस के पांच सौ से भी कम मरीज थे तब प्रधानमंत्री मोदी ने 21 दिन के सख्त लॉकडाउन का ऐलान किया था, जो बाद में कई हफ्तों तक चला था। उसके छह महीने बाद जब देश में 24 घंटे में कोरोना संक्रमण के 96 हजार मामले आए थे, तब लॉकडाउन खत्म हो गया था और थोड़ी-बहुत पाबंदियां अलग-अलग सेक्टर में लगी हुई थीं। रेल सेवाएं तो पूरी तरह बंद थीं और आज भी कुछ गाड़ियां ही विशेष ट्रेन के नाम पर चल रही हैं, जिनमें यात्री किराया डेढ़ गुना तक बढ़ा दिया गया है।
इस समय हर दिन एक लाख से ज्यादा संक्रमण के मामले सामने आ रहे हैं। सुबह के अखबार हर दिन मरीजों और मरने वालों की बढ़ी हुई संख्या बता रहे हैं। देश में अस्पतालों की कमी साफ तौर पर महसूस की जा रही है। जो हैं, उनमें जगह नहीं है। कोरोना की दवा और ऑक्सीजन की बड़े पैमाने पर कालाबाजारी हो रही है। लोगों की लंबी-लंबी कतारें सिर्फ अस्पतालों और दवाइयों की दुकानों पर ही नहीं बल्कि श्मशान और कब्रिस्तान तक में लगी हुई हैं।
इस पूरे सूरत-ए-हाल से बेपरवाह हमारे उत्सवधर्मी प्रधानमंत्री देश में चार दिन का टीका उत्सव मनाने का आह्वान करते हुए अपने सबसे प्रिय काम यानी चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं। चार राज्यों में चुनाव प्रचार निबटाने के बाद अब उनका पूरा फोकस पश्चिम बंगाल पर है, जहां उनकी रैलियों में हजारों की संख्या में लोग जुटाए जा रहे हैं। इसी दौरान वे देश की धर्मप्राण जनता से हरिद्वार के कुंभ मेले में शामिल होने का आह्वान करना भी नहीं भूले हैं, जहां रोजाना हजारों की संख्या में लोग कोरोना संक्रमण की चपेट में आ रहे हैं।
कुल मिलाकर देश के कई हिस्सों में कोरोना संक्रमण की नई लहर के चलते हाहाकार मचा हुआ है। लोग इस बात से भी आशंकित हैं कि कहीं एक बार फिर से पहले जैसा संपूर्ण और सख्त लॉकडाउन लागू न हो जाए। लेकिन इस बार लगता है कि प्रधानमंत्री का इरादा लॉकडाउन का नहीं है। इस बार उन्होंने हालात से निबटने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी है और कुछ राज्य सरकारों ने अपने-अपने यहां सर्वाधिक प्रभावित शहरों में लॉकडाउन लगाया भी है।
सवाल है कि पिछले साल लगाए गए करीब दो महीने के संपूर्ण लॉकडाउन से क्या हासिल हुआ था और अब अलग-अलग जगहों पर लगाए जा रहे लॉकडाउन से क्या होगा? क्या पहले लगाए गए लॉकडाउन से सचमुच कोरोना वायरस का संक्रमण रोकने में कामयाबी मिली थी? सरकार दावा कर सकती है, कर क्या सकती है, कर ही रही है। हर जगह सरकार के मंत्री और सत्ताधारी पार्टी के नेता बता रहे हैं कि वह तो मोदी जी थे, जो उन्होंने देश को बचा लिया, वरना दुनिया के अमीर देशों की हालत देखिए, वहां कैसी बरबादी हुई है।
लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? क्या सरकार ने या उसकी आईसीएमआर जैसी किसी एजेंसी ने कोई सर्वेक्षण या अध्ययन किया है, जिससे पता चला हो कि लॉकडाउन से वायरस नियंत्रित हुआ और अगर लॉकडाउन नहीं हुआ होता तो देश में किस पैमाने पर संक्रमण फैल जाता? असल में इस किस्म का कोई सर्वे या अध्ययन नहीं हुआ है। यह सिर्फ बिना सोचे-समझे किए गए एक फैसले को न्यायसंगत ठहराने वाले जबरदस्ती के तर्क है। असल में लॉकडाउन से वायरस का संक्रमण नहीं रुका, बल्कि लोगों की जिंदगी ज्यादा तबाह हुई।
लॉकडाउन की मार से लाखों छोटे कारोबारी बरबाद हो गए। जिन छोटे-छोटे कारोबारियों ने नोटबंदी और जीएसटी की मार झेल ली थी और किसी तरह खुद को बचाए हुए थे उनका कारोबार भी लॉकडाउन में बंद हो गया। निजी क्षेत्र में काम कर रहे लाखों लोगों की नौकरियां चली गईं। स्कूल-कॉलेज आज तक बंद हैं। चार घंटे के नोटिस पर बिना किसी योजना और तैयारी के लॉकडाउन करने का नतीजा यह हुआ कि रोजी-रोटी की जुगाड़ में महानगरों और बड़े शहरों में रह रहे लाखों लोग पैदल अपने घरों-गांवों के लिए निकल गए। प्रधानमंत्री के लगाए सख्त लॉकडाउन और कोरोना की तुलना महाभारत की लड़ाई से किए जाने के बाद जो घबराहट और भय पैदा हुआ उसमे यह सोच कर लोग निकल पड़े कि जब मरना ही है तो अपनी मिट्टी में जाकर मरेंगे। इस सिलसिले में कई लोग भीषण गरमी, बीमारी, भूख-प्यास और थकान से रास्ते में ही मर गए। जो लोग जैसे-तैसे अपने घरों को पहुंच गए उनके सामने रोजी-रोटी का संकट था।
एक साल पहले लाखों लोगों के पलायन का जो दर्दनाक मंजर बना था, वह आज भी सत्ता में बैठे लोगों के तो नहीं लेकिन आम लोगों के रोंगटे खड़े कर देता है। भारत विभाजन के समय इधर और उधर के लाखों लोगों ने जो त्रासदी झेली थी, उसी की पुनरावृत्ति पिछले साल मार्च के आखिर और अप्रैल के शुरू के दिनों में हुई थी।
अब एक साल बाद फिर पहले से भी ज्यादा भयावह रूप में कोरोना का कहर टूट पड़ा है वही दृश्य अलग-अलग राज्यों में देखने को मिलने लगे हैं। अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग शहरों में छोटी-बड़ी अवधि के जो लॉकडाउन लागू किए जा रहे हैं, उसके चलते लोगों में फिर भय और घबराहट का माहौल है। लोग कोरोना से संक्रमित हो रहे हैं, मर रहे हैं। एक साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस दशक के जिस सबसे अश्लील मुहावरे ‘आपदा में अवसर’ का आविष्कार किया था, उसे न सिर्फ उनकी सरकार बल्कि निजी अस्पतालों के संचालक और दवा कारोबारी भी जमकर भुना रहे हैं। यह सब सिर्फ भारत में ही संभव है, क्योंकि भारत विश्व गुरू बनने की राह पर जो है।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)