Friday, March 29, 2024

लूटबाज़ारी है देश की नयी वैध व्यवस्था  

आलू की बुआई लगभग पूरी हो चली है। गेंहू की बुआई भी लगभग दो तिहाई या इससे कुछ ज़्यादा हो चली है। बावजूद इसके डीएपी की किल्लत से किसान लगातार जूझ रहे हैं। कई जगह डीएपी के लिये मार-पीट की ख़बरें भी आयीं। सवाल यह है कि जब दो तिहाई बुआई हो चुकी है, यानि डिमांड कम हो गई है तब भी डीएपी या दूसरे उर्वरकों की कमी क्यों है? प्रयागराज जिले के तहसील फूलपुर के एक किसान भीखाराम पटेल बताते हैं कि पिछले दो साल से वो बिना डीएपी के ही फसलों की बुआई कर रहे हैं। वो बताते हैं बुआई के सीजन में इतनी मारामारी रहती है कि क्या कहें। 

ऊपर से सहकारी समितियों में समय से डीएपी नहीं आती। खेत की नमी उसका ताव मारा जाता रहता है। भीखाराम अपनी लाचारी बयां करते हुए कहते हैं कि अगर वो डीएपी देखते रह जायें तो खेत की नमी मारी जायेगी और उनको दोबारा खेत पलेवा करने और नमी तैयार करने में, बुआई कम से कम 10 दिन पिछड़ जायेगी। तकनीक ने किसान को कितना निरीह बना दिया है उस विसंगति को उजागर करते हुये भीखाराम कहते हैं कि अब बैलों का ज़माना तो रहा नहीं, हर कोई ट्रैक्टर से खेती कर रहा है। समय से न बोयें तो खेत तक ट्रैक्टर पहुंचने का रास्ता बंद हो जाता है। क्योंकि उनके खेत तक ट्रैक्टर किसी न किसी के खेत से होकर ही जायेगा। 

उत्पादन प्रभावित करने का एक तरीका उर्वरकों की अनुपलब्धता भी है। एक ओर जहां सहकारी सोसायटी में डीएपी की कमी है वहीं बाज़ार में डीएपी ऊंचे दामों में बिक रही है। और तो और नकली डीएपी भी बाज़ार में मुँह मांगे दामों में बिक रही है। इससे एक ओर जहां ग़रीब किसान बिना डीएपी के बुआई करने को विवश हुये हैं वहीं ठीक ठाक यानि मझोले किसान नकली या मिलावटी डीएपी से ही काम चला लिये हैं। दोनों ही स्थितियों में उत्पादन पर असर पड़ना तय है। उत्पादन कम होगा तो मांग ज़्यादा होगी। 

मांग ज़्यादा होगी तो मुनाफ़ा भी ज़्यादा होगा। हम कालाबाज़ारी या ब्लैकमार्केंटिंग शब्द के ख़िलाफ़ हैं। क्योंकि ये शब्द नस्लवादी संस्कृति की उपज हैं और ये शब्द काले नस्ल के लोगों के प्रति नकरात्मक अर्थछवियां स्थापित करते हैं। अतः इन शब्दों के इस्तेमाल से बचते हुये इस रिपोर्ट में कालाबाज़ारी शब्द के बदले हम चोरबज़ारी, लूटबज़ारी शब्द का इस्तेमाल कर रहा हैं। साथ ही जनसमाज को सजग करते हुये आग्रह करते हैं कि वो लोग भी ‘काली नीयत’ , ‘कालाधन’,  काली करतूत, ‘मुंह काला करना’, जैसे शब्दों और मुहावरों से बचने की अपील करते हैं। 

प्रयागराज जिले के कोरांव क्षेत्र में आदिवासी कृषि मज़दूरों के हितों के लिये काम करने वाले भीमलाल बताते हैं कि मामला केवल मांग और आपूर्ति का नहीं रह गया है। आप देखिये कि हाल ही में उत्तर प्रदेश के सिर्फ़ चार जिलों में डेंगू का प्रकोप फैला था और इतने में ही ख़ून व प्लेटलेट्स की कमी हो गई और नकली और मिलावटी प्लेटलेट्स का बाज़ार खड़ा हो गया। दवाइयों की बात छोड़िये कीवी, नारियल पानी, बकरी का दूध और पपीते के पत्ते भी मुंह मांगे दामों में बिके जिनका डेंगू के इलाज से कोई प्रत्यक्ष संबंध भी नहीं था। कुल मिलाकर मामला यह है कि कमी किसी चीज की नहीं है लेकिन मोटा मुनाफ़ा कमाने के लिये ये व्यवस्था खड़ी की गयी है। 

इसी मुद्दे पर लेबर एक्टिविस्ट सुभाशीष दास शर्मा कहते हैं लूट बज़ारी इस देश में एक वैध व्यवस्था बन चुकी है। वो आगे कहते हैं कि जब आप ज़्यादा मुसीबत में हों तो आपसे ज़्यादा चार्ज वसूला जाता है। ओला उबर टैक्सी सर्विस को ही देख लीजिये। वो पीक टाइम और रात्रि सेवा के लिये कस्टमर से ज़्यादा चार्ज वसूलते हैं। अब यही व्यवस्था रेलवे में भी है। जैसे जैसे सीटें कम होती जाती हैं वैसे वैसे यात्री किराये में वृद्धि होती जाती है। तत्काल सेवा का चार्ज तो सामान्य से दो तीन गुना ज्यादा लिया जाता है।

जनचौक से बात करते हुये सुभाशीष आगे कहते हैं कि तत्काल का अभिप्राय है किसी को अर्जेंट या ज़रूरी काम, या मुसीबत में होना। मुसीबत को उन्होंने मुनाफे के मौके के रूप में बदल लिया है। इमरजेंसी केसेज को मेरिट पर लेने के बजाय निजी डॉक्टर मुनाफे के अवसर के रूप में लेते हैं। और मरीज से सामान्य की अपेक्षा ज़्यादा चार्ज वसूलते हैं। यह अमानवीय तो है पर चलन में है। सुभाशीष बताते हैं कि एक निजी अस्पताल में वो गये थे अपनी मिसेज को दिखाने। वहां मरीज को देखने का सामान्य चार्ज अलग था और तत्काल देखने का चार्ज अलग। ऐसे में पैसे वाले लोग अपनी बारी की प्रतीक्षा करने के बजाय अर्जेंट सेवा के तहत ज्यादा पैसा देकर डॉक्टर से मीटिंग फिक्स कर लेते। 

असल में व्यापारी और कारखाना मालिकों का चरित्र एक जैसा है। वे हर वक़्त ज्यादा मुनाफ़े की ताक में रहते हैं, और सरकार भी उनको तरह-तरह से मदद करती रहती है। कोविड वैक्सीन का मामला ही देख लीजिये। शुरुआत में कोविड वैक्सीन तैयार करने वाली देशी कंपनियों ने सरकार को एक डोज वैक्सीन 150 रुपया में बेचा पर जैसे ही आम लोग मौत के डर के मारे टीका लगाने के लिए भाग-दौड़ मचाने लगे, कंपनियों ने देखा यही तो मौका है। एक कंपनी ने 150 रुपये की वैक्सीन की डोज की कीमत को रातों-रात बढ़ाकर 400 रुपये और 600 रुपये कर दिया। वहीं एक कंपनी ने इससे भी आगे बढ़कर कीमत तय किया 600 और 1200 रुपये। जबकि वही वैक्सीन निजी अस्पतालों ने 1500 से 2000 रुपये लेकर बेचा गया है। 

यह सब हुआ केन्द्र सरकार की नाक के नीचे। सरकार ने भी कोई विरोध नहीं किया। असल में सरकार विरोध करेगी कैसे? वे तो पूंजीपतियों के सहयोग से और उनके हित के लिए ही सत्ता में बैठे हैं। पहले तो फिर भी पूंजीपतियों के मुनाफ़े के लालच पर कुछ हद तक शिकंजा कसने की कोशिश होती थी पर अब तो नये उदारीकरण का दौर है। अब है पूंजीपतियों का लूटमार का ज़माना, इसलिए उन पर शिकंजा कसने की कोई भी कोशिश नहीं है। मौजूदा नीति है कि-अगर किसी चीज की मांग बढ़ जाये तो उसकी कीमत भी बढ़ जायेगी। ओला-उबर टैक्सी का किराया भी तो उस नियम से ही तय होता है। जब टैक्सी की मांग कम रहती है तब किराया कम होता, और जब मांग ज्यादा रहती है तब किराया भी ज्यादा होता है।

प्लेन का किराया भी अब इसी नियम से तय होता है। कई साल पहले चेन्नई बाढ़ में डूब गया था। तब हर कोई भागने के लिए बेताब था। उस समय प्लेनों का किराया 7 गुना से 8 गुना तक बढ़ गया था । क्या यह लूटबाज़ारी नहीं है ? कोरोना काल में ऑक्सीजन, ऑक्सीमीटर, अस्पताल का बेड, ऑक्सीजन कनसेनट्रेटर से शुरू कर मास्क तक की लूटबाज़ारी की गयी। इस बारे में सरकार कुछ कहेगी भी तो कैसे? सरकार तो अब खुद ही सभी जगहों में यही नीति अपनाई है। केंद्र सरकार द्वारा साल 2020 में लाये गये तीन केंद्रीय कृषि कानूनों में से एक क़ानून — आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम-2020। इस क़ानून के तहत केंद्र सरकार ने यह छूट देनी चाही कि व्यापारी जितना चाहें जमाखोरी करें, जो मन चाहे कीमत वसूलें, सरकार कुछ भी नहीं कहेगी।

क्या बेवजह ही सरसों तेल की कीमत 100 रुपया से 180 रुपये हो गया ? सिर्फ़ यही नहीं, सरकार खुद ही यह लूटबाज़ारी की नीति को अपनाकर कीमत तय कर रही है। रेल विभाग प्रीमियम ट्रेन के नाम पर एक ट्रेन चलाता है, जिस ट्रेन का किराया तय होता है ट्रेन की सीट के मांग के अनुसार। यानि ट्रेन की उपलब्ध सीटों की संख्या जितनी घटती जायेगी और मांग बढ़ेगी, उतना ही किराया बढ़ता जायेगा। जहां सरकार खुद ही लूटबाज़ारी व्यवस्था को लागू करने में लगी हो वहाँ व्यापारी और कार्पोरेट की लूटबाज़ारी कैसे रुकेगी। दरअसल पूंजीवाद की नीति ही है लूटबाज़ारी। 

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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