Wednesday, April 24, 2024

शिव सेना का साथ लेकर मजबूत होगी धर्मनिरपेक्ष सियासत!

शिव सेना के साथ क्या कांग्रेस को सरकार बनाना चाहिए? यही वह सवाल है, जिससे कांग्रेस तीन हफ्तों से जूझ रही है और इस सवाल पर मंथन का असर भारतीय राजनीति में पड़ना तय है। महाराष्ट्र में यह सरकार का मसला है तो देश में विचारधारा की लड़ाई में ‘समझौते’ का सवाल।

कांग्रेस में संजय निरूपम जैसे असंतुष्ट कांग्रेस की बात बेमानी है, क्योंकि यह तय है कि वे आधिकारिक निर्णय का विरोध ही करेंगे। वे इसे कांग्रेस के लिए ‘बड़ी गलती’ करार दे रहे हैं। मगर, महाराष्ट्र के बाकी कांग्रेस नेताओं की सोच के बारे में क्या कहेंगे जो शिव सेना-एनसीपी-कांग्रेस की सरकार बनाने के हिमायती हैं। क्या उन्हें सत्तालोलुप कहने से बात खत्म हो जाती है?

झारखण्ड, दिल्ली जैसे राज्य जहां विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं या होने वाले हैं, वहां भी शिव सेना के साथ गठजोड़ का विरोध है। केरल जैसे राज्य तो विरोधी हैं ही। इन सबको यह डर सता रहा है कि कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष छवि पर आंच आ सकती है।

महाराष्ट्र में गैर एनडीए सरकार के लिए कांग्रेस आलाकमान को समझाने की कोशिश करने वालों में कांग्रेस के अलावा एनसीपी भी रही है। जो तर्क आलाकमान को प्रभावित करने के लिए रखे गए हैं उनमें शामिल हैं,

  • महाराष्ट्र में बीजेपी को कमजोर करने का यह हाथ आया मौका है।
  • सत्ता में आने का अवसर मिला तो खुद को मजबूत कर सकेंगे।
  • शिव सेना भी कट्टर हिन्दुत्ववाद से बाहर निकलने को तैयार है।
  • शिव सेना के साथ आने से धर्मनिरपेक्षता कमजोर नहीं, मजबूत होगी।
  • शिव सेना में बड़ा बदलाव है जेएनयू छात्रों के आंदोलन का समर्थन।

तर्क तो और भी हैं मगर इन तर्कों ने कांग्रेस आलाकमान को झकझोरा है। सबसे बड़ा तर्क है कि शिव सेना के साथ आने से धर्मनिरपेक्षता कमजोर नहीं होगी। यह मजबूत होगी। शिवसेना ने एनडीए का साथ छोड़ दिया है। केंद्र सरकार से वह अलग हो चुकी है। यह छोटी बात नहीं है कि शिव सेना ने जेएनयू के छात्र आंदोलन का समर्थन किया है। शिव सेना के रुख में आया यह बदलाव वास्तव में छद्म राष्ट्रवाद से बगावत है। जिस छद्म राष्ट्रवाद से लड़ने में कांग्रेस और उसके सहयोगी दल सफल नहीं हो पा रहे थे, क्योंकि उनकी धर्मनिरपेक्षता को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया गया था। वहीं लड़ाई अब शिव सेना लड़ती दिख रही है। शिव सेना में हुआ यह सबसे बड़ा हृदय परिवर्तन है, जिसके बाद शिव सेना को स्वीकार करने में गुरेज नहीं किया जा सकता।

शिव सेना निश्चित रूप से यूपीए में शामिल नहीं हुई है। अगर शिव सेना की नीतियों में हुआ बदलाव धर्मनिरपेक्ष कुनबे को मजबूत करता है तो यह निश्चित रूप से होना चाहिए। सच ये है कि धर्मनिरपेक्षता जिस कथित अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की वजह से बदनाम हुई है, उसका दाग धोने का काम कर सकती है शिवसेना से दोस्ती। कांग्रेस ने सॉफ्ट हिन्दुत्व अपनाने की कोशिश कर इस दाग को धोने की कोशिश की थी, लेकिन वह सफल नहीं हो पाई। अब अवसर खुद चलकर कांग्रेस के पास आया है। ऐसे में धर्मनिरपेक्ष सोच को संतुलित रखने में शिव सेना का साथ कारगर हो सकता है।

राष्ट्रीय स्तर की सियासत में भी आएगा बदलाव

वैचारिक स्तर पर शिव सेना को साथ लेने पर मन से तैयार हो जाने के बाद कोई बड़ी बाधा नहीं रह जाती है। राजनीतिक नजरिए से समझें तो बीजेपी का मुकाबला राष्ट्रीय स्तर पर करने के लिए कांग्रेस को सहयोगी चाहिए। यूपीए का कुनबा बढ़ाने की जरूरत है। इस लिहाज से यह सुनहरा अवसर है जब एनडीए के घटक दल एक के बाद एक बाहर हो रहे हैं। यूपीए अपनी सोच का दायरा बढ़ाकर या सोच में लोच पैदा कर इस स्थिति का फायदा उठा सकती है। नेतृत्व कांग्रेस को ही करना होगा। महाराष्ट्र की सियासत हमेशा के लिए बदल जाएगी। मगर, ऐसा तब होगा जब शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के बीच लम्बे समय के लिए गठबंधन हो और समझदारी बढ़े। यह जरूरी नहीं कि अगला चुनाव ये साथ ही लड़ें। मगर, पांच साल का साथ इन्हें एक-दूसरे से सहयोग के सूत्र में बांध देगा और महाराष्ट्र की सियासत पर इसका बड़ा प्रभाव देखने को मिलेगा।

दूसरी अहम बात ये है कि शिव सेना के कांग्रेस के पास आने का असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी होगा। यह असर दोनों किस्म का हो सकता है। कुछ कथित धर्मनिरपेक्ष दलों को कांग्रेस का साथ छोड़ने का बहाना मिल सकता है, वहीं कुछ नए दल भी साथ आ सकते हैं। चूंकि बदनाम हो चुकी धर्मनिरपेक्षता की सोच में एक नयापन आएगा, इसलिए कांग्रेस सकारात्मक बदलाव की उम्मीद कर सकती है। वह बीजेपी, जेडीयू, टीआरएस जैसे संगठनों को भी अपने साथ भविष्य की सियासत में जोड़ सकती है। एलजेपी और तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों को साथ लाना भी मुश्किल नहीं होगा। तृणमूल कांग्रेस खुद तुष्टिकरण के आरोपों को झेल रही है, इसलिए उसे भी शिव सेना जैसी पार्टी का साथ चाहिए एक संतुलन बनाने के लिए। यही वजह है कि यह उम्मीद की जा सकती है कि बदला हुआ यूपीए तृणमूल का ठौर हो सकता है।

(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल विभिन्न चैनलों की बहसों के पैनल में उन्हें देखा जा सकता है।)

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