Wednesday, April 24, 2024

रिफायनरी, जस्टिस लोया, कोरेगांव, और अंबानी भी हैं महाराष्ट्र में बीजेपी की सत्ता की चाह की वजह

शिव सेना द्वारा तीन लाख करोड़ रुपये की वेस्ट कोस्ट ऑइल रिफायनरी प्रोजेक्ट के विरोध के कारण भाजपा और उसके राष्ट्रीय कर्णधार किसी भी कीमत पर महाराष्ट्र में अपनी सरकार बनाना चाहते हैं। दरअसल शिव सेना देश के सबसे बड़े कहे जाने वाले तीन लाख करोड़ रुपये की वेस्ट कोस्ट ऑइल रिफायनरी प्रोजेक्ट, जो रत्नागिरी में लगने जा रहा है, के खिलाफ है।

शिव सेना ने घोषणा कर रखी है कि वो रिफायनरी प्रोजेक्ट को कोंकण में नहीं लगने देगी। रिफायनरी तीन पब्लिक सेक्टर प्रमोट कर रहे हैं। ये हैं हिंदुस्तान पेट्रोलियम (एचपीसीएल), भारत पेट्रोलियम( बीपीसीएल) और इंडियन ऑइल (आईओसी)। इन तीनों में सबसे बड़ा पार्टनर है इंडियन ऑइल। इसकी प्रोजेक्ट में 50% हिस्सेदारी है। वहीं, हिंदुस्तान पेट्रोलियम और भारत पेट्रोलियम की हिस्सेदारी 25% है। इस प्रोजेक्ट में अम्बानी की रिलायंस भी पिछले दरवाजे से घुसपैठ की फ़िराक में है, जो वह भारत पेट्रोलियम को खरीदकर करेगी।

11 अप्रैल 2018 को तीनों पीएसयू और सऊदी अरामको के बीच रिफायनरी और पेट्रोकेमिकल्स कांप्लेक्स बनाने के लिए एमओयू साइन हुआ था। इसके बाद 2015 में केंद्र सरकार ने प्रोजेक्ट लगाने के लिए महाराष्ट्र को चुना। इससे स्पष्ट है कि भाजपा-शिव सेना को ढाई साल का मुख्यमंत्री पद क्यों नहीं देना चाहती थी, और क्यों शिव सेना के नेतृत्व में एनसीपीऔर कांग्रेस के गठबंधन सरकार को नहीं बनने दिया।

केंद्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने यह कह कर कि शिव सेना, एनसीपी और कांग्रेस का गठबंधन बनाकर महाराष्ट्र में सरकार बनाने की मंशा दरअसल देश की आर्थिक राजधानी पर कब्जा करने की कोशिश थी, इसकी परोक्ष पुष्टि कर दी है। रविशंकर प्रसाद ने प्रकारान्तर से यह मान लिया है कि महाराष्ट्र विशेष रूप से मुंबई कार्पोरेट हितों से जुड़ा है, जिसे भाजपा किसी भी कीमत पर अपने हाथ से निकलने नहीं देना चाहती।

इसमें और भी बहुत कुछ है। महाराष्ट्र के नागपुर में संघ का मुख्यालय है और पुणे पेशवाई हिंदुत्व की अति प्राचीन प्रयोगशाला है, जहां से सावरकर से लेकर नाथूराम गोडसे और अभिनव भारत जैसे कट्टर हिंदुत्व के परोकारों के तार जुड़े हैं, ऐसे में महाराष्ट्र का हाथ से निकलना कहीं न कहीं राष्ट्रीय राजनीति में हिंदुत्व के एजेंडे की धार भोथरी करने का कारक बन सकता है।

फिर गैर भाजपा सरकार बनने पर जज लोया की संदिग्ध मौत और भीमा कोरेगांव मामले में संघ के नजदीकी सम्भाजी भिड़े को बचाने के लिए वाम बुद्धिजीवियों को जेल में बंद करने के मामले भी नए सिरे से जांच के लिए खुल सकते हैं।

यह इस बात से भी समझा जा सकता कि जैसे ही शिव सेना, एनसीपी और कांग्रेस ने सरकार बनाने का इरादा जाहिर किया वैसे ही भाजपा की शुक्रवार/शनिवार की दरमियानी रात में आनन-फानन में सरकार बनवा दी गई और उसी तरह के क़ानूनी झोल का सहारा लिया गया जैसा कश्मीर के मामले में लिया गया। दरअसल 1961 के भारत सरकार के कार्य संचालन नियम 12 के तहत प्रधानमंत्री के पास केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश की जरूरत को नजरअंदाज करने की विशेष शक्ति है। नियम 12 में कहा गया है कि प्रधानमंत्री को इन मामलों में उन नियमों से हटने की छूट मिलती है, जो जरूरी समझे जाते हैं।

बस भारत सरकार के (कार्य संचालन) नियमों के एक विशेष प्रावधान का इस्तेमाल करते हुए केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन हटाने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी दी। इस नियम के तहत प्रधानमंत्री के पास विशेष अधिकार होते हैं। वहीं, नियम 12 के तहत लिए गए किसी फैसले को कैबिनेट बाद में मंजूरी दे सकता है।

दरअसल स्थापित परंपरा में आदर्श रूप से सरकार किसी महत्वपूर्ण मामले में फैसले के लिए इस नियम का इस्तेमाल नहीं करती है। हालांकि पूर्व में इसका इस्तेमाल ऑफिस मेमोरंडम या समझौता पत्रों पर हस्ताक्षर के लिए सरकार करती रही है।

नियम 12 का इस्तेमाल करके जो आखिरी फैसला लिया गया था वह 31 अक्टूबर को जम्मू कश्मीर राज्य के पुनर्गठन को जम्मू कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने के लिए किया गया था। उस दिन राष्ट्रपति ने नियम 12 का इस्तेमाल विभिन्न जिलों को दो केंद्र शासित प्रदेशों के बीच बांटने में किया था। मंत्रिमंडल ने 20 नवंबर को इसे मंजूरी दी थी।

राष्ट्रपति शासन हटने के बाद भोर में चार बजे भाजपा के देवेंद्र फड़णवीस और एनसीपी के अजीत पवार ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी गई। उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित होने के 18 दिन बाद भी कोई राजनीतिक हल नहीं निकल सकने की स्थिति में 12 नवंबर को राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था।

जहां तक जस्टिस बृजगोपाल लोया का मामला है तो उनकी मृत्यु एक दिसंबर 2014 में हुई थी, जिस समय वे सीबीआई के स्पेशल कोर्ट में सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में भाजपा अध्यक्ष और वर्तमान गृह मंत्री अमित शाह समेत गुजरात पुलिस के आला अधिकारियों के ख़िलाफ़ सुनवाई कर रहे थे।

उनके परिवार का कहना था कि जज लोया को इस मामले में ‘अनुकूल’ फैसला देने के एवज में उस समय बॉम्बे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस मोहित शाह ने 100 करोड़ रुपये की रिश्वत का प्रस्ताव भी दिया था। उच्चतम न्यायालय तक में मामला ले जाया गया पर कुछ नहीं हुआ। ऐसी स्थिति में नई महाराष्ट्र सरकार इस मामले में नये सिरे से जांच का आदेश दे सकती है जो गृह मंत्री अमित शाह के लिए परेशानी खड़ी कर सकती है।

भीमा कोरेगांव मामले में हिंसा के आरोपी संभाजी भिड़े और उनके साथियों समेत सैकड़ों राजनेताओं पर दर्ज दंगे जैसे कई गंभीर आरोपों को देवेंद्र फणनवीस सरकार ने वापस ले लिया था। भीमा कोरेगांव हिंसा के आरोपी संभाजी भिड़े के खिलाफ दर्ज तीन केस को वापस लिया गया। वहीं भाजपा और शिव सेना के नेताओं के खिलाफ दर्ज नौ मामले वापस लिए गए हैं।

पुणे के पास भीमा-कोरेगांव में लड़ाई की 200वीं सालगिरह पर निकली रैली के दौरान दो पक्षों में झड़प हो गई थी। इस दौरान एक युवक की मौत हो गई और कई लोग घायल हुए थे। यह हिंसा पुणे से मुंबई तक पहुंच गई थी और हिंसा की वजह से 18 जिले प्रभावित हुए थे।

दूसरी और भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में नौ वामपंथी बुद्धिजीवी सुरेंद्र गडलिंग, वरवारा राव, सुधा भारद्वाज, वर्नोन गोंसाल्विस, अरुण फरेरा, शोमा सेन, महेश राउत और रोना विल्सन जेल में हैं। इनमें से तीन कार्यकर्ताओं सुधा, अरुण और वर्नन पर प्रतिबंधित माओवादी संगठन के साथ संबंध का आरोप है। पुणे पुलिस ने एक दिसंबर 2017 को भीमा-कोरेगांव में हुई हिंसा के मामले में इन सभी लोगों पर मामला दर्ज किया था। हिंसा के पीछे इन लोगों के हाथ होने का शक था।

मुंबई का कॉरपोरेट वार बहुत पुराना है। यह वार 90 के दशक में तेजी से उभरते बिजनेस मैन धीरूभाई अंबानी और उस दौर के टेक्सटाइल किंग नुस्ली वाडिया के बीच हुआ। यह वार 90 के दशक के बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट नुस्ली वाडिया और धीरूभाई के बीच लड़ा गया। यह लड़ाई इसलिए भी अहम थी कि उस दौर में धीरूभाई देश के तेजी से उभरते हुए बिजनेस मैन थे और इंडस्ट्री में अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश कर रहे थे। उनके बिजनेस का अंदाज ही ऐसा था। वाडिया के साथ उनकी जंग टेक्सटाइल बिजनेस पर कब्जा करने की थी। इसमें पॉलिटिकल लिंक्स, मनी पॉवर और हर तरह की उस तिकड़म का इस्तेमाल किया गया, जो हो सकता था।

अंबानी के लिए पहले प्रणब मुखर्जी और मुरली देवड़ा कांग्रेस में लाबींग करते थे और शिवसेना की लेबर यूनियन अंबानी के लिए मुसीबत का कारण बनती थी। अंबानी शिव सेना के आलावा किसी भी सरकार के पक्षधर माने जाते हैं और सभी दलों में उनके लोग हैं।

ऐसी स्थिति में सेना का मुख्यमंत्री अंबानी के लिए अनुकूल नहीं होगा। सारा कार्पोरेट गेम इसी के इर्द गिर्द घूम रहा है। आज धीरू भाई अंबानी नहीं हैं पर उनकी जगह मुकेश अंबानी ने ले लिया है, लेकिन कार्पोरेट के दूसरे चेहरे बदल गए हैं, लेकिन आंतरिक खींचतान जबर्दस्त है। अंबानी और अडानी सरकार के चहेते बने हुए हैं, जिससे दूसरे कार्पोरेट में खासी बेचैनी है।

 (जेपी सिंह पत्रकार होने के साथ ही कानूनी मामलों के जानकार भी हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles