Thursday, April 25, 2024

बापू के पास है घायल लोकतंत्र की औषधि

बड़ी संख्या में लोग मानने लगे हैं कि भारतीय लोकतंत्र एक संकट के दौर से गुज़र रहा है। लोकतान्त्रिक संस्थाओं की कार्य शैलियाँ बदल रही हैं, कार्यकारिणी और न्यायपालिका के काम-काज में अनावश्यक हस्तक्षेप हो रहा है और शैक्षणिक संस्थाओं में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से दखलंदाजी बढ़ती जा रही है। पाठ्यपुस्तकें बदली जा रही हैं और इतिहास को तोड़-मरोड़ कर बच्चों के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। कहीं फैज़ पर निशाना है तो कहीं किसी और ऐसे लेखकों और चिंतकों पर जो प्रतिक्रियावादी ताकतों से अलग हट कर सोचता है, उनके खिलाफ आवाज़ उठाता है। हालाँकि ये सभी काम कमोबेश सभी सरकारें करती हैं, क्योंकि सत्ता में बने रहने के यही परंपरागत तरीके हैं। पर अब अधिक से अधिक लोग महसूस करने लगे हैं कि रेंगता हुआ, लिजलिजा फासीवादी सर्प जीवन के हर इलाके में अपनी नाक घुसेड़ रहा है।

ऐसी स्थितियों में एक छोटा वर्ग उन लोगों का भी है जिनका मानना है कि महात्मा गांधी की विचारधारा में इन समस्याओं का समाधान उपलब्ध है। उनके पास ऐसा ताबीज़ है जो लोकतान्त्रिक तौर तरीकों की हिफाज़त कर सकती है। शर्त यह है हम उसे समझें और स्वीकार करें। ज़रा इसके अलग अलग पहलुओं पर नज़र डाल कर देखा जाए।   

करीब दो वर्ष पहले मैंने अपनी छात्राओं से कॉलेज में पूछा था कि क्या गांधीजी के विचारों की आज के समय में कोई प्रासंगिकता है भी या नहीं। ज़्यादातर इस बारे में चुप ही रहीं, पर कुछ ने कहा कि आज के भारत में गांधी जी बस एक नाम बन कर रह गए हैं। मुझे यह जान कर भी आश्चर्य हुआ कि कॉलेज की छात्राएं, जिनमें कई राजनीति शास्त्र और समाज शास्त्र की भी अध्येता थीं, गांधी जी और उनके विचारों के बारे में कितना कम जानती हैं! मौजूदा राजनीतिक माहौल और लोकतंत्र, एक सर्वसमावेशी, खुली हुई विचारधारा, अल्पसंख्यकों के बारे में फ़िक्र वगैरह से जुड़ी उनकी सोच कितनी तेजी से नष्ट हो रही थी। कैसे हमारे छात्र भी एक खतरनाक कुप्रचार, एक बहुत बड़े झूठ के शिकार हुए जा रहे हैं, और उन्हें इस बात की खबर ही नहीं! यह क्षण मेरे लिए दुःखद और आंखें खोलने वाला क्षण था। यह सच है कि मेरे छात्रों को गांधी जी की अहिंसा और सत्याग्रह से जुड़ी बातें एक यूटोपिया की तरह लगती थीं। पूरी तरह अव्यवहारिक और असंगत। पर यह सच बर्दाश्त करना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल प्रतीत हो रहा था।

अफ़सोस की बात है कि भारत में छात्र और शिक्षक समुदाय में गांधी के दर्शन की वास्तविक सुरभि तो दूर, उनके बारे में बुनियादी जानकारी के स्तर पर भी उनसे बहुत दूर होता चला जा रहा है। यह रुग्णता विश्वविद्यालयों में बहुत ऊपर, प्रशासनिक और राजनीतिक स्तर से भी शुरू हुई है। प्रिंसिपल और वीसी शैक्षणिक संस्थानों के प्राचार्यों के साथ अपनी बैठकों में इसका इशारा दे देते होंगे कि गांधी जी को जहाँ तक हो सके दूर रखना है। उन्हें नमस्कार वगैरह तो करना है, एक परिपाटी के तहत, पर उनकी बातों को नज़रंदाज़ कर देना है। गांधी जी की सोच एक ख़ास किस्म के विभाजनकारी एजेंडा को पूरा करने में बाधा बनती है।

इस राजनीतिक एजेंडा को शिक्षा के जगत के खास मुहावरों में लपेट कर पेश किया जाता है। होशियार जल्दी समझ जाते हैं, और थोड़े अनाड़ी भी देर सवेर इसे समझ कर या बिना समझे स्वीकार कर लेते हैं। पिछले कम से कम चार दशकों में भारत से ज्यादा देश से बाहर गांधी जी को पढ़ा और समझा गया है। बीसवीं सदी के महान चिंतकों और नेताओं के विचारों पर गांधी जी का असर इस बात को साबित करता है। नेल्सन मंडेला, खान अब्दुल गफ्फार खान, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और यहाँ तक कि बराक ओबामा ने भी गांधी को एक हीरो की जगह दी थी। ऐसे लोगों की फेहरिश्त बहुत लंबी है और यहाँ इसका ज़िक्र आवश्यक नहीं। 

गांधीजी के विचारों के बगैर शायद ही किसी नई वैश्विक व्यवस्था की कल्पना की जा सकती है। हिंसा और असहिष्णुता की संस्कृति के खिलाफ बापू की सोच एक बहुत ही सशक्त वक्तव्य रही है। देश की सरहदों से, भारतीय संस्कृति और विचारधारा से कहीं बहुत ऊपर और अलग हट कर गांधी के ईमानदार प्रयोगों को समझा जाना चाहिए। किसी संकीर्ण विचारधारा के आलोक में नहीं। जिन प्रभावों ने गांधी जी के चरित्र को गढ़ा था वे किसी एक ख़ास देश और संस्कृति तक सीमित न होकर, समूचे विश्व से संबंधित थे। गांधी सही अर्थ में एक विश्व नागरिक, ‘सिटीज़न ऑव द वर्ल्ड’ थे। 

पिछली सदी में ही गांधी जी समूची मानवता की नैतिक चेतना का अभिन्न हिस्सा बन चुके थे।  दशकों से वह हर तरह के अन्याय के खिलाफ संघर्ष के एक सशक्त प्रतीक रहे हैं। असहमति और अन्याय के खिलाफ शालीन विरोध का गांधी जी एक पर्याय है। गांधी जी की प्रासंगिकता इसी ‘विरोध की संस्कृति’ के आलोक में परखी जा सकती है। गांधी जी ने जिस तरह से ‘हिन्द स्वराज’ में आधुनिक सभ्यता की आलोचना की उससे आज के छात्रों और शिक्षकों को परिचित करने की बड़ी जरुरत महसूस होनी चाहिए। उन्होंने पश्चिमी आधुनिक सभ्यता पर जम कर प्रहार करने का कोई भी मौका नहीं चूका। गांधीजी ने कुछ ऐसे प्रश्नों के बीज इस देश की चेतना में रोपे जो हमेशा के लिए प्रासंगिक रहेंगे।

यदि इन प्रश्नों को हम आज नहीं पूछेंगे तो हमें उनको भविष्य में पूछने की जरुरत पड़ेगी। यह याद रखना जरुरी है कि गांधी जी जैसे लोग अपने समय से बहुत पहले जन्म लेते हैं और कार्य करते हैं। उनके प्रश्नों और कार्य शैली की प्रासंगिकता पर प्रश्न का सिलसिला उनके जाने के कई दशकों बाद भी जीवित रहता है। गांधीजी एक महान मूर्तिभंजक थे; हर पद्धति और प्रणाली पर उन्होंने सवाल किये। ऐसे लोगों को समझने में ही आम जन को सदियाँ लग जाती हैं। पर जिम्मेदारी आज के शिक्षकों और छात्रों की है कि वे गांधी जी के दर्शन का महत्त्व समझें और दूसरों को भी समझाएं। और यह जिम्मेदारी हर विषय के, हर स्तर के अध्यापक की है। चाहे वह विज्ञान का हो, या मानविकी का।

आत्म-ज्ञान और उसके जरिये समाज में परिवर्तन का जो अद्भुत नुस्खा गांधी जी ने प्रस्तुत किया, वह अपने आप में अनूठा है। नई वैश्विक व्यवस्था का आधार व्यक्ति की चेतना में परिवर्तन है, यह उन्होंने कहा ही नहीं, इसे जी कर दिखाया। खुद को बदलने की गहरी फ़िक्र में लगे होने के बावजूद गांधी जी ने लगातार समाज में बदलाव के लिए प्रयास किये। आम तौर पर भारतीय चिंतन इन दोनों धाराओं को अलग करके देखता रहा है। आत्मानुसंधान में लगे कई ऋषि, मुनियों, साधकों ने समाज में हो रही गतिविधियों से या तो मुंह मोड़ लिया और बाकी समाज सुधारक सिर्फ सामूहिक, राजनीतिक सुधारों के जरिये समाज में बदलाव के प्रयास करते रहे।

बापू ने इन दोनों धाराओं को एक साथ मिला दिया; अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में ऐसा करके दिखाया।  किसी बड़े परिवर्तन के लिए अपनी जान भी देनी पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए, यह गांधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ अपने संघर्ष में कई कई बार अपने आचरण में दर्शाया। और इस तरह के संघर्ष में शामिल होते हुए भी उन्होंने न ही हिंसा का समर्थन किया, न ही किसी कायरता की आड़ में छिपे।      

गांधी जी को न ही भीड़ का डर था और न ही सरकारी ताकत का। गांधी जी के व्यक्तिगत, सामाजिक और आत्मिक जीवन में उन्हें सबसे बड़ा सहारा अपने आतंरिक साहस का था। लोकतंत्र के प्रति गांधी जी की निष्ठा की वजह से उनकी तुलना लोग सुकरात से भी करते थे। दोनों के लिए बातचीत, संवाद और लगातार प्रश्न पूछते रहना ही जीवन जीने का सही मार्ग था। गाँधी जी किसी दूरस्थ गौरवशाली अतीत के नाम पर नहीं, बल्कि एक प्रगतिशील भविष्य और सार्वजानिक, लोकतान्त्रिक जीवन की ऐसी संभावनाएं निर्मित करने की कोशिश में थे जिसमे संवाद, आपसी बातचीत, आलोचनात्मक दृष्टिकोण, वैज्ञानिक तौर-तरीके, आत्म निरीक्षण और सामाजिक सुधार के लिए सतत प्रयास की संस्कृति निर्मित हो, और यही संस्कृति नए भारत की नई सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था का आधार बने।     

गांधी जी के लिए सत्याग्रह का दर्शन इस भरोसे पर आधारित था कि अहिंसा वास्तव में दुष्टता और पाखंड के खिलाफ संघर्ष का एक मजबूत उपकरण है। सार्वजनिक जीवन में यह झूठ और अन्याय के खिलाफ सबसे सशक्त नैतिक हस्तक्षेप भी है। गौरतलब है कि गांधी जी हिंसा के खिलाफ तो थे पर बार बार यह कहने से थकते नहीं थे कि अहिंसा की जड़ में है असहमत होने का साहस। हरिजन में गाँधी जी लिखते हैं: ‘अहिंसा सबसे सर्वोच्च आदर्श है। यह शक्तिशाली लोगों के लिए है, कायरों के लिए नहीं। दूसरों के हत्या से फायदा उठाने वाले यदि यह सोचते हैं कि वे धार्मिक जीवन जी रहे हैं, तो वे सिर्फ खुद को छल रहे होते हैं।’  

व्यक्ति के नैतिक विकास और उसके साहस पर से उपजा सामाजिक और राजनीतिक लोकतंत्र गांधी जी के लिए एक आदर्श लोकतंत्र था। यह संवाद, आपसी सम्मान और स्नेह पर आधारित था। यह सहिष्णुता और क्षमा पर आधारित था। विविधताओं से भरे आधुनिक समाज के पास इन आदर्शों को अपनाए बगैर और कोई रास्ता ही नहीं अस्तित्व में बने रहने का। यदि इनके विपरीत वह हिंसा, क्रोध, असहिष्णुता और नफरत का महिमामंडन करता है, तो वह जाने-अनजाने में एक आत्मघाती मार्ग पर चल रहा होता है। एक तरह से गांधी जी ने आत्म ज्ञान और आत्म सुधार के जरिये सामाजिक बदलाव के मकसद से राजनीति में शामिल होने का आग्रह लोगों से किया। वह स्वयं भी इन्हीं आदर्शों के साथ राजनीति में रहे और इन्हीं महान आदर्शों के लिए उन्हें जान भी देनी पड़ी।

भारतीय शिक्षा व्यवस्था में इस बात पर बार-बार जोर देने की ज़रूरत है कि देश-दुनिया की भयावह समस्याओं और बढ़ती अराजकता के बीच गांधी लगातार एक गंभीर चिंतक और नैतिक कल्याणमित्र की तरह मार्ग दिखा रहे हैं। हमें बार-बार उनको पढ़ने, उनकी बातों पर चिन्तन- मनन करने की जरूरत है। शिक्षक के नाते भी, और छात्रों की तरह भी। एक आम, समझदार इंसान और नागरिक की तरह भी।

(चैतन्य नागर लेखक और अनुवादक हैं आप आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

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