महुआ मोइत्रा का लेख: भीड़तंत्र में तब्दील होता भारत

Estimated read time 1 min read

2005 के राजू पाल हत्याकांड के एक गवाह उमेश पाल की हत्या के अगले दिन, 25 फरवरी को यूपी विधानसभा में योगी आदित्यनाथ ने कहा, “इस सदन में कह रहा हूं, इस माफिया को मिट्टी में मिला दूंगा।”

इस बीच, गैंगस्टर से नेता बना, पांच बार विधायक रहा, पूर्व सांसद, 100 से अधिक मामलों में आरोपी अतीक अहमद गुजरात की साबरमती जेल में बंद था। उमेश पाल हत्याकांड की जांच के लिए योगी की पुलिस अतीक को यूपी लाने चली गई। आदित्यनाथ के बयान को देखते हुए, अतीक को डर था कि यूपी पुलिस कोई भी बहाना बनाकर फर्जी मुठभेड़ में उसे मार डालेगी और उसे उनके हाथों में सौंपना एक तरह से उसकी मौत के फरमान जैसा होगा।

इससे बचने के लिए अतीक उच्चतम न्यायालय की शरण में गया। उच्चतम न्यायालय ने 28 मार्च को उसकी याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया और उसे आश्वासन दिया कि “राज्य सरकार उसका ध्यान रखेगी” और उसे उच्चतम न्यायालय के बजाय उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने को कहा।

अतीक और उसके भाई अशरफ को कड़ी सुरक्षा के बीच सशस्त्र पुलिस की एक बड़ी टुकड़ी के साथ इलाहाबाद ले जाया गया। 13 अप्रैल को, अतीक के बेटे असद और उसके एक सहयोगी, जो दोनों ही  उमेश पाल हत्याकांड के आरोपी थे, उन दोनों को झांसी में यूपी पुलिस के ‘विशेष कार्य बल’ (एसटीएफ) द्वारा एक “मुठभेड़” में मार गिराया गया।

अतीक ने अपने बेटे की अंत्येष्टि में शामिल होने की अनुमति के लिए आवेदन किया। उसे मना कर दिया गया। 15 अप्रैल की रात करीब साढ़े दस बजे अतीक और अशरफ को पुलिस मेडिकल चेकअप के लिए इलाहाबाद मेडिकल कॉलेज ले गई। जब वे जर्जर पुलिस जीप से बाहर निकले, उनकी हथकड़ियां एक-दूसरे से बंधी हुई थीं, वे केवल 15-20 पुलिसकर्मियों के बहुत ढीले-ढाले घेरे में थे, लेकिन अस्पताल के गेट से कुछ दूर अचानक मीडिया के कैमरे उनके चेहरों पर क़रीब-क़रीब ठूंस दिए गए।

लाइव टीवी फुटेज से यह स्पष्ट है कि मीडिया के लोग अतीक के आसपास के क्षेत्र में पुलिस द्वारा किसी जांच या रोकटोक के बिना ही आराम से पहुंच गये। उन दोनों की जान को जो गंभीर खतरा था, उसे देखते हुए यह ढिलाई बिल्कुल विपरीत दिखती है। मीडिया वालों ने उससे पूछा कि वह अपने बेटे की अंत्येष्टि में क्यों नहीं गया? अतीक बोला, “ये लोग नहीं ले गये तो नहीं गये।”

अगले ही पल, एक पुराने, बड़े आकार के टीवी कैमरे के साथ तीन युवकों ने अतीक और अशरफ पर, बिल्कुल सटाकर, एकदम से गोलियों की बौछार कर दी, जिससे दोनों की मौत हो गई। जब पुलिसकर्मियों ने उन लड़कों को दबोचा, तो वे “जय श्री राम” का नारा लगा रहे थे। खास बात यह है कि पुलिस ने जवाबी गोली नहीं चलायी। उन्होंने उनकी पुलिस हिरासत की भी मांग नहीं की, उल्टे उनकी न्यायिक रिमांड पर खुश थे, जिसका स्पष्ट अर्थ था कि खुलेआम किये गये इस दोहरे हत्याकांड में वे किसी भी तरह की जांच की जरूरत नहीं महसूस कर रहे थे।

यूपी पुलिस की हिरासत में हुई अतीक और अशरफ अहमद की हत्या के बारे में ये खुले तथ्य हैं। उपलब्ध वीडियो फुटेज से यह साफ पता चलता है कि उन्हें अस्पताल ले जाते समय उच्च सुरक्षा जरूरत वाले कैदियों के लिए आवश्यक प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया गया। अगर पुलिस निहत्थी थी तो यह मानक नियमों का उल्लंघन था, और अगर पुलिस सशस्त्र थी तो हत्यारों पर पलटवार न करने का कोई कारण नहीं था, खासकर इसलिए भी कि एक दिन पहले ही उसी पुलिस ने अतीक के बेटे और सहयोगी को पुलिस पर गोली चलाने का आरोप लगाकर मार गिराया था।

खतरनाक उच्च सुरक्षा वाले कैदियों के इतने क़रीब तक मीडिया का बेरोकटोक पहुंच जाना, यह सवाल खड़ा करता है कि इन लोगों को देर रात अस्पताल ले जाने के बारे में क्या मीडिया को इत्तला दी गयी थी? रात 10:30 बजे मेडिकल जांच का समय ही इस बात को लेकर संदेह पैदा करता है कि कहीं यह सुनियोजित हत्या तो नहीं थी?

बहरहाल, इसमें तो कोई संदेह नहीं कि यह हिरासत में हुई मौत थी। लेकिन भारत जैसे देश, जहां हिरासत में हुई क्रूर मौतों का एक लंबा इतिहास है, शायद यह पहली बार हुआ है, जब पुलिस हिरासत में किसी व्यक्ति की हत्या किसी तीसरे पक्ष ने कर दी हो। हिरासत में होने वाली हर मौत के लिए राज्य जिम्मेदार है। इस बार सवाल यह है कि क्या सरकार ने कानून की उचित प्रक्रिया में कमी करके हिरासत में ही इन लोगों को मार डालने की रणनीति तैयार की?

हर व्यक्ति को पहले निर्दोष मानने की धारणा जीवन के अधिकार का ही एक पहलू है। इस मामले में न केवल निर्दोष मानने की धारणा का उल्लंघन हुआ है, बल्कि खुद जीवन के अधिकार का भी उल्लंघन हुआ है। जिनके दोष सिद्ध हो जाते हैं उनके मौलिक अधिकार खत्म नहीं होते। अनुच्छेद 32 के तहत उच्चतम न्यायालय जाने का अधिकार अपने आप में एक मौलिक अधिकार है, जिसे अंबेडकर ने संविधान की आत्मा कहा था।

उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटा कर अतीक ने अपने इसी अधिकार का इस्तेमाल किया था। न्यायालय सभी अधिकारों का संरक्षक है, लेकिन जीवन के अधिकार जैसे सबसे बुनियादी मानवाधिकार को एक विशेष दर्जा दिया गया है। जब उनके जीवन पर खतरा मंडरा रहा था उस समय उन्हें उच्च न्यायालय जाने को कहकर हटा देना सांवैधानिक उत्तरदायित्व के परित्याग जैसा है।

सोशल मीडिया इस समय भगवा माहौल से लबरेज है, इस बात का जश्न मना रहा है कि आखिरकार, हमारे पास योगी आदित्यनाथ के रूप में एक ऐसा नेता है जो अपने वादों को पूरा करता है। “देखकर बड़ा मज़ा आया”, “हमने” उन्हें “सबक” सिखा दिया। इस तरह के उद्गार हमारे भीड़तंत्र के रूप में पतित होने के संकेत हैं, जो सचमुच भयावह है। जब एक राज्य भीड़ में खून की लालसा इस भ्रम में बढ़ाने लगता है कि इससे उसकी राजनीतिक सत्ता हमेशा बनी रहेगी तो कोई ताक़त उसे अदालतों को भंग कर देने और कानूनी प्रक्रिया का खात्मा कर देने से नहीं रोक सकती है।

हर वरिष्ठ पत्रकार इस घटना पर टिप्पणी करते हुए अपने बयान की शुरुआत इस तरह कर रहा है, “मुझे अतीक से कोई प्यार नहीं है।” लेकिन मामला यह नहीं है। यहां तक ​​कि सबसे खूंखार अपराधी को भी अनुच्छेद 21 के तहत संवैधानिक रूप से संरक्षित किया गया है। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।

अतीक के अपराधों के प्रति हमारी घृणा का नतीजा यह होना चाहिए था कि हम उसके खिलाफ पूरी मजबूती से अभियोग लगाते, न कि ग़ैरकानूनी तरीकों से उसका सफाया कर देते। इन लोगों की खुलेआम हत्या उतनी ही घिनौनी बात है जितनी कि उनके द्वारा किए गए कथित अपराध। अतीक एक अपराध के मामले में दोषी साबित होकर आजीवन कारावास की सजा काट रहा था।

यह भारत के सांवैधानिक लोकतंत्र पर एक धब्बा है कि उसे एक ऐसे अपराध के लिए मार दिया गया जिसके लिए उस पर मुकदमा चलाया जाना अभी बाकी था। अतीक की हत्या को एक राष्ट्र के रूप में भारत के भीड़तंत्र में बदलते जाने के रूप में देखा जाना चाहिए।

(‘इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार, अनुवाद: शैलेश)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author