Saturday, April 20, 2024

मी लॉर्ड! अर्णब नहीं, मृत अन्वय और उनका परिवार है असली पीड़ित

अर्णब का मुकदमा तो उनकी निजी आज़ादी से जुड़ा था भी नहीं। अर्णब तो धारा 306 आईपीसी के मुल्जिम के रूप में शीर्ष न्यायालय में खड़े थे न कि एक पीड़ित के रूप में। वे एक अपराध के अभियुक्त हैं और उनके खिलाफ पुलिस के पास सुबूत भी हैं। पुलिस ने सुबूतों के ही आधार पर अर्णब को गिरफ्तार किया था और फिर सीआरपीसी की निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार, मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया और अभियुक्त की पुलिस कस्टडी रिमांड मांगी। अब यह अदालत के ऊपर था कि अदालत ने कस्टडी रिमांड देने से इनकार कर दिया और 14 दिन की ज्यूडिशियल कस्टडी स्वीकार कर मुल्जिम अर्णब गोस्वामी को जेल भेज दिया। 

अर्णब गोस्वामी ने जमानत के लिये अर्जी अधीनस्थ न्यायालय में दिया और फिर उसे वापस ले लिया। अर्णब ने बॉम्बे हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका यानी हैबियस कॉर्पस का मुकदमा दर्ज किया। बंदी तो प्रत्यक्ष था और विधिनुसार पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर के 14 दिन की रिमांड पर जेल में भेज दिया गया था। लंबी बहस के बाद हाईकोर्ट ने यह राहत दी कि, उसने सेशन कोर्ट को यह निर्देश दिया कि वह चार दिन में मुल्जिम अर्णब की जमानत अर्जी पर सुनवाई करे। अर्णब ने सेशन में जमानत की अर्जी दायर भी की। 

पर वे तुरंत सुप्रीम कोर्ट चले गए और वहां भी उन्होंने अंतरिम जमानत का प्रार्थना दिया। जबकि रेगुलर जमानत के लिये सेशन में उनकी तारीख अगले दिन के लिये तय थी। सुप्रीम कोर्ट ने निजी आज़ादी की बात की और पूरी बहस इस पर केंद्रित रही कि पुलिस ने मुल्जिम की निजी आज़ादी को बाधित किया है और जो भी किया है वह उनकी पत्रकारिता की शैली से नाराज़ होकर। 

पूरी बहस में यह कानूनी बिंदु उपेक्षित रहा कि, धारा 306 आईपीसी के अभियुक्त की जमानत की अर्जी अगर सेशन कोर्ट में है और दूसरे ही दिन उसकी सुनवाई लगी है तो आज ही अनुच्छेद 142 के अंतर्गत दी गयी शक्तियों का उपयोग कर अर्णब को उसी दिन छोड़ना क्यों जरूरी था, जबकि पहले भी ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने निचली और सक्षम न्यायालय में जाने के निर्देश दिए गए। 

अदालत का झुकाव मुल्जिम की निजी आज़ादी की तरफ तो था पर जिसका पैसा अर्णब दबा कर बैठे हैं और जो इसी तनाव में आत्महत्या करके मर गया और जिसने अपने सुसाइड नोट में अपनी आत्महत्या के कारणों और अर्णब गोस्वामी की भूमिका का स्पष्ट रूप से नामोल्लेख किया है उसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने राहत की कोई बात ही नहीं की। क्या इससे सुप्रीम कोर्ट की यह छवि नहीं उभर कर आती है कि उसका रुझान अभियुक्त की तरफ स्वाभाविक रूप से दिख रहा है न कि वादी और पीड़ित की तरफ ? 

अर्णब के अंतरिम जमानत पर रिहा किये जाने की अलग-अलग प्रतिक्रिया हुयी है। भाजपा या उसके समर्थक मित्र इसे न्याय की जीत बता रहे हैं, और उसके विपरीत राय रखने वाले न्याय या शीर्ष अदालत पर सवाल खड़े कर रहे हैं। सवाल खड़े करने के पर्याप्त काऱण भी हैं, क्योंकि अर्णब के मामले में जो उदार रुख सुप्रीम कोर्ट का रहा है वह इसी तरह के अन्य मामलों में नहीं रहा है। अंतरिम राहत या अन्य जो भी मामले सुप्रीम कोर्ट में गए, उनमें या तो यही निर्देश मिला कि वे अधीनस्थ न्यायालय में जाएं या कुछ मामलों में गिरफ्तारी पर रोक लगाई गयी। पर 306 आईपीसी या शरीर से जुड़े अपराधों में ऐसी राहत नहीं दी गयी है। 

स्टैंड अप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर कई ट्वीट किए और यह कहा कि यह सुप्रीम कोर्ट नहीं सुप्रीम जोक बन गया है। कुणाल एक हास्य कलाकार हैं और व्यंग्य में अपनी बात कहते हैं। व्यंग्य में जब गम्भीर बातें कही जाती हैं तो वह चुभती भी बहुत हैं। सबसे अधिक असहज कार्टून और व्यंगोंक्तियाँ करती हैं। कुणाल के ट्वीट पर कुछ नए एडवोकेट और कानून के छात्र असहज और आहत हो गए और उन्होंने कुणाल के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही चलाने के लिये कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट के अंतर्गत अटॉर्नी जनरल से अपनी याचिका पर सहमति देने के लिये कहा जिसे अटॉर्नी जनरल ने दे भी दी। सुप्रीम कोर्ट इस पर क्या करता है यह तो बाद में ही पता लगेगा। 

अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल को आठ से अधिक पत्र मिले थे, जिनमें कामरा के ख़िलाफ़ अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की मांग की गई थी। अटॉर्नी जनरल की सहमति के बाद कुणाल कामरा का एक और ट्वीट उनके एक पत्र के साथ आया है जो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के जजों को संबोधित करते हुए लिखा है। पहले यह पत्र पढ़ लें, 

प्रिय जजों और मिस्टर केके वेणुगोपाल,

मैंने हाल ही में जो ट्वीट किए थे उन्हें न्यायालय की अवमानना वाला माना गया है। मैंने जो भी ट्वीट किए वो सुप्रीम कोर्ट के उस पक्षपातपूर्ण फ़ैसले के बारे में मेरे विचार थे जो अदालत ने प्राइम टाइम लाउडस्पीकर के लिए दिए थे।

मुझे लगता है कि मुझे मान लेना चाहिए: मुझे अदालत लगाने में और एक संजीदा दर्शकों वाले प्लेटफ़ॉर्म पर आने में मज़ा आता है। सुप्रीम कोर्ट के जजों और देश के सबसे बड़े वकील तो शायद मेरे सबसे वीआईपी दर्शक होंगे। लेकिन मैं ये भी समझता हूं कि सुप्रीम कोर्ट का एक टाइम स्लॉट मेरे उन सभी एंटरटेनमेंट वेन्यू से अलग और दुर्लभ होगा, जहाँ मैं परफ़ॉर्म करता हूँ।

मेरे विचार बदले नहीं हैं क्योंकि दूसरों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े मामलों पर सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी की आलोचना न हो, ऐसा नहीं हो सकता। मेरा अपने ट्वीट्स को वापस लेने या उनके लिए माफ़ी माँगने का कोई इरादा नहीं है। मेरा यक़ीन है कि मेरे ट्वीट्स ख़ुद अपना पक्ष बख़ूबी रखते हैं।

मैं सुझाना चाहूँगा कि मेरे मामले को जो वक़्त दिया जाएगा (प्रशांत भूषण के खिलाफ़ चले मामले का उदाहरण लें तो कम से कम 20 घंटे) वो दूसरे मामलों और लोगों को दिया जाए। मैं सुझाना चाहूँगा कि ये उन लोगों को दिया जाए जो मेरी तरह कतार तोड़कर आगे आने के लिए पर्याप्त भाग्यशाली नहीं हैं।

क्या मैं सुझा सकता हूँ कि मेरी सुनवाई का वक़्त नोटबंदी की याचिका, जम्मू-कश्मीर का ख़ास दर्जा वापस मिलने को लेकर दायर की गई याचिका और इलक्टोरल बॉन्ड जैसे उन अनगिनत मामलों को दिया जाए, जिन पर ध्यान दिए जाने की ज़्यादा ज़रूरत है।

अगर मैं वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे की बात को थोड़ा घुमाकर कहूँ तो, क्या अगर ज़्यादा महत्वपूर्ण मामलों को मेरा वक़्त दे दिया जाए तो आसमान गिर जाएगा?

वैसे तो भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक मेरे ट्वीट्स को किसी श्रेणी (अवमानना की) में नहीं रखा है लेकिन अगर वो ऐसा करते हैं तो उन्हें अदालत की अवमानना वाला बताने से पहले वो थोड़ा हँस सकते हैं।

कुणाल कामरा के इस ट्वीट को लेकर सोशल मीडिया और अखबारों में काफ़ी चर्चा हो रही है। ट्विटर पर हैशटैग कुणाल कामरा और कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट ट्रेंडिंग में ऊपर है और पक्ष विपक्ष के लोग अपनी अपनी बातें कह रहे हैं। कुछ लोग कुणाल कामरा के ‘बोल्ड’ विचारों के लिए उनकी सराहना कर रहे हैं तो कुछ उनका विरोध भी कर रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि, कुणाल कामरा पहली बार विवादों में घेरे में आए हैं। जनवरी 2020 में ही कुणाल कामरा, अर्णब गोस्वामी से इंडिगो की एक फ़्लाइट में, उनकी सीट पर जाकर सवाल पूछते नज़र आए थे। यह वीडियो वायरल हुआ। बाद में इंडिगो ने उन पर छह माह तक के लिये अपनी फ्लाइट्स पर प्रतिबंध लगा दिया। कुणाल कामरा सोशल मीडिया पर काफ़ी मुखर होकर सरकार और सरकारी नीतियों की आलोचना करते रहते हैं। 

कुणाल के ट्वीट न्यायालय के अवमानना हैं या नहीं, यह तो न्यायालय ही तय करेगा पर कुणाल ने अपने पत्र में जो सवाल उठाए हैं उनके उत्तर जानने की जिज्ञासा भी हम सबको होनी चाहिए। न्याय हो, यह तो आवश्यक है ही, पर न्याय होता दिखे, यह उससे भी अधिक आवश्यक है। अगर अर्णब गोस्वामी अपनी एंकरिंग और पत्रकारिता की शैली के कारण, जेल में बंद होते तो उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ हम सब भी खड़े होते। पर वे तो धारा 306 आईपीसी, आत्महत्या के लिये उकसाने के आरोप में जेल में थे।  जिसमें दस साल की सज़ा का प्रावधान है और धारा 164 सीआरपीसी के अंतर्गत उनके खिलाफ उक्त मुक़दमे के वादी ने अपना बयान भी मजिस्ट्रेट के समक्ष दिया है और मृतक के सुसाइड नोट में उनका नाम भी अंकित है। 

इस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत दी गयी असाधारण शक्तियों का उपयोग सुप्रीम कोर्ट ने किसी पीड़ित याचिकाकर्ता के लिये नहीं बल्कि एक आपराधिक मुक़दमे में गिरफ्तार एक मुल्जिम के लिये किया है, जिसके पास नियमित रूप से विधिक उपचार प्राप्त करने के साधन उपलब्ध हैं और अभियुक्त की जमानत की अर्जी नियमानुसार और न्यायिक अनुक्रमानुसार सेशन कोर्ट में लगी हुयी थी, जिस पर अगले ही दिन सुनवाई होनी थी। 

अर्णब के मुकदमे के दौरान जब सुप्रीम कोर्ट में निजी आज़ादी के सवाल पर बहस चल रही थी तो महाराष्ट्र सरकार के वकील कपिल सिब्बल ने केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन का उल्लेख किया जो दिल्ली से हाथरस, हाथरस गैंगरेप कांड की कवरेज करने जा रहे थे और उन्हें हाथरस में शांति व्यवस्था के मामले में दर्ज एक षड्यंत्र के केस में गिरफ्तार कर लिया गया है। कप्पन की गिरफ्तारी यूएपीए कानून में की गई है और वे महीने भर से अधिक समय से जेल में हैं।

लेकिन इस तर्क और तथ्य पर सुप्रीम कोर्ट ने एक शब्द भी नही कहा, जबकि उसी के कुछ घँटे पहले जस्टिस चंद्रचूड़ यह कह चुके थे कि निजी स्वतंत्रता की रक्षा के लिये वह सदैव तत्पर रहेंगे। लेकिन कप्पन की हिरासत के उल्लेख के तुरन्त बाद ही अदालत, आदेश ड्राफ्ट कराने के लिये कुछ समय के लिये पीठ से हट गयी। फिर जब न्यायालय पीठासीन हुयी तो अर्णब गोस्वामी को रिहा करने का आदेश दिया और उन्हें 50 हज़ार रुपए के मुचलके पर छोड़ दिया। देर रात अर्णब को उक्त आदेश के अनुपालन में रिहा भी कर दिया गया। 

अर्णब की अंतरिम जमानत पर हुयी रिहाई पर किसी को ऐतराज नहीं है। जो भी सुप्रीम कोर्ट ने किया वह उसने अपनी शक्तियों के अंतर्गत ही किया, पर क्या न्यायालय इसी प्रकार के अन्य उन सभी मामलों में, जो आपराधिक धाराओं के हैं और जिनकी नियमित रूप से जमानत की अर्जियां अधीनस्थ न्यायालयों में सुनवाई के लिये लगी हुयी हैं, पर भी निजी आज़ादी के संरक्षक की अपनी भूमिका को बरकरार रखते हुए राहत देगी या यह विशेषाधिकार, विशिष्ट याचिकाकर्ता और अभियुक्तों के लिये ही सुरक्षित है ? यह सवाल कुणाल कामरा ने अपने पत्र में उठाया है और यही जिज्ञासा हम सब की है। 

अर्णब के मामले में सवाल न केवल उनकी अंतरिम जमानत के बारे में ही पूछे जा रहे हैं, बल्कि उनके मुक़दमे की सुनवाई के लिये कतार तोड़ कर प्राथमिकता के आधार पर हुयी लिस्टिंग के बारे में भी उठ रहे हैं। याचिका दायर करने के चौबीस घँटे के अंदर उनकी याचिका सुनवाई के लिये सूचीबद्ध भी कर दी गयी। सुप्रीम कोर्ट में लिस्टिंग को लेकर पहले भी विवाद उठ चुके हैं। चार जजों की प्रसिद्ध प्रेस कॉन्फ्रेंस जो जस्टिस जस्ती चेलामेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ द्वारा 12 जनवरी, 2018 को की गयी थी में, जजों के असंतोष का एक मुद्दा याचिकाओं की लिस्टिंग का था और इसे लेकर तब भी कहा गया था कि, सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। साथी जजों के इस कृत्य को न तो अदालत की अवमानना मानी गयी और न ही इसे निंदा भाव से देखा गया। 

अर्णब की याचिका की तुरन्त हुयी लिस्टिंग को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और सीनियर एडवोकेट दुष्यंत दवे ने सीजेआई को एक पत्र लिखा था जो चर्चा में रहा। हालांकि दुष्यंत दवे के पत्र की प्रतिक्रिया में अर्णब गोस्वामी की पत्नी ने भी उन्हें जवाब देते हुए लिखा कि तुरत लिस्टिंग अर्णब के पहले भी हो चुकी है। उनका कहना सही भी है कि अर्णब की लिस्टिंग का यह मामला अकेला नहीं है। पर इन सबसे एक बात स्पष्ट होकर सामने आ रही है कि अगर आप महत्वपूर्ण हैं, रसूखदार हैं, आप के पास धनबल और सम्पर्क बल है तो, आप को कानून सबके लिये बराबर है के नारे के बीच, न केवल वरीयता मिलेगी बल्कि राहत भी मिलेगी।

इस विसंगति को दूर करने और जनता में यह विश्वास बहाली करने की ज़रूरत है कि सुप्रीम कोर्ट न्याय के मामले में, ऐसा कुछ भी नहीं करेगा जिससे, जनता में उसकी निष्पक्षता को लेकर कोई संशय उपजे। किसी भी संस्था की विश्वसनीयता बनी रहे, यह सुनिश्चित करना उक्त संस्था का ही दायित्व है। भव्य गुम्बदों और प्रशस्त कॉरिडोर में आवासित होने से ही कोई संस्था विश्वसनीय और महान नहीं बनती है। सुप्रीम कोर्ट, अर्णब गोस्वामी के मुकदमे के बाद जो सवाल उस पर उठ रहे हैं का समाधान करने की कोशिश करेगी या नहीं, यह तो भविष्य में ही ज्ञात हो पायेगा। 

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

  

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