मी लार्ड! व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार वरवर राव को भी है

Estimated read time 1 min read

आज जब अर्णब गोस्वामी को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत प्राप्त अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए, जमानत दी तो एक पुराना मामला याद आया। यह मामला है तेलुगू के कवि और मानवाधिकार कार्यकर्ता वरवर राव का। वरवर राव भी अपने मुक़दमे में जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट गए थे, और उन्हें वहां से निराश लौटना पड़ा। तब उन्हें माननीय न्यायालय से यह सुभाषित सुनने को नहीं मिला कि जब राज्य किसी नागरिक के निजी स्वतंत्रता पर प्रहार करेगा तो हम चुप नहीं बैठेंगे। इसके विपरीत उन्हें एक न्यायिक आदेश मिला कि वे निचली अदालतों में जाकर जमानत के लिए दरख्वास्त दें।

पहले अर्णब गोस्वामी के मुकदमे की बात पढ़ें। उनकी अंतरिम जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “अगर राज्य सरकारें व्यक्तियों को टारगेट करती हैं, तो उन्हें पता होना चाहिए कि नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए शीर्ष अदालत है। हमारा लोकतंत्र असाधारण रूप से लचीला है, महाराष्ट्र सरकार को इस सब (अर्नब के टीवी पर ताने) को नजरअंदाज करना चाहिए।” सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी कहा, “यदि हम एक संवैधानिक न्यायालय के रूप में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करेंगे, तो कौन करेगा?… अगर कोई राज्य किसी व्यक्ति को जानबूझ कर टारगेट करता है, तो एक मजबूत संदेश देने की आवश्यकता है।”

अर्णब गोस्वामी केस में, सुप्रीम कोर्ट ने निजी स्वतंत्रता के सिद्धांत को प्राथमिकता दी। यह एक अच्छा दृष्टिकोण है और इसे सभी के लिए समान रूप से लागू किया जाना चाहिए। राज्य को किसी भी नागरिक को प्रताड़ित करने का अधिकार नहीं है। पर यह चिंता सेलेक्टिव नहीं होनी चाहिए।

वरवर राव का किस्सा, अर्णब गोस्वामी के मुकदमे से पहले का है, लेकिन राव से अर्णब तक, कानून तो नहीं बदला पर उनकी व्याख्या और प्राथमिकताएं बदल गईं या अदालत का दृष्टिकोण बदल गया, यह विचारणीय है। पर अदालतों के फैसले बदलते रहते हैं, और नयी नजीरें स्थापित होती हैं और पुरानी विस्थापित होती जाती हैं। पहले जो सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, वह आज बदल गया है और आज सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के उत्पीड़न के खिलाफ, हम भारत के लोगों की निजी स्वतंत्रता की रक्षा करने का जो संकल्प दुहराया है वह एक शुभ संकेत है। वरवर राव की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट को यह निर्देश दिया था कि वह वरवर राव के स्वास्थ्य को देखते हुए मेडिकल आधार पर जमानत के लिए विचार करे, लेकिन खुद जमानत नहीं दी थी।

उस समय वरवर राव के मुकदमे की सुनवाई जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस विनीत शरण और जस्टिस रविंद्र भट्ट की पीठ ने की थी। याचिका, उनकी पत्नी हेमलता के द्वारा दायर की गई थी। याचिका में कहा गया था कि निरंतर जेल में रहने और उनके साथ अमानवीय तथा क्रूरतापूर्ण व्यवहार होने के कारण, उनकी हालत बहुत खराब हो गई है और वे बीमार हैं। याचिका में यह प्रार्थना की गई थी कि उनके स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें मेडिकल आधार पर अस्थायी जमानत दे दी जाए।

वरवर राव के मुकदमे में वकील थीं, सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ एडवोकेट इंदिरा जयसिंह। उन्होंने याचिकाकर्ता हेमलता की तरफ से कहा, “राव को उनके खराब हो रहे स्वास्थ्य के आधार पर जमानत न देना, नागरिक के स्वस्थ रहने के अधिकार का उल्लंघन है। संविधान न केवल जीवन का अधिकार देता है, बल्कि वह सम्मान और स्वास्थ्यपूर्वक जीने का भी अधिकार देता है। इस प्रकार याचिकाकर्ता सम्मान और स्वस्थ होकर जीने के अधिकार से भी वंचित रखा जा रहा है।”

इतने भारी भरकम शब्दों की दलील को न भी समझें तो यह समझ लें कि वरवर राव बीमार हैं और उन्हें इलाज चाहिए। मुंबई की जेल में जब वरवर राव कैद थे, तभी उनकी तबीयत, जुलाई में अधिक बिगड़ने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उन्हें कोरोना का संक्रमण हो गया था। उनकी उम्र, कोरोना संक्रमण और अन्य व्याधियों को देखते हुए, नानावटी अस्पताल के चिकित्सकों ने चेकअप कर के माह जुलाई के अंत में, यह सलाह दी थी कि उन्हें और गहन चिकित्सकीय देखरेख की ज़रूरत है। यह सारे तथ्य, राव के एडवोकेट, इंदिरा जयसिंह द्वारा सुप्रीम कोर्ट में रखे गए थे।

राव, जब सेंट जॉर्ज अस्पताल में भर्ती थे, जो कोरोना अस्पताल था, तब अस्पताल में ही अचानक गिर पड़े और उनके सिर में चोट आ गई। जब इस मामले की मेडिकल जांच हाई कोर्ट के आदेश पर नानावटी अस्पताल से कराई गई तो नानावटी अस्पताल ने 30 जुलाई की रिपोर्ट में यह कहा कि कोरोना संक्रमण ने उनके स्नायु तंत्र को प्रभावित कर दिया है। तभी अस्पताल ने गहन देखरेख की आवश्यकता अदालत को बताई थी।

लेकिन, अस्पताल की इस गंभीर रिपोर्ट के बाद भी 28 अगस्त को उन्हें सिर्फ इसलिए तलोजा जेल वापस भेज दिया गया, ताकि कहीं मेडिकल आधार पर उनकी जमानत अदालत से न हो जाए। यह बात इंदिरा जयसिंह द्वारा सुप्रीम कोर्ट में कही गई। अस्पताल से पुनः उन्हें जेल भेजा जा रहा है, यह बात वरवर राव के परिवार के लोगों को भी नहीं बताई गई। इंदिरा जयसिंह ने यहां तक कहा, “वह किसी की अभिरक्षा में हुई मृत्यु के लिए जिम्मेदार नहीं होना चाहतीं, इसलिए अगर जमानत नहीं, तो कम से कम यही आदेश अदालत जारी कर दे कि जब तक बॉम्बे हाईकोर्ट उनकी जमानत अर्जी पर कोई फैसला नहीं कर देता, उन्हें बेहतर चिकित्सा के लिए नानावटी अस्पताल में भर्ती करा दिया जाए।”

अब सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा जयसिंह की दलीलों पर जो कहा, उसे पढ़िए और अर्णब गोस्वामी के मामले में 11 नवंबर 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने जो व्यवस्था दी, उसे भी देखिए तो लगेगा कि क्या यह सुप्रीम कोर्ट की निजी आज़ादी के मसले पर किसी चिंता का परिणाम है या कोई अन्य कारण है।

जस्टिस यूयू ललित ने कहा कि इस मुकदमे के तीन पहलू हैं,
● प्रथम, सक्षम न्यायालय ने इस मामले में संज्ञान ले लिया है और अभियुक्त न्यायिक अभिरक्षा में जेल में है, अतः यह गिरफ्तारी अवैध गिरफ्तारी नहीं है।
● द्वितीय, जमानत की अर्जी विचार के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट में लंबित है।
● और अंतिम, राव की जमानत पर विचार करते हुए हाई कोर्ट, उन्हें मुक़दमे के गुण दोष के आधार पर जमानत देता है या उनके स्वास्थ्य के आधार पर, यह क्षेत्राधिकार फिलहाल हाई कोर्ट का है।

अतः “हम यह मामला कैसे सुन सकते हैं? यानी सुप्रीम कोर्ट के दखल देने का कोई न्यायिक अधिकार नहीं है।

इसी बीच, पीठ के एक जज जस्टिस विनीत सरण ने वरवर राव को इलाज के लिए नानावटी अस्पताल भेजे जाने की एक वैकल्पिक राहत पर विचार किया तो जस्टिस यूयू ललित ने कहा, “इस संबंध में भी हाई कोर्ट द्वारा ही विचार करना उपयुक्त होगा।” इसी बीच एनआईए की तरफ से, भीमा कोरेगांव केस की तरफ से अदालत में उपस्थित, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, “किसी भी कैदी की सुरक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेदारी राज्य की है। यदि इस मामले में ऐसा कोई विशेष आदेश होता है तो इससे अन्य कैदी भी इसी प्रकार की राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट की तरफ आएंगे। यह जिम्मेदारी हाई कोर्ट, जहां वरवर राव की जमानत की अर्जी लंबित है, पर ही छोड़ा जाना चाहिए। मेडिकल आधार को भी हाई कोर्ट देख सकती है।

जस्टिस भट्ट ने तुषार मेहता से कहा, “यदि हर कैदी को यदि वह बीमार है तो, बीमारी के इलाज के लिए अस्पताल भेजा जाना चाहिए। कोई भी व्यक्ति बीमारी से जेल में मरना नहीं चाहेगा। स्वास्थ्य सर्वोपरि है।”

पीठ ने इस पर भी चिंता जताई कि हाई कोर्ट ने इस मुकदमे की सुनवाई करने में देर कर दी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस स्तर पर कोई भी दखल देने से इनकार भी कर दिया। सुप्रीम कोर्ट का मानना था कि हाई कोर्ट के समक्ष इस मामले में कई बिंदु हैं और वह इन पर विचार कर रही है तो सुप्रीम कोर्ट का फिलहाल दखल देना उचित नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट को यह निर्देश दिया कि किसी विशेषज्ञता प्राप्त अस्पताल में वरवर राव के इलाज के लिए एक सप्ताह के अंदर विचार कर अपना फैसला दे।

वरवर राव पर भीमा कोरेगांव मामले में एलगार परिषद के एक समारोह में भड़काऊ भाषण देने का आरोप है और उन्हें इसी आरोप में, 31 दिसंबर 2017 को यूएपीए की धारा के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया था, और अब तक वे जेल में हैं। क्या व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार संविधान ने वरवर राव को नहीं दी है?

वरवर राव एक तेलुगु कवि और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। वे अपनी कविताओं के चलते जाने जाते हैं। राव ने 1957 में लेखन की शुरुआत की थी। शुरुआती लेखन से ही राव कविताएं लिखते रहे हैं। उन्हें तेलुगू साहित्य का एक प्रमुख मार्क्सवादी आलोचक भी माना जाता है। राव दशकों तक इस विषय पर तमाम छात्रों को पढ़ाते रहे हैं। वे पांच दशकों से तेलुगु के एक बेहतरीन वक्ता और लेखक रहे हैं। चार दशकों तक तेलुगु के शिक्षक रहे हैं और अपनी तीक्ष्ण स्मृति के लिए जाने जाते हैं।

साल 1986 के रामनगर साजिश कांड समेत कई अलग-अलग मामलों में 1975 और 1986 के बीच उन्हें कई बार गिरफ्तार और फिर रिहा किया गया। उसके बाद 2003 में उन्हें रामनगर साजिश कांड में बरी किया गया और 2005 में फिर जेल भेज दिया गया। उनके ऊपर माओवादियों से कथित तौर पर संबंध होने के भी आरोप लगते रहे हैं। राव, वीरासम (क्रांतिकारी लेखक संगठन) के संस्थापक सदस्य भी रहे हैं।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author