Thursday, March 28, 2024

मी टू-असहमति का एक क्षीण और हताश सा स्वर

राजू पाण्डेय

मी टू पुरुषवाद के प्रभाव से ग्रस्त और त्रस्त रही औरतों की एक ऐसी प्रतिक्रिया हैं,जिसका अर्थ औरतें ख़ुद तलाश रही है। यह प्रतिरोध तो बिल्कुल नहीं है,क्योंकि पुरुष द्वारा शोषण और अत्याचार की अधिकांश घटनाओं को तो बरसों पहले अंजाम दिया जा चुका है। विवाद इस बात पर हो सकता है कि यह हताशा की एक क्षीण और निष्फल अभिव्यक्ति है या प्रतिशोध की एक ऐसी कोशिश,जिसमें शोषित के मन के किसी कोने में इस प्रयास के असफल होने का भय या आशंका या शायद कामना भी हो।

शोषण के अनगिनत स्वरूपों में यौन शोषण सबसे आदिम है और इसीलिए शोषक और शोषित इसके सर्वाधिक अभ्यस्त भी रहे हैं। सामाजिक व्यवस्था, संस्कृति, धर्म,कला और साहित्य में औरतों के शोषण को उसकी शारीरिक और मानसिक संरचना के आधार पर सहज और स्वाभाविक दर्शाने को लेकर अनेक मिथक और सिद्धांत भी गढ़े गए हैं। इस विमर्श का आधार यह मान्यता रही है कि नारी शारीरिक संरचना में पुरुष से कमजोर होती है,इसलिए उसे पुरुष का अवलम्बन चाहिए।

नारी मानसिक रूप से भी कोमल और भावुक होती है और पुरुष की कठोरता ही उसे ख़ुद को और पुरुष को पूर्णता तथा संतुलन प्रदान करती है। यौन समागम का स्वरूप ऐसा होता है कि पुरुष आक्रामक और नारी रक्षात्मक भूमिका में होती है। यौन क्रिया में पुरुष के लिए परम आनंद की सृष्टि उसकी विजय द्वारा होती है और नारी के लिए चरम सुख उसके सम्पूर्ण आत्मसमर्पण और स्वैच्छिक पराजय में निहित है। सेक्सुअल एनकाउंटर प्रकृति द्वारा इस तरह गढ़ा गया है कि यह पुरुष के लिए परपीड़क आनंद और नारी के लिए आत्मपीड़क आनंद की सृष्टि करता है। नारी की सहिष्णुता की अवधारणा का बीज भी यौन क्रिया में पुरुष को सहन करने की उसकी भूमिका में निहित है।

पारस्परिक सहमति से होने वाली इस क्रिया का स्वरूप ही ऐसा है कि नारी भोग्या की भूमिका में दिखती है। रजस्वला होकर गर्भ धारण की बाध्यता नारी पर यह उत्तरदायित्व स्वतः ही डाल देती है कि वह संतानों का पालन पोषण करे और घर में आबद्ध रह कर परिवार को स्थिरता प्रदान करे और पुरुष अर्थोपार्जन के लिए बाहर जाए। अनगिनत अमर कलाकृतियां और कालजयी रचनाएं,नारी की इसी भूमिका पर आधारित हैं और इनमें मातृ स्वरूपा नारी, प्रेम में आत्मोत्सर्ग करने को उद्यत नारी, चरित्रहीन पति के अत्याचारों को सहकर परिवार की रक्षा करती नारी जैसे उसके रूपों को अभिव्यक्ति मिली है। प्रेम के उद्दाम स्वरूप के विशद चित्रण में- रीझने-रिझाने तथा रूठने-मनाने और पारस्परिक अठखेलियों के सर्वश्रेष्ठ वर्णनों में- नारी और पुरुष की भूमिकाएं भी यौन समागम के इस स्वरूप द्वारा निश्चित की गई लगती हैं। यद्यपि इनकी  अभिव्यक्ति परिष्कृत और सूक्ष्म होती है ।त्याग, सहनशीलता और समर्पण नारी के लिए आत्म पीड़क आनंद के जगत के मूल्य हैं। आत्म पीड़ा में आनंद ढूंढने का विमर्श नारी के शोषण को न्यायोचित ठहराने की रणनीति का एक भाग है।

धार्मिक साधना के माध्यम से मुक्ति पाने के मार्ग में नारी अनेक बार एक बाधा की तरह मानी गई है। वह विभिन्न अवसरों पर ब्रह्मचर्य और आत्म संयम के मार्ग से भटकाने वाली भी समझी गई है। उसे रजोधर्म आदि शारीरिक विशेषताओं के कारण धार्मिक कर्मकांड के लिए अशुद्ध भी समझा गया है। दास्य भाव उसे सहज उपलब्ध है और इसके माध्यम से ही वह ईश्वर के निकट पहुंच सकती है। 

भारत के परंपरावादी समाज से उत्तर आधुनिक समाज तक नारी की रोज़-ब-रोज़ और उत्क्रमणीय यात्रा कठिन और कठोर रही है। अपनी अनेक भूमिकाओं के निर्वाह के लिए बहुत सारे रूप धरना नारी की विवशता है। इस विवशता के अतिरिक्त उसका अपना अन्तर्द्वन्द्व भी नारी के व्यक्तित्व को परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों वाले एक ऐसे पुंज में बदल देता है,जिसकी व्याख्या तो वह स्वयं ही नहीं कर सकती, न वह अपने व्यवहार की स्वयं भविष्यवाणी ही कर सकती है। भारत जैसे देश में नारी के लिए पेशे का निर्धारण और चयन पुरुषवादी समाज द्वारा निर्मित उसकी छवि और पुरुषवादी समाज की आवश्यकताओं द्वारा होता है। उसके लिए नर्स, शिक्षिका, निजी सहायिका, रिसेप्शनिस्ट, स्टेनो, सेविका जैसे कार्य अच्छे माने जाते हैं,क्योंकि यह समझा जाता है कि उसमें सेवा, बच्चों से तालमेल बैठाने और पुरुष मालिकों का ध्यान रखने के गुण प्रचूर होते हैं।

कभी उसे भोग्या की भूमिका के लिए तैयार किया जाता है और वह अपनी देह का उपयोग फार्मूला फिल्मों और विज्ञापनों में पुरुषों को आकर्षित करने के लिए करती नजर आती है। प्रशासनिक अधिकारी, व्यवसायी या राजनेत्री, खिलाड़ी या सेना या फिर पुलिस की नौकरी करती महिलायें, सफलता के तमाम उदाहरणों के बाद भी अपवाद ही मानी जाती हैं और उसकी उपलब्धियों की अतिरंजित प्रशंसा करते हुए यह रेखांकित किया जाता है कि महिला होने के बाद भी उसने इन उपलब्धियों को हासिल कर लिया है। लेकिन उसकी योग्यता के आंतरिक मूल्यांकन में पुरुष समाज और उसके पुरुष-समकक्ष उसे हमेशा दूसरे दर्जे की प्रतिभा के रूप में ही आंकते हैं।

नारी की अनेकों जिम्मेदारियां, उसकी अनुभवहीनता और शातिर पुरुष समाज द्वारा डाला गया दबाव कार्य क्षेत्र में उसके लिए यह स्थिति उत्पन्न करता है कि वह पुरुष सहकर्मियों एवं पुरुष अधिकारियों की मदद और मेहरबानी की तलबगार हो। इस सहायता और सहयोग के लिए सभ्य भाषा में निष्पादित,लेकिन नितांत निर्मम व्यावसायिक अनुबंध की शर्तों की तरह नारी की देह के उपभोग की शालीन लगने वाली अनुचित मांग भी एक शर्त होती है। यह मांग संबंधित पुरुष और नारी के व्यक्तित्व की प्रबलता और निर्बलता के आधार पर अनुचित और अमर्यादित बाचतीच, स्पर्श या यौन संबंध के विभिन्न स्तरों तक पहुंचती है। कार्यक्षेत्र का प्रभावशाली पुरुष नारी को अपनी मेहरबानी और मदद का आदी बना लेता है। इस तरह वह नारी की मानसिक पराजय को उसकी देह पर अपनी शारीरिक विजय में बदल देता है।

नारी कार्यक्षेत्र में हो रहे इस यौन शोषण को कई बार अपने नीरस और वर्जनाओं से भरे पारिवारिक जीवन की सीलन और सड़ांध से निकास के मार्ग के रूप में देखती है,तो कभी वह इसे विवाहेत्तर संबंधों पर पुरुष के एकाधिकार को चुनौती देने का जरिया मानती है और कभी इसे वह उन पुरुषों से प्रतिशोध लेने का माध्यम समझती है,जिन्हें समाज और परिवार ने उसके जीवन को नियंत्रित करने के लिए अधिकृत किया है। नारी,जिसे विद्रोह और वर्जनाओं से मुक्ति समझती है,दरअसल वह पुरुष सत्ता के वर्चस्व के नए लोक में उसका प्रवेश मात्र है। धीरे धीरे यह मानसिक-दैहिक शोषण ऐसे समझौते में बदल जाता है,जिसमें एक पक्ष ज़्यादा प्रभावशाली है और अपनी अधिकांश शर्तें मनवाने में सफल रहा है। लेकिन कमजोर पक्ष भी असंतुष्ट नहीं है और समझौते में जो मिल गया है,उससे खुश है।

इस तरह वर्षों गुजर जाते हैं और फिर एक दिन जब अचानक मी टू जैसे अभियान शुरू होते हैं तो अपनी शर्तें नारी पर थोपने के अभ्यस्त पुरुष प्रधान समाज को यह समझने में कठिनाई होती है कि उससे चूक कहां हो गयी । उसे लगता है कि नारी समझौते की शर्तों का उल्लंघन कर रही है और फायदा हासिल करने के लिए रजामंदी से किए गए दैहिक समर्पण को शोषण का नाम दे रही है।जब औरतें मी टू अभियान से जुड़ती जा रही है,तब इस अभियान को पुरुष प्रधान समाज, पुरुष के शोषण के खिलाफ नारी के असन्तोष की अभिव्यक्ति कहने में संकोच का अनुभव कर रहा है और वह इसका मूल्यांकन प्रत्येक घटना और हर महिला के निजी जीवन के आधार पर करने का आग्रह भी कर रहा है। इस तरह यह स्थापित करने का प्रयास हो रहा है अमुक महिला अपने करियर की असफलता का दोष उस क्षेत्र के किसी सेलिब्रिटी पर डाल रही है, क्योंकि उसने उस महिला को घास नहीं डाली थी या कोई महिला चर्चा में रहने के लिए ऐसे हथकंडे अपना रही है।

पुरुष समाज दरअसल नारियों के बीच व्याप्त असमंजस, संकोच और मत वैभिन्य का लाभ उठाने की कोशिश कर रहा है। नारी पुरुष द्वारा उसकी देह की मांग का लगातार और हर स्तर पर सामना करते करते इस मांग की इतनी अभ्यस्त हो गई है कि इसकी अमानवीयता और अनौचित्य का बोध तिरोहित होने लगा है। पुरुष की डिमांड की प्रबलता और संकोच की अपनी लिमिट के अनुसार दैहिक समर्पण के प्रकार को चुनने के लिए वह स्वतंत्र हो सकती है,लेकिन दैहिक समर्पण के लिए मना करने का अधिकार शायद उसके पास नहीं है। देह की यह मांग कभी आर्थिक मदद की ओट में आई है, कभी भावनात्मक सहारे के आवरण में होती है,तो कभी यह कार्यक्षेत्र में सहायता के पीछे छिप कर आयी हुई होती है,  कभी यह निर्लज्ज छेड़छाड़ के रूप में समाने आती है । देह दो और पुरुष से सुविधा लो-  इसी स्लोगन की गूंज औरतों ने जिंदगी के हर क्षेत्र में सुनी है।

ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही है कि देह के इस्तेमाल से अपने जीवन में तरक्की करती महिलाओं के प्रति वह ईर्ष्याग्रस्त हो और अपने से अधिक सुंदर और देह के उपयोग को तत्पर महिलाओं के प्रति पुरुषों की मेहरबानियां उसे पीड़ित करें। कोई विचारधारा या वाद अपने शुद्ध रूप में बहुत क्रांतिकारी और आकर्षक लग सकता है,लेकिन दिन-ब-दिन के जीवन की घटनाओं में उसकी अभिव्यक्ति मानवीय संबंधों की जटिलताओं के बीच ही होती है।

यही नारीवाद और मी टू अभियान के साथ भी हो रहा है और इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। यह जटिलता तब और घनीभूत हो जाती है,जब आरोपित पुरुष की जीवन संगिनी उसकी रक्षा के लिए मोर्चा संभाल लेती है। वह जानती है कि अपने परिवार को लोकापवादों और सामाजिक लांछनों से बचाने का एकमात्र जरिया यही है कि पुरुष के दोषों को अनदेखा किया जाए।

मी टू नारी की असहमति,अन्तर्द्वन्द्व और पीड़ा की क्षीण और भ्रम में डूबी हुई अभिव्यक्ति है। यह कोई सामाजिक परिवर्तन ला पाएगी,ऐसा तो नहीं लगता। हां,इस बात की आशंका ज़रूर है कि यह पुरुष समाज को सतर्क और चौकन्ना कर शोषण के नए औजार खोजने का अवसर उपलब्ध कराने का जरिया न बन जाए।

(राजू पांडेय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और आजकल छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में रहते हैं।)

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