Friday, March 29, 2024

लिंचिंग संबंधी भागवत का बयान: अकारण नहीं है महज शब्दों पर संघ का जोर

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुप्रीमो के संघ के स्थापना दिवस- दशहरा- पर वक्तव्य को हमेशा बेहद दिलचस्पी के साथ देखा जाता है। दरअसल संघ में यह लम्बी परम्परा चली आ रही है कि इस सालाना तकरीर को सभी आनुषंगिक संगठनों के लिए भी एक दिशानिर्देशक के तौर पर देखा जाता है।

वैसे यह साल भी खास अलग नहीं रहा। संघ के आनुषंगिक संगठनों के अग्रणी भी इस कार्यक्रम में मौजूद थे। केन्द्रीय मंत्री जनाब नितिन गडकरी और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री जनाब देवेन्द्र फडणवीस भी संघ के यूनिफॉर्म में उपस्थित थे। दोनों ने संघ यूनिफार्म में अनिवार्य काली टोपी भी पहनी थी।

यह बात नोट करने लायक थी कि जनाब मोहन भागवत- जो ठीक दस साल से संघ के सुप्रीमो हैं- के इस भाषण में कुछ भी रणनीतिक किस्म का नज़र नहीं आया। वह कुल मिला कर मोदी सरकार की तारीफ और उसकी कथित कमियों पर सफाई देते नज़र आए। बात यहां तक पहुंची कि विश्लेषकों के एक हिस्से को लगा कि क्या ‘..संघ परिवार में अन्ततः भाजपा संघ पर हावी हो गयी है?’

बहरहाल, देश के सामने उद्घाटित होते आर्थिक संकट – जो अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन से अधिक गहरा हुआ है- पर बोलते हुए यह भी प्रतीत हो रहा था कि उन्हें इस मुद्दे की बेहद कमजोर समझ है। मिसाल के तौर पर उनका मानना था कि इस ‘‘मंदी पर बात करने की जरूरत नहीं है’ क्योंकि ‘‘इससे वह अधिक बढ़ जाएगी’। उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘मंदी का अर्थ होता है ‘‘जब बढ़ोत्तरी शून्य से नीचे पहुंचे’’। / आम तौर पर, अर्थशास्त्री यही मानते हैं कि छह माह या उससे अधिक अंतराल में जब आर्थिक बढ़ोत्तरी नकारात्मक हो जाती है, तब मंदी कहा जाता है।/

वैसे उनके भाषण का एक अन्य अहम पहलू था जब उन्होंने भीड़ द्वारा हिंसा /लिंचिंग/की घटनाओं पर अपनी बात रखी।

ध्यान रहे इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई में भीड़ द्वारा मारे जाने की ऐसी घटनाओं में जो अचानक तेजी देखी गयी है उसका ताल्लुक भारत की सियासत और समाज में बहुसंख्यकवादी ताकतों के उभार से जुड़ा है। हत्याओं के इस सिलसिले की सबसे पहली कोशिश दरअसल प्रथम मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के बमुश्किल पन्द्रह दिनों के अन्दर दिखाई दी थी। मोहसिन मोहम्मद शेख / उम्र 28 साल / वह इन्फार्मेशन टेक्नोलोजी मैनेजर के तौर पर काम कर रहा था।

4 जून 2014 को जब पुणे में अपने दोस्त के साथ घर लौट रहा था तब हिन्दू राष्ट्र सेना- जिसकी अगुआई धनंजय देसाई नामक शख्स कर रहा है- के साथ कथित तौर पर जुड़े गिरोह ने उसका रास्ता रोका और उसे हॉकी स्टिक्स से मारना शुरू किया। उसकी वहीं ठौर मौत हुई। मोदी के अगुआई वाले भारत में वह सबसे पहली साम्प्रदायिक आधार पर निशाना बना कर की गयी हत्या थी।

लिंचिंग/बिना वैध निर्णय के मार डालने का यह सिलसिला व्यक्तिगत कार्रवाई के तौर पर- जहां एक व्यक्ति दूसरे को मारता है- शुरू नहीं हुआ बल्कि एक सामूहिक हिंसा के तौर पर शुरू हुआ- जहां झुंड धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों, टान्सजेण्डर व्यक्तियों और विभिन्न किस्म के वंचित व्यक्तियों को निशाना बनाते हैं। ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसे ‘अन्य’ समझा जाए वह हमले का शिकार हो सकता था। प्रोफेसर संजय सुब्रहमण्यम, जो कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, संयुक्त राज्य अमेरिका में पढ़ाते हैं, उन्होंने इंडियन एक्स्प्रेस को बताया कि इन स्वयंभू हिंसक गिरोहों को यह मालूम रहता है कि उनका कुछ भी नहीं बिगड़ेगा और उनकी हरकतों के प्रति उच्चपदस्थ अधिकारियों की सहमति है।

इन घटनाओं में आयी तेजी के चलते मौजूदा हुकूमत के आलोचक ही नहीं बल्कि हिमायती भी मानते हैं कि यह ऐसा मुद्दा रहा है जिससे मोदी सरकार को देश-विदेश में काफी बदनामी झेलनी पड़ी है। ऐसे भी मौके आए हैं जब वजीरे आज़म मोदी को भीड़ द्वारा हिंसा की ऐसी घटनाओं पर बोलना पड़ा है। याद रहे 2016 के अगस्त में सूबा गुजरात में उठा उना आन्दोलन, जब स्वयंभू गोआतंकियों ने मरी गाय की चमड़ी उतारने के लिए कई दलितों को सरेआम पीटा था और उसका विडियो बना कर सोशल मीडिया पर डाला था। इससे इतना जनाक्रोश पैदा हुआ कि उससे निपटने के लिए जुबां खोलना उनके लिए जरूरी हो गया।

यह माना जा रहा था कि संघ के सरसंघचालक इस मसले पर अपनी जुबां/ कम से कम औपचारिक तौर पर ही सही / खोलेंगे और कहेंगे कि ऐसी घटनाएं अस्वीकार्य हैं। वह फिर हिन्दू धर्म की सहिष्णुता का राग अलापेंगे और सरकार की इस बात के लिए आलोचना करेंगे कि उसे और करना चाहिए। मगर जो हुआ वह बिल्कुल उलटा था।

संघ सुप्रीमो ने इस पूरे मसले को अलग दिशा में मोड़ने की तथा इस तरह भटकाने की असफल कोशिश की। उन्होंने कहा कि लिंचिंग की अवधारणा ‘‘भारत के लिए गै़र/अन्यदेशीय/परायी’’ है और उन्होंने उसकी जड़ बाइबिल की किसी घटना में खोजी। उनका यह भी दावा था कि इसे दरअसल ‘‘समूचे देश और समग्र हिन्दू समाज’’ को बदनाम करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इस तरह देखने के बजाय कि बिना किसी कानूनी समर्थन के बिल्कुल मनमाने ढंग से ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं जबकि किसी निरपराध को भीड़ की हिंसा का सामना करना पड़ रहा है – जो किसी भी जनतंत्र में अस्वीकार्य होना चाहिए – उन्होंने ऐसी घटनाओं को दो समुदायों के बीच के संघर्ष के तौर पर चित्रित करने की कोशिश की।

जैसे कि उम्मीद की जा सकती है कि उनके इस बयान पर विपक्षी पार्टियों ने सख्त आपत्ति दर्ज की और उन्हें कहा कि वह ‘‘लिंचिंग की अमानवीय घटनाओं’’ की भर्त्सना करने के बजाय ‘शब्दों’ पर अटके दिखते हैं। उनकी इस बात के लिए भी आलोचना हुई कि वह ऐसी हत्या की घटनाओं में शामिल अभियुक्तों के महिमामंडन में हिन्दुत्ववादी संगठनों की सक्रियता एवं संलिप्तता पर भी खामोश रहे। याद रहे झारखण्ड में एक मुस्लिम व्यापारी की भीड़ द्वारा हिंसा के अभियुक्तों को जब जमानत मिली तब एक केन्द्रीय मंत्री ने उनको मालाएं पहनायी थीं या लिचिंग की एक दूसरी घटना को अंजाम देने वालों में से एक अभियुक्त जब मर गया, तब उसकी लाश को तिरंगे में लिपटा कर रखा गया था और हत्या के इस अभियुक्त के दर्शन के लिए बाकायदा एक केन्द्रीय मंत्री भी पहुंचे थे।

“ऐसा कोई भी शख्स जिसने केसरिया पलटन की हरकतों, सरगर्मियों को नजदीक से देखा है, जानता है कि शब्दों की बात करना किसी भूलवश नहीं हुआ था। शब्दों का खेल करना, शब्द विज्ञान की बात करना दरअसल उनकी पुरानी आदत का हिस्सा है। यह उनकी इसी चालबाजी एवं धूर्तता का नतीजा है कि उनकी तमाम कार्रवाइयां – जो नफरत एवं असमावेश के उनके फलसफे पर टिकी होती हैं – वह सुंदर साफ सुथराकृत शब्दों में लिपटी होती हैं।

उन्हें लिंचिंग से ऐतराज़ नहीं है, सिर्फ़ शब्द से है। इसलिए फिकर नॉट…आप बेधड़क लिंचिंग करते रहिए, वे इसे देश सेवा कहेंगे। जैसे गो-गुंडों को गो-रक्षक। जैसे बाबरी विध्वंस करने वालों को कार-सेवक। जैसे गुजरात दंगों को क्रिया की प्रतिक्रिया। जैसे आर्थिक मंदी को आर्थिक तेज़ी। जैसे देश की बर्बादी को देश का विकास।

उन्हें सिर्फ़ नाम और शब्द बदलने में रुचि है, काम में नहीं। उनके लिए मॉब लिंचिंग यानी भीड़ द्वारा घेरकर की गई हत्या बुरी नहीं है, बुरा है भीड़ हत्या को भीड़ हत्या कहना। वैसे इससे साफ है कि मॉब लिंचिंग भी दरअसल मॉब लिंचिंग नहीं, बल्कि असल में मोबलाइज़ लिंचिंग है। यानी भीड़ अकस्मात या अचानक किसी को भी घेरकर नहीं मार रही, बल्कि इसके लिए उसे बाकायदा तैयार किया जा रहा है। राजनीतिक प्रेरणा और संरक्षण दिया जा रहा है।

हिन्दुत्व वर्चस्ववादी किस तरह- अन्य धर्मों से ताल्लुक रखने का दावा करने वाले अन्य अतिवादियों की तरह- शब्दों के इस्तेमाल में सावधानी बरतते हैं और मानवता के खिलाफ अपने अपराधों को सजा कर रखने की कोशिश करते हैं, इसे हम महात्मा गांधी की सुनियोजित हत्या के उनके वर्णन से देख सकते हैं। गांधी जिनकी हिन्दू धर्म की संकल्पना – जिसमें सभी को साथ लेकर चलने की जिद थी – निश्चित ही केसरिया पलटन के विश्व दृष्टिकोण से कत्तई मेल नहीं खाती थी।

सूबा महाराष्ट्र- जहां नफरत एवं असमावेश पर टिकी इस विचारधारा को फलने फूलने का बहुत मौका मिला तथा जिसके कई संस्थापक-विचारक तथा अंजामकर्ता इसी से जुड़े और जहां सक्रिय हिन्दुत्व आतंकियों ने ही गांधी को मारने की साजिशें रचीं तथा उसे अंजाम दिया – वहां गांधी की इस हत्या को आम बोल-चाल की भाषा में ‘वध’ कहा जाता है। संस्कृत भाषा से सम्बद्ध इस शब्द का अर्थ हत्या ही होता है, लेकिन एक ऐसी हत्या जो किसी महान उद्देश्य के लिए की गयी हो। इस तरह कृष्ण द्वारा कंस की हत्या को ‘कंस वध’ कहा जाता है। या शूद्र विद्वान शंबूक की हत्या को शंबुक वध कहा जाता है।

वाल्मिकी रामायण का वह प्रसंग है, जो उत्तरकाण्ड /सर्ग 73-76/ में आता है, जिसमें बताया जाता है कि कोई ब्राह्मण राम के दरबार में अपने मृत बच्चे की लाश लेकर पहुंचता है और राम पर यह आरोप लगाता है कि जरूर राम ने कोई पाप किया है कि उसे अपने बेटे से हाथ धोना पड़ा है। नारद मुनि बताते हैं कि दरअसल बच्चे की मौत इसलिए हुई है क्योंकि शंबूक नामक शूद्र ऋषि तपस्या कर रहा है, जो अपने आप में अधर्म है, जिसके चलते बच्चे की मौत हुई है। बाद के घटनाक्रम में शंबूक के सिर को धड़ से अलग हटाने का वर्णन है, जिसे देख कर ब्राह्मण समुदाय बहुत खुश होता है। / द रामायणा आफ वाल्मिकी अनुवाद: हरिप्रसाद शास्त्रीन, लंदन: शांति सदन, 1970/

याद रहे कि हिन्दू राष्ट्र की उनकी विचारधारा के मद्देनज़र हिन्दुत्व वर्चस्ववादियों के लिए गांधी सबसे बड़ी बाधा थे, वह जानते थे कि जब तक गांधी जिन्दा हैं या उनकी विचारधारा का समाज में प्रभाव है, भारतीय समाज को बांटने का उनका एजेण्डा आगे नहीं बढ़ेगा। उनके लिए गांधी वह ‘राक्षस थे जिसे समाप्त किया जाना था’। / मुमकिन है प्रस्तुत आलेख को पढ़ रहे लोगों ने वर्ष 1945 में एक हिन्दुत्ववादी अख़बार में छपे उस कार्टून को देखा होगा, जिसमें गांधी को दशमुखी रावण दिखाया गया था और नीचे हिन्दुत्ववादियों के शीर्षस्थ नेता नज़र आ रहे थे, जो इस ‘रावण’ को मारने में मुब्तिला थे।

इसमें कोई आश्चर्य जान नहीं पड़ता कि मराठी समाज के प्रबुद्ध तबके में उनके गहरे प्रभाव के चलते- उनके लिए यह मुमकिन हुआ कि गांधी की हत्या को गांधी वध कहने की बात को वह लोकप्रिय बना सके।

अन्ततः ‘लिंचिंग’ शब्द के विजातीय होने पर अधिक चिंतित दिख रहे जनाब मोहन भागवत को यह पूछा ही जा सकता है कि क्या इसके स्थान पर ‘वध’ का प्रयोग शुरू किया जाए जो बिल्कुल देशज अवधारणा है तथा इसका लम्बा इतिहास भी है।

(सुभाष गाताडे वामपंथी चिंतक हैं और उन्होंने कई किताबें लिखी हैं। हाल में गांधी पर आयी उनकी किताब बेहद चर्चित रही है।)

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